प्यारा इक बंगला हो...

शुरू तो दरअसल यहीं से होता है ये गाना, पर इसकी हकीकत में जाने लगेंगे तो, बंगले से, पहले तो, एक प्रोपर्टी डीलर हो, जो इस प्यारे बंगले का मोल भाव करा सके। ये बड़ा पुराना हसीन ख्वाब है, सब देखते हैं आपकी हैसियत के हिसाब से। पर भगवान पूरा करते हैं अपने हिसाब से। और अक्सर दोनों के हिसाब-किताब में काफी फर्क आ जाता है, क्योंकि प्रोपर्टी डीलर जो बीच में होते है। बहुत दिनों से एक कहानी लिखना याद रही थी ‘अपना घर’ बनाने पर। जिसमें मिसेज गुप्ता की पुरानी चाह है कि किसी तरह वो अपने पांच सौ गज वाले प्लॉट में बढिय़ा कोठी बना सकें। वहीं बिहार से आई सुगवा अपने मजदूर पति के साथ छत की तलाश में है। जिस दिन मिसेज गुप्ता के मकान की नींव पड़ी, सुगवा और उसके पति को मजदूरी मिल गई।
फिर सबसे पहले एक कच्चा ईंटों का कमरा बना, वो सुगवा और मुरली को दे दिया गया, ताकि सामान की रखवाली भी हो सके और साथ ही मजूदरी भी सुनिश्चित रहे और यूं सुगवा की तो भगवान ने सुन ली, उसे छत मिल गई। धीरे-धीरे नींव भरी, ईंटों का ढांचा उठना शुरू हुआ, मिसेज गुप्ता दिन-दिन भर खड़ी रह कर मकान का काम देखतीं। चौखाटे लग चुकी थी, फिर लेंटर पड़ा, लडडू बंटे, इधर सुगवा की भी गोद हरी होने की खुशी मिली। मिसेज गुप्ता देख-देख कर खुश होती कि मकान रूप लेने लगा है। एक ही बेटा था मिसेज गुप्ता का, दिल्ली में इंजीनियरिंग कर रहा था।
फाइनल ईयर था और प्लेसमेंट हो चुकी थी। गुप्ता जी चाहते थे कि डिग्री करके उनके कारोबार में हाथ बंटाये। मकान का नीचे का ढांचा तो तैयार था, पर मिसेज गुप्ता ने जिद की दो मंजि़ला बनाने की। एक साल के लगभग हो गया मकान बनते। बेटे ने नौकरी ज्वाइन कर ली थी बेंगलुरु में। बिजली, पानी की फिटिंग हो चुकी थी, पर लकड़ी और फर्श वालों ने जैसे घर से ना निकलने की कसम खा ली थी। दस महीने से टाइलों, ग्लास वर्क का काम चल रहा है।
अचानक बेटे ने सूचना दी की उसने साथ काम करने वाली लड़की पंसद कर ली है, शादी करना चाहता है तुरंत। तब तक सुगवा मकान में बने सर्वेंट रूम में शिफ्ट हो चुकी है। उसने इसे अपनी इच्छा से संवार लिया है, गणेश लक्ष्मी के बड़े पोस्टरों के साथ ही ऐश्वर्य और सलमान का फोटो भी चिपका दिया है, वो अभिषेक के बारे में जानती ही नहीं। मकान का काम बीच में रोककर शादी की रस्में शुरू हो गईं। महीने भर में बेटा बहु वापिस चले गये, मकान फिर शुरू हो गया। शुरू में खुला खर्च हो गया, अब पेंट के टाइम हाथ थोड़ा टाइट हो रहा है।
सुगवा को जुड़वां बच्चे हुए हैं। उसने दो पालने रख लिए है, अपने कमरे में वो खुश है। बच्चों को नहला-धुला खुले संगमरमर के आंगन मे सुला देती है। घर लगभग पूरा हो चुका है, मिसेज गुप्ता का सपना भी। उन्होंने सजाने के चीजों की खरीदारी शुरू कर दी है। पर बेटे ने संदेश भिजवा दिया कि पत्नी बीमार है और पास आ जाओ। एक महीना बेंगलुरु रह कर आई है, मकान पूरी तरह तैयार है। सुगवा को उसने नौकरानी रख लिया है। बहु फिर बीमार है फिर जाना होगा।
यूं बार-बार जाने से चार महीने निकल गए। गुप्ता जी पीछे परेशान होते हैं। निर्णय हुआ कि वहीं बेंगलुरु जाकर ही रहेंगे। दोनों बच्चों के पास। मकान को किराये पर दे दिया, डॉक्टर नयना ऐसा ही घर चाहती थीं रहने के लिए। मिसेज गुप्ता बेंगलुरु में है। डॉक्टर नयना, सुगवा मकान में सुखी से रह रही हैं। सुगवा कहती है मिसेज गुप्ता बड़ी अच्छी हैं। मिसेज गुप्ता को अब भी सपना आता है अपने घर में रहने का। मेरा ये स्टोरी लिखने का साइनोपसीस पूरा हुआ।
-डॉ. पूनम परिणिता

स्त्री पत्र

सीमा बिस्वास द्वारा अभिनीत, एक उम्दा प्रस्तुति रही, स्त्री पत्र। टैगोर द्वारा लिखित यह नाटक स्त्री के अस्तित्व और उसकी भूमिका पर कई प्रश्न चिन्ह लगाता है। यूं प्रश्न चिन्ह तो लगे हैं, पर स्त्री की भूमिका तय कौन कर रहा है? मर्द या खुद स्त्री। फिर अगर स्त्री खुद ही तय कर रही है, तो शिकायत क्यूं? शायद कभी, जब आदिम काल में, यूं घूमते-घूमते थक गए होंगे आदम और हव्वा, तो कहीं बसेरा करने की सोची होगी। पुरुष ने इकट्ठा किए होंगे घास-फूस, लकड़ी और एक छोटी पर्णकुटी बनाई होगी। तब स्त्री ने खुद ही खुशी-खुशी कहा-मैं कुछ बनाती हूं तुम्हारे लिए, थक गए होंगे ना तुम। फिर अपने हाथ से बनाया, प्यार से परोसा और मिल कर खाया। अंग्रेज़ी की एक कहावत है, मैन आर फोर हंट, वुमन आर फॉर हर्थ। यानि आदमी शिकार करेगा और स्त्री रसोई संभालेगी। पर आज भूमिका बदल रही है।
पहला सवाल तो मकसद का है कि जरूरत क्यूं पड़ी। आदमी जब घर से बाहर निकला, आमदनी के लिए, तब बच्चों को पत्नी के सुपुर्द कर के गया था, लेकिन अब जब नारी भी पुरुष के साथ बाहर निकलती है, तो बच्चों को किस के सहारे छोड़ कर गई। और अब ये जिम्मा आया, नौकर-चाकरों को दे दिया है तो संस्कारों की, मर्यादाओं की उम्मीद बच्चों से कैसे कर रही हैं। आरूषि अगर हेमचंद के हाथों पली-बढ़ी, तो ऐसे किस्से होने लाजमी हैं। जिस भूमिका का जन्म लालच से हो रहा है, थोड़े ज्यादा पैसे, थोड़ा ज्यादा ऐशो-आराम, थोड़ी ज्यादा आजादी, उसके बाद में विवाद ही जन्मेगा, सौहार्द की उम्मीद कम ही है। फिर हर बात को लेकर पुरुषों को निशाना बनाना तो बिल्कुल अजीब है। कहीं जरूरत तो खुद में झांकने की भी है।
ये महत्वाकांक्षाओं के भंवर में डूबी भंवरी, ये उडऩे को बेकरार फ़िजा, ये आसमां में उड़ती गीत गाती गीतिका। ये जब, खुद को, जिस्म को, स्त्री को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ती हैं, जब खुद को वस्तु बना देती हैं, तब क्यूं तनिक नहीं सोचती कि हर वस्तु की एक एक्सपायरी डेट भी होती है। स्त्रियों में एक इन्सटिंक्ट जन्म से होती है, खतरे को भांपने की, अपने शरीर पर हुई हर छुअन के पीछे का भाव समझने की। उसे भाव को अनदेखा करना या फिर उसका इस्तेमाल करना, उसकी पहली और आखिरी गलती होती है। उसके बाद सब नरक है, भले ही वो एकबारगी स्वर्ग जैसा दिखता हो। मेरा मकसद इन कांडों से पुरुषों को पाक साफ निकालना कतई नहीं है, पर थोड़ा ध्यान तो हमें अपनी बच्चियों पर देना ही होगा। बेटियां आजकल आधुनिक कपड़े पहन रही हैं। जींस पहन रही हैं, अच्छी लग रही हैं।
अच्छा है, पर एक बार जब वो बाहर जा रही है,किसी के पीछे स्कूटर पर बैठ रही है,तो मां होने के नाते पीछे से देखे जरूर कि छोटे टॉप और लो वेस्ट जींस के बीच की जगह,यूं सबके देखने के लिए चीज नहीं है। उसे प्यार से समझाएं जरूर कि बेटी, हर एक फ्रेंड जरूरी नहीं होता। मां-बाबा से आजादी के नाम पर लिए स्कूटर, मोबाइल और पैसों का उपयोग कम से कम उन्हीं को धोखे में रखने के लिए ना करें। बिल्कुल ये ही सब बातें बेटों पर भी उतनी ही शिद्दत से लागू हैं। पर शालीनता की अपेक्षा बेटियों से ज्यादा है। बेशक सदन में बैठकर फिल्म देखने वाले मंत्री बड़े गुनाहगार हैं, पर इससे यूं फिल्म बनकर उपलब्ध उस स्त्री का अपराध क्या कम हो सकता है। अपने चरित्र की रक्षा की पहली जिम्मेदारी तो हमारी खुद की है।
ये मेरी सोच है कि आजकल यूं नौकरी के पीछे भागती इस फेयर जेंडर में वो बेहतर है जो नौकरी के काबिल तो है, पर अपने बच्चों को संस्कार,प्यार और घर को एक प्यारे से घर जैसा माहौल देने के लिए घर पर ही है। वो जो ये जानती है कि थोड़े से ज्यादा पैसों से वो ये सब चीजें कभी नहीं खरीद पाएगी। ये भी कुछ-कुछ स्त्री पत्र ही हो गया। चलिए पुरुषों की बात फिर कभी करेंगे। जरूरत तो उन्हें भी रहती है कि कोई पुरुष पत्र भी लिखे।
-डॉ.पूनम परिणिता

तुझसे नाराज नहीं ज़िंदगी...

अच्छा गाना है, पर मायनों में जाते हैं तो जरूर उलझ जाते हैं। तुझ से नाराज नहीं ज़िंदगी हैरान हूं मैं। गोया कि गीतकार बी पॉजीटिव भले ही ना हो पाया,पर न्यूट्रल जरूर हो गया। बस इतना ही भला, ज़िंदगी से नाराज होने की बजाय हैरान हो जाइए। यूं बाकी घर दफ्तर, बाजार, सब कुछ है आपको हैरान-परेशान करने को। पर सबसे ज्यादा हैरान आप रिश्तों को लेकर हो सकते हैं।
कल एक पुरानी दोस्त का फोन आया था। तमाम सफरों से होते हुए बातें रिश्तों पर टिकी और फिर बातें रिश्तों से आंसुओं पर। कॉलेज टाइम में वह मेरी ऐसी देर रात डिस्कशन वाली सहेली नहीं थी पर जाने कौन-सी दुखती रग कब टच हो गई कि उसका सैलाब बह गया। मुझे रोते हुओं को चुप कराना नहीं आता। किसी के आंसुओं और दुख से मैं बस असहज हो जाती हूं। ये कह कर रिश्तों से नहीं छूटा जा सकता कि अब इनमें वह बात नहीं रही।
तमाम अनुभव, सारी खटास मिठास अपने स्वादानुसार पहले भी बकायदगी से मौजूद रही है, वह जब घर का कोई बड़ा भाई नौकरी करने शहर जाता है, फिर बाकी भाइयों को पढ़ाने की जिम्मेदारी उठाता, दो-तीन बहनों की शादी करता, भाइयों की नौकरी लगवाता, तब कहीं जाकर अपने बच्चे संभालने का वक्त आता और तभी कहीं वही भाई-बहन कहीं जाने-अनजाने उसे उसकी हैसियत बता देते।
बड़ा मुश्किल होता है तब खुद को संभालना, एकदम तो विश्वास ही नहीं होता कि छोटा ये कह सकता है कि मैं भी अफसर बन सकता था अगर टाइम पर मेरी सहायता कर दी होती कि छुटकी भी इतने सालों बाद ये उलाहना दे सकती है कि उसकी शादी में गहने कहां पर्याप्त थे। और वही वक्त होता जब पत्नी-बच्चे भी थोड़ी धीमी आवाज में कह देते कि पापा इन भाई-बहनों के चक्कर में आपने हम पर कभी पूरा ध्यान नहीं दिया।
तब उस जमाने में भी ढूंढ़ा जाता था रिश्तों की उलझन में से आखिरी सिरा। बात शायद आज भी वही है, वहीं है। बस थोड़ा दिखावा और बढ़ा है। आंसू तब भी या तो अकेले में, किसी के कंधे पर या फिर थोड़े दिखते, थोड़े छिपाते ही बहाये जाते थे। पता नहीं आंसुओं की फितरत ही ऐसी है, लाख छुपाए पर आखिरी आंसू तक उसकी बाट देखता है जिसके लिए बहाए जा रहे हैं या जिसकी वजह से बहाए गए।
यूं आजकल नए रिश्तों में खुलापन ज्यादा है, पर हम स्पेस की पूरी व्याख्या कहां कर पाते हैं? बस यही स्पेस कब दरार बन जाता है ये नहीं पता लगता। निबाहे जाना, एक और मजबूरी है, तिस पर मुस्कुराहट के साथ निबाहना, अंदर दर्द को इकट्ठा करता रहता है। वो फिर यूं ही किसी दिन किसी के सामने निकलता है।
बस रिश्तों को तो यूं ही देखते रहे ऊपर से, वैसे साफ सफेद कपड़े पर रेशमी धागों की कशीदाकारी, देखे और खुश रहें, कहीं पलट कर पीछे देख लिया तो उलझे मिलेंगे रेशमी धागे। कहीं-कहीं गांठ भी लाजमी है। दो बार, चार बार यूं ही उलट-पलट देखिए, कभी कशीदाकारी को, कभी उलझनों को और फिर लंबी सांस लीजिए। अब धीरे-धीरे गुनगुनाइए... हैरान हूं मैं, हो...हैरान हूं मैं।
-डॉ.पूनम परिणिता

बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया...

आज एक बार फिर इंडोनेशिया याद आया है, पर संदर्भ अच्छा नहीं है। जब मैं वहां गई थी, तो चार युवा साथियों का एक समूह हमें लेने आए। बच्चे कहूंगी उन्हें, क्योंकि 17-20 वर्ष की उम्र के होंगे वे सब। हमें देख कर वे इतने खुश हुए और इतनी आत्मीयता से मिले कि क्षण को भी ये नहीं लगा कि कहीं दूर देश में आए हैं। हमारा सामान उठाए, हमें यूनिवर्सिटी कैंपस में फैकल्टी हाउस में रूम में पहुंचाया। हमारे लिए खाने के अलावा, कुछ बढिय़ा खाने की चीजें भी वे लेकर आए थे। कितना सोचा होगा पहले से हमारे बारे में। हमारे टेस्ट के बारे में, हमारे कंफर्ट के बारे में, फिर सारे इंतजाम किए। उन्हीं में एक था बीमो, पूरे नाम का मतलब उसने बताया कि राजसी होता है। ओलिबीया, चित्रा और सोम्या । इन नामों के हिज्जे भले ही अंग्रेजिय़त दिखाते हों, पर असलियत में ये हिंदुस्तानी नाम हैं, अपने सही अर्थों के साथ। इंडोनेशिया में भारतीयों को बड़े ही प्यार से ट्रीट किया जाता है। वहां रामायण, महाभारत, भारतीय नृत्यों को बड़ी इज्जत से देखा जाता है। मतलब ये कि जब तक हम वहां रहे, सब बच्चों ने, फैकल्टी ने, यहां तक कि आम लोगों ने यादगार लम्हे हमें दिए। वहीं बीमों, ओलीबिया, सोम्या ने कहा कि भारत आना उनके लिए एक हसीन सपने जैसा है, वे चाहते हैं कि किसी भी तरह ये सपना पूरा हो जाए।
मैं सोच रही थी कि सपनों का पूरा ना होना अगर पैसों की कमी के चलते हो तो कितना दुखद है। तभी कहीं विचार आया था कि कोई फंड बनाया जाए जो इन लोगों की इंडिया में आने में मदद करे। उनमें से सोम्या के कोई दादा परिवार के लोग केरल से संबंधित हैं और सोम्या के पापा, जकार्ता के पास किसी जगह पर एक भारतीय रेस्तरां चलाते हैं। और अगले दिन वह खुद हमारे लिए दक्षिण भारतीय मजेदार भोजन बना कर लाए थे। वे जिस अंदाज में हमें मै-दा-म बोल रहे थे, अच्छा लगा था। उन्होंने ही बताया कि वे सोम्या को आगे की पढ़ाई के लिए भारत भेजना चाहते हैं। और उसकी शादी भी वहीं करना चाहते हैं। जब-जब भारत की तारीफ होती, हमें अच्छा लगता। मन पता नहीं कब बड़े गर्व से भर जाता। एक फंक्शन में सोम्या ने हमारे साथ साड़ी पहनी, वह बड़ी अच्छी लग रही थी। उसका रंग गहरा है, आंखें बड़ी-बड़ी हैं, बाल घुंघराले। वह खालिस दक्षिण भारतीय सुंदरता है। मैं जब से इंडोनेशिया से आई, कुछ ऐसी व्यस्त रही कि उन दोस्तों से ज्यादा संपर्क नहीं रख सकी। पर एक जुलाई को मैसेज मिला कि सोम्या को दिल्ली युनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है और वह चार जुलाई को दिल्ली पहुंच रही है। फिर पता लगा कि उसे एडजस्ट करने में मुश्किल हो रही है, लेकिन कल जो पता लगा वह शर्मनाक था कि वह एक शाम ईव टीजिंग का शिकार हुई।
बेहद दुख हुआ है। एक निजी शर्म की बात लग रही है। जीवन में सपना देखना, उसे पूरा होते देखना फिर उसका दु:स्वप्न में बदल जाना देखते-देखते, कितना बुरा लगा होगा उसे। इंडोनेशिया की बसों, ट्रेनों में, इतना अच्छा माहौल देखा था मैंने और बेहद एप्रीशिएट भी किया था। किसी को किसी से अनावश्यक मतलब नहीं। मदद के लिए बेशक हाजिर हैं पर किसी की बदनजऱ मुझे नहीं आई। और हमारे यहां आए लोगों से ऐसा व्यवहार, क्या किया जाए। कैसे किया जाए। शुरू कहां से करें। बहुत सारे सवाल हैं। जवाब कहीं नहीं, कोई नहीं है। सिवाय ढेरों शर्मिंदगी के। ऐसी ही एक बुरी खबर असम की टीवी पर बार-बार दिखाई जा रही है। लड़कियों के मामले में, मुझे भ्रूण हत्या, दूसरे दर्जे की समस्या लगती है। पहली ये है कि जो लड़कियां हमारे पास हैं, साथ हैं, उन्हें सुरक्षित माहौल दिया जाए। एक जीने लायक जीवन, फिर इन्हें भ्रूण हत्या के मायने समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, वरना कौन जाने, भ्रूण हत्या समस्या ना हो कर समाधान लगने लगे।
डॉ. पूनम परिणिता

चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए...

इक चैन ही ना मयस्सर मेरे दिल को कभी,
यूं बहलाने के, फुसलाने के तरीके बहुत हैं।
पिछला पूरा हफ्ता सुपर स्टार के शोक से गमज़दा रहा, लबो-लुवाब ये रहा कि बाज़ार में आनंद फिल्म की सीडी कहीं नहीं मिल पाई। बीमार तो राजेश खन्ना काफी अरसे से थे, पर ये उम्मीद नहीं थी कि यूं चले जाएंगे और अवाम को इस कदर रुला जाएंगे। पर साबित कर गए कि जिए तो सुपर स्टार की तरह, दुनिया को अलविदा कहा तो सुपर स्टार की माफिक।
पर एक बात मुझे साल रही है वह है सभी का ‘पोसथोमस बिहेवियर’ यानि फैंस ने, फैमिली ने, अमिताभ बच्चन ने जो किया, इसका आधा भी कहीं राजेश खन्ना के रहते किया होता तो शायद कुछ पल सुकून लम्हे उस ज़िंदगी को लंबा ना सही बड़ा तो जरूर कर जाते। पर ज़िंदगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ में है जहांपनाह! रामायण में भी जब रावण को आखिरी तीर लगता है और वह बस मरने को ही हैं, तब श्री राम, लक्ष्मण से कहते हैं कि रावण बड़े ही ज्ञानी, वेदों के ज्ञाता हैं, तुम इनसे ज्ञान प्राप्त करो और लक्ष्मण रावण के पैरों के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर विनती करते हैं तो रावण उन्हें ज्ञान देते हैं। पर यही निवेदन कहीं राम के कहने पर लक्ष्मण विनम्रता से रावण के चरणों में बैठ कर उसके जीते जी कर पाते तो लंका कांड कदाचित बदल सकता था।
बस यूं ही, राजेश खन्ना के जीते जी गर उन्हें जरा भी आभास हो जाता कि लोग अब भी उन्हें उतना ही चाहते हैं, उन्हें सुपरस्टार मानते हैं, उन पर मरते हैं, तो शायद थोड़ा चैन से मरते हमारे सुपर स्टार। फैमिली उन्हें थोड़ा और जल्दी संभाल लेती। डिम्पल कपाडिय़ा उनके हाथ को थोड़े ज्यादा महीनों पहले पकड़ लेती तो शायद ज्यादा देर तक पकड़े रख सकती थीं। अमिताभ कभी प्यार से थोड़ा झुक कर पहले उन्हें कह पाते कि सुपर स्टार सिर्फ आप ही हैं। ‘आनंद मैं तुम्हें यूं रोज-रोज मरते नहीं देख सकता’ तो शायद आनंद कभी मरते नहीं। पर ये भी बड़ा सत्य है कि हम सब ऊपर वाले के हाथ की कठपुतलियां हैं, किसका कितना रोल हैं कैसा रोल है, कब टाइम खत्म होगा, कब पैक अप होगा, सब तय है।
सांसें चल रही हैं तो, कितना करोड़ सांसें ले ली, कोई गिनती नहीं, पर नहीं है तो फिर एक भी नहीं। प्यार हमारे भीतर है, अथाह है, पर दिखने-दिखाने के लिए बड़ी हिम्मत मांगता है, कभी-कभी तो सिर्फ तभी दिखा पाते हैं, जबकि उसे दिख भी नहीं रहा जिसे दिखाया जा रहा है और नफरत इतनी भीतर छुपा कर रखते हैं पर जाने कब आंखों में दिखाई दे जाती है। हरकतों में बयां हो जाती है।
बहरहाल, एक दुआ है हमारे सुपर स्टार की चिर शांति के लिए। नफरत की दुनियां को छोड़ कर प्यार की दुनिया में
खुश रहना...।
-डॉ. पूनम परिणिता

दो जिस्म मगर एक जान हैं...

यह कहानी स्तुति और आराधना से शुरू होती है। मध्य प्रदेश के बैतुल जिले के सरकारी अस्पताल में जब एक मजदूर महिला ने दो बच्चियों को जन्म दिया जो जन्म से एक दूसरे से जुड़ी थीं। दंपति ने उन बच्चियों को घर ले जाने और उनका लालन-पालन में असमर्थतता जताते हुए उन्हें अस्पताल में ही छोड़ दिया। उस सरकारी अस्पताल में जो खुद मुश्किल से जी पाता है। पर अस्पताल ने, स्टाफ ने, उन प्यारी बेटियों नो न सिर्फ पाला बल्नि डॉ. राजीव चौधरी ने उन्हें अलग कर उनकी खुद नी पहचान दी। दुनिया भर के लोग भले ही पानी पी-पी कर सरकारी अस्पतालों को, सरकारी डॉक्टरों को कोसें पर सिर्फ स्तुति और आराधना हमेशा-हमेशा इन्हें याद रखेंगी। एक स्व के लिए, एक अपनी अनुभूति के हमेशा आभारी रहेंगी।
सत्यमेव जयते ने भले ही डॉक्टरों की, डॉक्टरी पेशे की जो भी तस्वीर पेश की है पर मैं जिन डॉक्टरों को निजी तौर पर जानती हूं, उनमें से एक तो बेहद ही भले मानुष हैं और बाकी भी भले हैं, हां मानुष भी हैं ही। बहुत सी लेडी डॉक्टर्स भी मेरे संपर्क में हैं उनमें से कुछ तो अपने पेशे से इतर समाजसेवा में या व्यक्तिगत तौर पर इतनी मजबूत हैं कि उनकी ज़िंदगी अपने आप एक मिसाल है। दरअसल पहले तो इतनी सारी पढ़ाई ही ज़िंदगी का एक अहम और सुहावना पहलू निगल लेती है, तिस पर गांव की कुछ पहली पोस्टिंग्स। अपने लिए जीने की फु़र्स़त थोड़ी देर से ही मिल पाती है, लगभग तब जब बच्चे बोलने लायक हो जाते हैं। तभी बच्चों के पढ़ाई के बारे में सोचते ही शहर की पोस्टिंग के बारे में सोचा जाता है लेकिन यहां भी मरीज, बीमारियां, नाइट शिफ्ट, एमरजेंसी कॉल, पेंशन ड्यूटी, ब्लट डोनेशन कैंप, वीआईपी ड्यूटी, फिर घर परिवार आम जीवन की टेंशन ने साथ-साथ आमिर खान और कीर्तन भजन मंडली को भी झेलना होता है।
प्राइवेट, डॉक्टरों से मेरा ज्यादा वास्ता नहीं पड़ा। सो कह नहीं सकती। हां, खुद बीमार पडऩे पर जरूर बिल्कुल आम आदमियों की तरह ही सारे टेस्ट और हाई फीस संकटों से गुजरती हूं। कई बार नोट किया है कि प्रोफेशनल भाईचारा प्राइवेट फीस के आड़े कम ही आता है। इस बीच मैं उनका भी जिक्र करना चाहूंगी जो सरकारी अस्पताल में कार्यरत थे, बेहद काबिल डॉक्टर। बड़े ध्यान से मरीज की बात सुनते, बड़ी कैफियत से दवाई लिखते, मरीजों को आराम होता। बिना बात एक बार उनका ट्रांसफर मेवात़ कर दिया गया। शरीफ डॉक्टर थे, बदली रुकवा नहीं पाए, नौकरी छोड़ दी। प्राइवेट अस्पतालों के साथ काम करने लगे।
काबिल थे, काबिलियत पैसा बरसाने लगी फिर छोटा सा अपना अस्पताल खोल लिया। वह अब तक भी शरीफ ही थे। पर पिछले कुछ समय से देखा है कि उस छोटे से अस्पताल ने शहर में बड़े मौके की जगह पर एक बहुत बड़े अस्पताल का रूप अख्तियार कर लिया है। फिर उसमें बड़ी-बड़ी मशीने लगेंगी, दवाइयों की दुनाने, टेस्ट लैब। अस्पताल की मंजि़लें जैसे-जैसे बढ़ती जा रहीं हैं, मुझे डर सा लगता जा रहा है। वह डॉक्टर कब तक शरीफ बने रहेंगे? आखिर लोन तो उतारना ही पड़ेगा, फिर क्या होगा? आखिर इस सब में भुगतेगा कौन? पर बात तो यह भी है कि शुरुआत किसने की।
पिछले दिनों डॉक्टरों नो सुधारने के लिए काफी अभियान चले हैं। पता नहीं क्या किसी ने सिविल अस्पताल में खंडहर बन चुके डॉक्टरों के रिहायशी आवासों को ठीक करने के बारे में लिखा है। ये एक अहम कदम हो सकता है। परिसर में रहने से डॉक्टर मरीजों के करीब रहते हैं। बहरहाल, बस एक बात अब तक जरूर जान पाई हूं कि डॉक्टर मरीज को मारते नहीं हैं। हां, जान बचाने के हजारों केस रोज सामने आते हैं। पैसे की एक अलग दुनिया है उसके सामने सब नतमस्तक हैं। जीवन भी, मौत भी।
-डॉ.पूनम परिणिता

तुम जो मिल गए हो...

...श... कृपया शांति बनाए रखें। भगवान मिल गए हैं हालांकि हम तो बहुत पहले में ही कह रहे थे कि ‘कण-कण में भगवान हैं।’ एक फिल्म भी बनाई थी, इस टाइटल पर किंतु यूरोप ने अब तक साबित कर देने की मोहर लगा दी और यूरोप की कही बात में सबको वजऩ नजर आता है।
पर एक अजीब बात हुई, कुछ फर्क नहीं पड़ा, कल जब भगवान नहीं मिले थे और आज जब मिल गए हैं। अगर यही कण कहीं भारत में मिला होता तो अब तक लाखों टन दूध चढ़ा दिया होता, लार्जर हाड्रोन कोलाइडर पर करोड़ों फूल बरसा दिए होते और छप्पन भोग लगा दिए होते तरह-तरह के आभूषण कपड़े और इतने रुपए पैसे चढ़ावे में बरसा दिए होते कि इस मशीन को बनाने की लागत निकल आती। अब वह लाख कहते रहें कि भगवान नहीं हैं, बस एक कण मिला है जो बाकी कणों को द्रव्यमान देता है। इससे सृष्टि की रचना कैसे हुई जानने में मदद मिलेगी। पर वे क्या जाने, सृष्टि मतलब दुनिया और रचने वाले हमारे श्री भगवान।
आज भले ही इन कणों को इलेक्ट्रोन प्रोटोन, न्यूट्रोन हिब्स बोसोन कह लें, कल फिर इन्हें फिर इन्हें पता चलेगा कि ये दरअसल ब्रह्मा विष्णु महेश ही थे। और ये थ्योरी भी कोई नई नहीं है कि इस कण से ही सबको द्रव्यमान मिलता है। अब पिछले दिनों की चर्चा में रहे बाबा को ही देखें सीमेंट का ठेका लेते थे, वह बात नहीं बनी, ईश्वर की कृपा आनी शुरू हुई इतना द्रव्यमान मिला, आज अरबों के मालिक हैं। किसी एक बाबा भक्त का नाम लें जो भी इस ईश्वरीय कण से जुड़ा है द्रव्यमान इतना बढ़ गया कि संभालने के लिए संस्थाएं बनानी पड़ती हैं।
दरअसल, मुझे भी बड़ी प्रतीक्षा थी भगवान को जानने की, मिलने की, अच्छा हुआ मेरे रहते ही खोज लिए गए। नहीं, अनपढ़ों वाली बात नहीं कर रहा हूं। अच्छा लगता है, साइंस को भगवान से जोड़ कर देखना, भगवान को साइंटिफिकली प्रूव होते देखना। सब पता चल जाए। कृष्ण जी के महारास का रहस्य, सीता माता के पृथ्वी में समा जाने का राज़, रावण के दस सिर, मां दुर्गा के आठ हाथ। विष्णु का सुदर्शन चक्र, कुरान के खुदा की ताकत, बाइबिल के क्राइस्ट की असली वेदना, यीशु के जन्म के समय की आलौकिकता। सब, सब जान जाएं और फिर जी भर ने हंसे इन धूप अगरबत्तियों, चढ़ावे, प्रसाद, मंदिरों पर कि बेकार ही इतने पैसे वेस्ट किए सब चीजों पर वापिस मांग ले नामदान, ये दान, वो दान के नाम पर दिए अपने सारे पैसे। शायद वैश्विक मंदी से भी निजात मिल जाए।
अरे रुको, रुको, अभी कुछ साबित नहीं हुआ है, जो कुछ मिला है निहायत ही फिजिक्स है। अपने भगवान से इसका कुछ लेना-देना नहीं है। ये कुछ ऐसा है जैसे पीटर हिग्स ने वो कण देखते ही कहा हो, ओह! माई गॉड मिल गया। जहां तक अपने भगवान की बात है, वे माशा अल्लाह हैं और खुदा कसम यूं ही अपने शानो-शौकत से बने रहेंगे और भगवान करें बने भी रहें क्योंकि भगवान आप हैं तो हम हैं, हम हैं तो आप हैं...
-डॉ.पूनम परिणिता

एक गिलहरी, अनेक गिलहरियां...

पिछले कुछ दिनों से दोस्तों की फे़हरिस्त में एक नया नाम जुड़ा है। वो टम्मो है, क्योंकि मुझे उसका असली नाम नहीं पता, सो ये नया नाम मैंने उसे दे दिया है। वो एक गिलहरी है, जो रोज मेरे कमरे के एसी के ऊपर उठी हुई खिड़की पर आती है। मैंने उसे एक दिन यूं ही देख लिया, वो उस लेटी हुई खिड़की पर उछल-कूद कर रही थी और बाकायदा चिटर-चिटर की आवाज़ें निकाल रही थी। मैंने अनायास ही इसे स्नेह भरा निमंत्रण समझ लिया। अपने परांठे में से आधा, छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर उसके लिए रख दिया।
मैंने देखा, मेरे वहां से हटते ही वो खाने पहुंच गई। एक टुकड़ा उठाया, अपने अगले दोनों पैरों से पकड़ा और लगी स्पीड से कुतरने। उसे ऐसा करते देख मैंने खिड़की से उसकी वीडियो भी बना ली। इस बीच पीली आंखों वाली काली चिडिय़ा भी आ गई। ये मेरा अपना अनुभव कहता है कि जब भी आप चिडिय़ों को दाना, खाना, पानी डालना शुरू करते हैं, तो सबसे पहले ये पीली आंखों और चोंच वाली बड़ी सी काली चिडिय़ा जिसे आम भाषा में ‘काबर’ भी कहते हैं, आती है। साथ-साथ वो अपनी पुरानी छोटी वाली भूरी घरेलू चिडिय़ा आ जाती है। इस क्रम को लगातार कई दिनों तक चलता रहने दें, फिर घुग्गी आना शुरू होती है। इसके बाद कबूतर और अगर आपके डाले हुए दानों पर तोते आने शुरू हो जाएं तो समझिए आप पंछी फ्रेंडली हो गए हैं। लेकिन इनमें से भूरी चिडिय़ा और कबूतर जहां दोस्ती के स्तर तक आ जाते हैं, काली चिडिय़ा और तोते सिर्फ खाने से मतलब रखते हैं। वो दोस्ती तो अलबता करते नहीं, करते हैं तो निभाते नहीं।
खैर, बात टिम्मो गिलहरी की हो रही थी। दोपहर को मैंने उसके लिए लंच में से कुछ चावल निकालकर डाल दिए। एक-दो दिन में उसे मेरा खाने का रूटीन पता चल गया। मैंने देखा कि वो मेरे खाने के समय से कुछ पहले आती, चिटर-चिटर की आवाज़ करती, फिर चली जाती और जैसे ही खाना डाला जाता, वो फिर खाने आ जाती। तीसरे दिन मैंने देखा एक छोटी गिलहरी और आई उसके साथ। ‘छुटकी’ यही नाम रखा होगा टम्मो ने अपनी छोटी गिलहरी का और ना भी रखा हो तो मैंने रख दिया। टम्मो, छुटकी को समझा रही थी कि अभी तू छोटी है, इधर-उधर ज्यादा मत भागा कर। दो वक्त यहीं मेरे साथ आकर खा लिया कर। छुटकी उसकी बात कम सुन रही थी, चावल में से जीरा हटाकर चावलों का मज़ा ज्यादा ले रही थी। मैं चुपचाप छिप कर उन्हें देखती रहती हूं। वो मुझसे अभी उतना खुली नहीं हैं। ये तो जानती हैं कि खाना मैं रखती हूं, पर सामने आते ही भाग जाती हैं। पर छुटकी जल्दी ही वापिस आकर फिर खाने लगती है। टम्मो मां है, ज्यादा डरती है।
पता है, कल क्या कह रही थी छुटकी गिलहरी से। देख छुटकी, तू रोज यहीं से खा-खाकर मोटी होती जा रही है। बस खाती है और जाकर सो जाती है। और ये चावल, परांठा जैसे जंक फूड से तुझे सौ तरह की बीमारियां लग जाएंगी। कितनी बार कहा है, पास वाले पेड़ से जामुन खा लिया कर। फ्रेश फ्रूट खाएगी तो हेल्दी रहेगी। हां, उसकी गुठली मेरे लिए ला दिया कर, शुगर में आराम रहेगा। बेटी ये नए जमाने वाले लोग हैं। पता नहीं कब ये दाना-पानी रखना छोड़ दें। मेहनत करना सीख बेटी, खुद अपना खाना ढूंढना और मनचाहा खाना शुरू कर।
मम्मा आप बेकार में टेंशन मत लिया करो। जब तक मिल रहा है, ऐश से खाओ, ट्रस्ट मी। नहीं मिलेगा तो मेहनत भी करके दिखा दूंगी। वैसे मुझे ये आंटी के डाले आलू के परांठे बड़े पसंद हैं। कोई इन्हें ये और समझा दे कि छोड़ी चिल्ली-सॉस भी छिड़क दिया करें इन टुकड़ों पर। आज मैंने जब सॉस वाले टुकड़े डाले हैं तो छुटकी खुश है, टम्मो नाराज़ है कि मैं उसकी बेटी की डाइट हैबिट अपने जैसी बना रही हूं।
-डॉ. पूनम परिणिता

ये वादियां, ये फ़िज़ाएं...

सुबह उठी तो उठने का मन नहीं था। हल्का सा परदा हटाकर बाहर देखा, दूर-दूर तक सूरज का कहीं नामो-निशान नहीं था। गहरी सर्द धुंध छाई थी, पेड़-पौधे, हवा, पंछी सब मेरी ही तरह बस अंदर से ही झांक रहे थे। उठे कि नहीं, बाहर निकले या फिर, फिर से बिस्तर में अलसाएं। तो भी दुनिया है, दफ्तर है, उठना तो होगा, सो उठे। वहीं सब रोज का रुटीन, दिन में दस बजे के पास, फोन आया, ‘शिमला जाने का प्रोग्राम बन रहा है, चलें क्या?’ अब कहीं घूमने जाने को हर वक्त मचलता मन, भला क्यूं मना करने लगा। हां पहले कह दिया, सोचने का काम मैं बाद में करती हूं। शिमला पहले भी जा चुकी हूं। पहाड़ों की सोहबत तो मुझे पसंद है, पर आप दूर की सोचने लगेंगे तो चक्कर आ जाएंगे।
खैर, अगले दिन सुबह पांच बजे गाड़ी आ गई। तीन जन हम और एक और डॉक्टर दंपति तथा उनके दो प्यारे बच्चे। चल दिए। बस पहाड़ ही नहीं हैं हमारे हिसार में, वैसे सर्दी के मामले में किसी हिल स्टेशन से कम नहीं है। आज भी उतनी ही सर्दी है, पर बच्चों को ढकते-संभालते, अपनी सर्दी का पता नहीं चलता। सफर में जाते हुए एक आदमी ऐसा ज़रूर होना चाहिए जो हर वक्त बोलता रहे या फिर एक से कम एक गानों की ऐसी सीडी हो जो चुपचाप सुनी जा सके देर तक।
अभी हमें चले आधा घंटा ही हुआ था कि एक फोन बजा। पता चला कि डॉक्टर मैडम की कॉल है। सीजेरियन करना है, बरवाला में। दरअसल, हमारे, उनके, हां करने या मना करने का सवाल ही नहीं होता। सब कुछ उपर वाले के नाम से फिक्सड है। अब शिमला जाने को निकले डॉक्टर, पर कोई है जो अभी इस दुनिया में भी नहीं है, पर आपका इंतज़ार कर रहा है कि अपने औजारों के साथ आइए, मुझे बाहर निकालिए और इस दुनिया में लाइए। और फिर अपना शिमला जाइए या फिर कुल्लु-मनाली। सो नियत स्थान, नियत समय गाड़ी रुकी, डॉक्टर साहिबा ने सीजेरियन किया, एक बच्ची रोते-रोते इस जहां में आई, उसकी मां दर्द में भी मुस्कराई और हमारी गाड़ी फिर आगे बढ़ चली, शिमला की तरफ।
इस बार पहले से खबर लेकर चले थे कि बर्फ पड़ रही है और प्रायोजन भी यही था कि गिरती बर्फ देखनी है। वरना पड़ी हुई बर्फ और सर्दी तो पहले भी देख चुके हैं। तय ये हुआ कि हम तीनों रास्ते में शानदार कॉंटीनेंटल में रुकेंगे और डॉक्टर दंपति बच्चों के साथ शिमला जाएंगे और अगर बर्फ गिर रही होगी तो हम भी अगले दिन शिमला जा जाएंगे। अगले दिन सुबह फोन आया कि थोड़ी बर्फ तो गिर ही रही है, आ जाओ। सो, पहुंच गए शिमला, पर बर्फ तो नहीं दिखी। हां, होटल के मैनेजर ने बाहर की तरफ देखकर बताया कि गिर सकती है शायद आधे घंटे तक। पर कोई कह रहा था कि बर्फ देखनी है तो कुफरी जाओ।
अब बर्फ तो देखनी थी, कुफरी की तरफ चल दिए। सिर्फ दस मिनट ही चले होंगे, बस वो नजारा दिखा कि वहीं थम गए। अद्भुत। आकाश से यूं गिर रही थी बर्फ कि जैसे...नहीं मिल रहे हैं शब्द, सिर्फ अनुभव किया जा सकता है उन क्षणों को। किसी के बताए पता नहीं चलेगा। खुद हाथ उठाकर उन सफेद मासूम फाहों को छूकर पता चलता है कि भगवान के पास, इस कड़कती धूप, धूल भरी आंधियों के अलावा भी है तो बहुत कुछ, पर दिखाता कब है, किसे कहां? ये उसे ही पता है। बहरहाल, ऐसे मौसम में बर्फ के बारे में लिखने का मकसद बस इतना ही था गर्मी में भी सर्दी का एहसास। बस यूं ही बने रहिए हमारे साथ। हैप्पी गर्मी।
-डॉ. पूनम परिणिता

नहीं, मैं नहीं देख सकता तुझे...

आम बोलचाल की भाषा में एक कहावत सुनी थी कि ‘और लड़कियां क्या रात को उठ·र खाती हैं।’ जब कभी किसी लड़की के उत्पीडऩ की बात चलती है, तो यह बात अक्सर कही जाती है। तब मुझे इसका मतलब समझ नहीं आता था। पर अब आरूषि के बारे में अक्सर सोचती हूं। तलवार दंपति के बारे में सोच कर परेशान हो जाती हूं। डॉक्टर लोग और लोगों की अपेक्षा थोड़ा लेट शादी करते हैं, अपनी शिक्षा पूरी करने के चलते। तो बड़ी उम्र में शादी हुई होगी और फिर प्यारी सी बेटी आरूषि। आरूषि की आंखें बड़ी-बड़ी, गोल, खूबसूरत थीं। चूंकि दोनों वर्किंग थे, फिर भी उसके लिए पूरा वक्त निकाला होगा। कभी मिल कर मालिश करते होंगे, कभी नहलाते होंगे।
शुरू के दो महीने तो किसी दंपति को नहीं भूलते, जब दिन और रात बराबर हो जाते हैं। रात को एक हाथों में झुलाता है, नींद आंखों में भरे उसके सोने का इंतजार करता है। फिर रातों को दूध बनाकर लाने की बारी भी आई होगी। आरूषि के बाल, पता नहीं शुरू से ही लंबे रखे थे क्या तलवार दंपति ने। बालों की दो चोटियां बनाकर आगे दोनों तरफ हेयर पिन लगाकर खुश होते होंगे। फिर पहला बर्थ डे, कितने प्लान बनते-बिगड़ते हैं, सबको बुलाकर बड़ी पार्टी रखें या फिर बस पड़ोस के सारे बच्चे बुलाकर घर में ही केक काट लें। वर्किंग लोगों के बच्चे बॉय कहना बड़ी जल्दी सीख लेते हैं। दूसरे और तीसरे बर्थ डे के बीतते ही प्ले स्कूल शुरू कर दिया होगा। घर में ऐशो आराम, खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। और होती भी तो, बच्ची के लिए कोई कमी कभी न होने दी होगी। नौकर-चाकर, माली, ड्राइवर ध्यान रखते थे आरूषि का। इसीलिए कभी उनके भरोसे छोड़ दिया जाता होगा उसे। आरूषि थोड़ी कमजोर थी, सो बचपन में बीमार भी ज्यादा होती होगी, तब डॉ. तलवार अपने हर तरह के जरूरी काम छोड़कर सिर्फ उसे संभालते होंगे। दूसरी-तीसरी क्लास के अच्छे मार्कस देखकर दोनों ने सोचा होगा, आरूषि भी डॉक्टर बनेगी बड़ी होकर।
कभी आरूषि को किसी फ्रेंड के बर्थ डे पर जाना होता तो डॉ. तलवार खुद छोड़कर आते। बड़े डरते-डरते स्कूल टूर पर भेजते और जब तक वापस न आ जाती, बड़े बेचैन से रहते। कभी काम से फुर्सत ले फैमिली टूर पर जाते होंगे। आरूषि के लिए उसकी पसंद की ढेरों ड्रेसस लाते, आरूषि को जींस-टॉप के साथ कैप लगाना भी पसंद था। जब आरूषि थोड़ी बड़ी होने लगी, मम्मी ने अच्छे-बुरे बारे समझाया होगा, लेकिन काम में व्यस्तता के चलते, शायद खुद नहीं समझ पाईं। वर्किंग पेरेंटस के बच्चों को धीरे-धीरे मम्मी-पापा का काम पर जाना भाने लगता है, उस वक्त वो पहले देर तक टीवी, फिर कंप्यूटर, फिर इंटरनेट देखकर बिताने लगते हैं। या कभी-कभी फ्रेंड्स को घर पर बुलाते हैं। थोड़ी अकेलेपन की छूट जरूर लेते हैं। घर के नौकर, घर के हर शख्स पर अपनी पैनी नजर रखते हैं। उनकी पसंद-नापसंद को बारीकी से परखते रहते हैं। फिर घर पर ज्यादातर अकेली रहती आरूषि का भी नौकर के साथ ही ज्यादा वक्त बीतता होगा। यूं कभी कांच का टुकड़ा आरूषि के पैर में लगा होगा या कभी साइकिल से गिरकर घर आई होगी तो पापा ने प्यार से सहलाते, उसकी चोट को साफ कर पट्टी बांध दी होगी। उसके आंसू पोछते कहा होगा-मेरी बहादुर बेटी है। यूं छोटी सी चोट पर थोड़ी ना रोते हैं।
फिर एक दिन अचानक जब आरूषि अपने कमरे में पढ़ रही थी, कुछ आवाजें सुनकर दोनों उसके कमरे की तरफ गए और वहां जो देखा, बर्दाश्त नहीं हुआ। शायद किसी भी मां-बाप से ना हो, कभी ना हो। बच्ची की वो हालत, नौकर की वो हिमाकत। कोई नहीं समझ सकता, उस भावना के तूफान को। समझ, बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया होगा। अपने प्यार का ये सिला, नमकहरामी नहीं सहन कर पाए होंगे। पता नहीं, अभी तो केस की सुनवाई बाकी है। दलीलें और तहरीरें बाकी हैं। पर कोई सब कुछ जानता है। पर अगर किसी की ज़िंदगी को किसी गलत काम करने पर माफ नहीं किया जा सकता तो अपनी ज़िंदगी बचाने की इतनी जद्दोजहद क्यूं।
डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी यूं ही चलती रहे

आज एक बड़ा सा फ्लैक्स बोर्ड देखा, अनाज की भरपूर पैदावार बारे था कि हरियाणा में गेहूं की बंपर पैदावार। पता नहीं क्यूं मन किया कि कोई इतने बड़े बोर्ड के दायीं ओर निचले कोने पर अखबार की वो कटिंग लगा दे जिसमें दिखाया गया कि बंपर पैदावार कैसे सिर्फ बोरियों में भरे जाने के अभाव में सड़ रही है। शहर में एक और बड़ा सा बोर्ड किसी कॉलेज की लड़कियों को दर्शाता हुआ लगा है। कोई इसके भी बायें कोने पर, अखबार में आयी ‘अपना घर’ से लापता युवतियों की तस्वीर लगा दे।
अब इसमें दो बातें गौर करने की हैं। पहली तो तस्वीर लगा दें और दूसरी कि कोई और लगा दे। मैं और मेरा मन तो जैसे निमित मात्र हो सकते हैं। बस अंदर ही अंदर आग जलती है, चिंगारियां सुलगती हैं, बस एक हाथ चाहिए जिस पर ये जलते शोले रख दें। और फिर हमारा काम खत्म। फिर देखें, कैसे वो हाथ पहले खुद को जलाते हैं, फिर दुनियां को रोशन करते हैं। पर इसमें भी कोई हमारे योगदान को न भूले। पता नहीं कब ये तलाश मुकम्मल होगी। हर किसी को कोई ऐसी आदिम सीढ़ी चाहिए कि उसकी गर्दन पर सवार हो देख पाए दूसरी ओर का शाइनिंग इंडिया।
फिर एक सवाल खुद से ही किया, क्यूं कभी मन ये नहीं करता कि पिछले स्टोर में बेकार पड़ी अनाज की खाली बोरियों में से ज्यादा नहीं तो दो-चार बोरियां वहां दे आऊं, अपने हिस्से का योगदान करूं, दो बोरी अनाज तो खराब होने से बचाऊं और अगर बस अपने हिस्से का काम सब कर दें तो फिर किसी को तलाश कर लाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्यूं राह चलती, रेड लाइट पर खड़ी, बीकानेर की दुकान के सामने घूमती, मॉल के रास्ते में कपड़े खींच कर भीख मांगती लड़कियों को देख सिर्फ खीज उठती है मन में। क्यूं? बस ये लगता है कि ये काम नहीं कर सकतीं। हमेशा एक काम वाली लड़की नजर आती है उनमें।
कभी मन ये क्यूं नहीं करता कि इनमें से किसी एक की जिम्मेवारी मेरी, उसे थोड़ा पढ़ाने-लिखाने की, बस पढ़ाई के मायने भर समझाने की, उसे इतनी समझ देने की, कि वो ज़िंदगी में कुछ और भी कर सकती है। इससे बेहतर। आखिर इसी तरह की लड़कियां तो पहुंचती हैं ‘अपना घर’, अपनों के अभाव के चलते। कुछ करना तो होगा। कुछ करना तो है। कब, कैसे की उहापोह में ही आधी ज़िंदगी निकल चुकी है। फिर भी शुरुआत के लिए कभी देर नहीं होती।
एक बात और, आजकल रिजल्ट का मौसम है। तमाम तरह के रिजल्ट आ रहे हैं, बच्चे उपलब्धियों से खुश हैं, पेरेंट्स के चेहरे खिले हैं। पर कुछ मायूस मन भी हैं जो इस बार वो मंजि़ल नहीं पा सके जिसकी दरकार थी। ये भी जानती हूं कि सांत्वना के बोल बड़े चुभते हैं मन को। पर उस हाथ की जरूरत हमेशा रहती है जो कंधे को थपथपा कर, मन को हल्का कर दे। सो पेरेंट्स और दोस्त, प्लीका बने रहे उस मायूस मन के पास। समझाएं उसे, ज़िंदगी अभी बस नहीं हुई है, कि ज़िंदगी कभी बस नहीं होती और बच्चे भी रैंक की दुनिया से इतर, कुछ और सोचें। कि ज़िंदगी बार-बार मौके देती है। आपको बस इतना करना है कि उसकी रवानगी को बरकरार रखें। यूं बहती रहते देंगे तो ही कहीं न कहीं, घनी छांव के, प्यारे छोर भी मिल ही जाएंगे।
डॉ. पूनम परिणिता

ना तुम हमें जानो...

आज भारत भूषण अग्रवाल की एक कविता पढ़ी। ‘मैं और मेरा पिट्ठू।’ फिर मुझे अपनी उस अलिखी, माने जो लिखी नहीं गई, कविता की याद आ गई। ये रिश्तों और आपसी समझ के बारे में है। कि-जानती हूं, तुम उसे जानते हो, जो सुबह पांच बजे अलार्म के साथ उठ जाती है, बिखरे बालों को, उंगलियों से साधती पीछे को बांधती, सीधे रसोई में चली जाती है, बच्चे और तुम्हारे टिफिन में, फिर कुछ नया, कुछ जादुई, कुछ सेहतमंद सा डालने। पर क्या तुम उसे जानते हो, जो चाहती है, सोना देर तक, तुम्हारी बगल में, यूं ही बिखरे बालों के साथ।
हां जानती हूं, उसे तो, तुम, अच्छे से जानते हो, जो तुम्हें देकर तुम्हारे कपड़े, टॉवेल, हो जाती है तुम से पहले तैयार, और देखती है तुम्हारे मूड की बाट, कि क्या बिना कोई मुंह बनाए, छोड़ दोगे ऑफिस तक। पर, क्या तुम उसे जानते हो, जो, बस रहना चाहती है घर पर, हमेशा, ताकि रख सके, अपने, नए लाए फ्लॉवर पॉट में, अपने चुने हुए ताजे फूल।
हां, हां, तुम उसे तो भले ही जानते हो, जो, सर से ढलते, सरकते, पल्लु को वापिस सर पर रखने की नाकाम कोशिश करती, रखती है खुश, तुम्हारे तमाम छोटे-बड़े रिश्तों को, पर उसे जानते हो क्या, जो ढीली टी-शर्ट और लोअर पहने, चाहती है बस, घंटों बतियाना, अपनी मां से फोन पर।
और, उसे तो अब जान ही गए हो, जो स्कूटर, कार उठाए, कर देती है, तुम्हारे, बच्चों के, घर के, हर अंदर-बाहर के काम, और तुम्हें इतिला हो जाती है कि-ठीक किया, पीटीएम जा आईं। पर उसे जानते हो क्या, जो चाहती है दिन भर में याद आई चीजों की लिस्ट बनाना और तुम्हें थमाना, ना चाहते हुए भी, ऑफिस से आते ही। और उसे तो तुम जानकर थक चुके हो, जो बैठ जाती है, रात देर तक के लिए, हाथ में कोई किताब लेकर, जब तुम चाहते हो, चैन से सोना, लाइट बंद कर। पर उसे कब जाना। जो चाहती है, ये कहानी, ये कविता पढऩा तुम्हारे साथ-साथ, ताकि जान सके कि, कितना जाना तुमने मुझे, और कितना तुम जान सके।
अब ये तो हुई कविता, इसके बाद इसकी नारियों पर दो तरह से प्रतिक्रिया हो सकती है। एक तो कि ‘अच्छी है’ और फिर अपनी पहली सी भूमिका में मशगूल। और दूसरी कि किसी तरह उन्हें (जिनसे ये कविता बावस्ता है) ये कविता पढ़वाई जाए और लगातार उनके एक्सप्रेशन नोटिस किए जाएं। और फिर उनकी क्रिया पर जोरदार जवाबी प्रतिक्रिया की जाए (ऐसी कि न्यूटन भी थर्रा उठे और कहे, मैंने ऐसा तो नहीं कहा था)।
अब उनकी भी प्रतिक्रिया दो तरह की हो सकती है। एक तो ये कि-हां जी, पढ़वाओ और फिर पढ़कर वही हल्की सी-हां, ठीक है, मतलब अच्छी है। या फिर ये कि-भागवान, दरअसल मैं तो जानता ही कविता की दूसरी वाली पात्र को हूं। और दो, जिसका जिक्र पहले है, जिसे कि कहा गया है, उसे तो तुम जानते हो। मेरा भगवान जानता है कि ऐसी एक पत्नी मैंने चाही जरूर थी, पर वो जिसे मैं सचमुच जानता हूं। जिसे भगवान ने मुझे बख्शा है, वो बाखुदा वो वाली है जिसका जिक्र बार-बार ये कह कर किया है कि-पर, क्या तुम उसे जानते हो? भई, जानता हूं, खूब जानता हूं, ना सिर्फ जानता हूं, बल्कि भुगत भी रहा हूं।
देखिए, वास्तव में, मेरा इरादा तो बस, कविता का ही था। आप लोगों की पर्सनल जान-पहचान में दखलंदाज़ी करने का तो बिल्कुल नहीं था। बहरहाल, यूं ही मीठी नोक-झोंक के साथ खुश रहें।
-डॉ. पूनम परिणिता

मेहमां जो हमारा होता है...

शायद कुछ लोग मुझे सिर्फ इसलिए भी मिल जाते हैं कि मैं अपना ब्लॉग बिना नागा लिख सकूं। तो इस बार मुझे मिली आंद्रया। थोड़ी अलग तो वो सिर्फ इसी से हो जाती है कि वो एक जर्मन लड़की है। लंबा, ऊंचा कद और बिंदास पर्सनाल्टी तो वैसे ही विदेशियों की खास पहचान है। शुरुआती जान-पहचान में उसने बताया कि उसने पढ़ाई-लिखाई फैशन डिजाइनिंग में की है, जिसे उसने सिर्फ इसलिए छोड़ भी दिया कि कोई ये कैसे जज कर सकता है कि मेरा बनाया डिजाइन बढिय़ा नहीं है। और ये कि सिर्फ सिलाई, कढ़ाई, बुनाई तो अच्छी-बुरी परखी जा सकती है, पर किसी की क्रियेटिविटी हरगिज नहीं।
खैर, इस उधेड़बुन से निकलकर वो भारत यूं पहुंची कि उसे हॉकी खेलने का शौक है, सो बच्चों को हॉकी खेलना सिखाना शुरू कर दिया और आज एक एनजीओ के तहत राजस्थान के दौसा जिले के छोटे से गांव में किसी गरीब परिवार के साथ रहकर उस गांव और आसपास के गांवों के छह से पंद्रह साल के बच्चों को हॉकी खेलना सिखा रही है। और इस सबसे वो बेहद खुश है। उसे एडवेंचर पसंद है और राजस्थान से चेन्नई, महाबलीपुरम तक की यात्रा ऑटो रिक्शा से कर चुकी है। वो इस बात से भी खुश है कि जिस गांव में वो रह रही है, जिस जगह गुजर-बसर कर रही है, वो किसी महाराजा का पुराना किला है। यह अलग बात है कि उसमें बिजली व्यवस्था ऐसी है कि कभी-कभी चौबीस घंटे तक बिजली नहीं होती, शुरू में उसे अपना कमरा 20-25 चमगादड़ों के साथ शेयर करना पड़ा।
जिन बच्चों को वो खेलना सिखाती है, वो उसे कोई प्राइवेसी या कहें अपना स्पेस नहीं बरतने देते। पर इस बारे में वो कहती है कि मैं इसका जरा भी बुरा नहीं मानती, क्योंकि पहले मैंने इनकी ज़िंदगी में दखलअंदाजी की है, इन्होंने तो ये काम बाद में शुरू किया है। उसने 19 साल की उम्र में घर छोड़ दिया था। आज वो एक भारतीय दोस्त से शादी करना चाहती है, पर उसके किसान मां-बाप को अपनाना और साथ रखना नहीं चाहती। वो उन्हें पसंद करती है, पर अपनी लाइफ में उनका इंटरफेयरन्स बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। उसने बताया कि लड़का समझाने की कोशिश कर रहा है अपने मां-बाप को और शायद सफल भी हो जाएगा। वो कहती है कि भारतीय मां-बाप अपने बच्चों को इसलिए प्यार से पालते हैं कि बूढ़े होने पर वो उनकी देखभाल कर सके और ये तो बहुत बड़ी खुदगर्जी हुई।
दरअसल, वो नहीं जानती कि तीन सौ साल की गुलामी का इतिहास है हमारा, असुरक्षा की भावना हममें खून के आगे-आगे दौड़ती है। हम एडवेंचर करने निकलें तो घर से निकलते अगर बादल छाए दिख जाएं तो छाता लेकर निकलते हैं। मां दो-तीन दिन का खाने-पीने का इंतजाम साथ बांध देती है। हमें सेफ सा एडवेंचर पसंद है। और रही बात बच्चे पालने की तो जैसा उसने खुद बताया, एक गरीब परिवार भी मेहमान को बरसों रखने का जिगर रखता है। और मां-बाप की सेवा करना, बड़ों का आदर करना, मेहमाननवाजीक·रना, ये तो हम बच्चों को यूं ही प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए ही सिखा देते हैं, क्योंकि हमारे देश में वृद्धाश्रम अभी सिर्फ सरकारी तौर पर खुले हैं, ये प्राइवेट बिजनेस में नहीं आए हैं और अभी इनमें रहने वाले बुजुर्गों की संख्या अपेक्षाकृत काफी कम है। शाम के वक्त जब मैं उससे मिलने गई तो उसने बताया कि अभी तो वो थोड़ी देर कुछ लोगों के साथ बीयर पीएगी। हे भगवान, फिर वही असुरक्षा की भावना, ये छोटी-छोटी बच्चियां, हॉकी के साथ-साथ कुछ और तो ना सीख लेंगी इससे।
डॉ. पूनम परिणिता

आया रे खिलौने वाला...

बात थोड़ी पुरानी जरूर है, पर इतनी भी नहीं कि इसे रिकॉल ना किया जा सके। कुछ औरतें आती थीं, मैले कुचले से घाघरा, चुनरी पहने। सर पर एक छाबड़ी, एक हाथ की उंगली से खिंचता बच्चा और दूसरे हाथ से एक डुगडुगी बजाती। डमरू जैसी बजती उसे आवाज में कुछ तो बात थी कि बच्चे सब मम्मियों को बाहर ले जाते, फिर उसकी छाबड़ी को घेर कर खड़े हो जाते और वो खुरदरी सी आवाज को भरसक मधुर बनाने की कोशिश करते हुए अपने पिटारे से निकालती, मिट्टी का एक डमरू और मिट्टी की छोटे-छोटे पहियों वाली गाड़ी। अब लड़के जहां उस गाड़ी को चलाकर दिखाने की जिद करते, लड़कियां चाहती कि वो अपने हाथ वाली डुगडुगी उन्हें बेच दे, क्योंकि और कोई भी डमरू या डुगडुगी वैसी आवाज ना निकाल पाते, जैसी उसके हाथ वाले खिलौने से निकलती थी।
बात फिर मोल-भाव पर आती, बेहद सस्ते खिलौने होते थे वो, और ज्यादातर तो आटा, चीनी से भी कम दाम पर। फिर जब वो बिजनेस खत्म कर उठती तो थोड़ी दूर उसकी तान के पीछे जाते, पर फिर मां की आवाज के साथ वापिस अपनी चारदीवारी में जा, अपने खिलौनों से खेलने में मस्त हो जाते। ये खिलौने बस ही देर तक चलते, अमूमन जब तक उसकी डुगडुगी की दूर तक आवाज आती। बस उसके बाद तो डमरू का एक तरफ का बजाने का टुकड़ा टूट कर हाथ में आ जाता और गाड़ी का पहिया भी एक तरफ जा गिरता। इसके साथ ही इन खिलौनों के स्पेटर पार्टस के लिए उस खिलौने वाली को गेट से दोनों तरफ नजर दौड़ा-दौड़ा कर गली के छोर तक ढूंढा जाता, हालांकि किसी पिछली गली से उसकी आवाज तो आ रही होती, पर उसे ढूंढना आसान नहीं होता था। थोड़ी देर कुछ जुगाड़ की कोशिश की जाती, लेकिन थक-हार कर फिर उस खिलौने का पोस्टमार्टम कर दिया जाता। डमरू के भीतर छेद करने में तो वाकई मजा आ जाता।
बच्चों को अगर उनकी दुनिया में उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो वो हर चीज में अपनी खुशी ढूंढ लेते हैं। मुश्किल तब होती है जब अपने बड़े-बड़े, अधूरे सपनों का, उनके सपनों की दुनिया से घालमेल कर दिया जाता है। ऐसा ही नजारा दिख रहा था, वाहनों के मेले में। अपने और बच्चों के सपनों का घालमेल। बच्चों की उंगली पकड़े उन्हें बड़ी-बड़ी गाडिय़ां दिखाते, अभिभावक। स्पीडोमीटर की आखिरी लिमिट को पढ़ते बच्चे, रेस और ब्रेक तक पहुंचने नी नाकाम कोशिश करते उनके छोटे-छोटे पैर। बंद गाडिय़ों में भी फुल रेल देते उनके पैर और हाथ। लोगों के सपने देखने की क्षमता को भुनाते सेल्समैन, उनके सपनों को फाइनेंस करने की कोशिश करते फाइनेंसर। हालांकि लगभग सभी बढिय़ा लिबास पहने थे, पर मुझे जाने क्यूं वो छोटी-छोटी चादर लपेटे नजर आए जिसके बाहर उनके पैर झांक रहे थे। मगर मैंने पाया कि आजकल चादर को, सबने, एक साथ बाहर निकाल स्टाइल से ओढऩा शुरू कर दिया है। फिर पैसे की फिक्र कौन करे। मैं जोर-जोर से बजते डीजे में कहीं उस खिलौने वाली की डुगडुगी की आवाज को महसूस करना चाहती थी।
-डॉ. पूनम परिणिता

ये जो मन की सीमा रेखा है...

हाल ही में सचिन और रेखा के राज्यसभा में मनोनीत किए जाने के लिए नाम तय हुए हैं। यह राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्ति है या कहिए उनका अधिकार है कि वे देश के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाली शख्सियतों को राज्यसभा के लिए नामित कर सकते हैं और इसमें कोई शक नहीं कि सचिन व रेखा दोनों अपने फन में माहिर हैं, लेकिन जब से दोनों का नाम अनाउंस हुआ है, ये मीडिया में सुर्खियों में हैं। बस इसी का नाम राजनीति है। अब ये मुंह खोलेंगे तो मीडिया अपने हिसाब से उसके मायने तय करेगा और जुबां बंद रखेंगे तो उसका अर्थ भी अपनी भाषा में बांचेगा।
बाखुदा, जितना सब लोग जानते हैं। सचिन और रेखा दोनों अपेक्षाकृत कम बोलने वाले लोगों में से हैं, लेकिन दोनों के बारे में वाकयुद्ध लगातार जारी है। सचिन का तो फिर भी राजनीतिक कैरियर तय किया जा रहा है, उन्हें मौखिक रिटायरमेंट दी जा रही है, लेकिन रेखा, उनकी गरिमामयी चुप्पी पर क्यों सवालों का सैलाब ढाया जा रहा है। संसद में सिलसिला...क्या होगा जब जया से मिलेंगी रेखा। रेखा और अमिताभ की प्रेम गाथा सत्तर-अस्सी के दशक के दर्शकों के लिए ‘राजुकमारी की प्रेम कहानी’ जैसी है। इन्होंने इन दोनों की प्यार की कहानी को अपनी आंखों से पढ़ा है। सिलसिला सिर्फ फिल्म नहीं, इन तीनों ज़िदगियों की सच्ची दास्तान थी, एक सच्चे अंत के साथ जिसमें अमिताभ अपनी जीवन संगिनी का साथ निभाने का फैसला लेते हैं। और उसे फिल्मी परदे से इतर, आज तक निभाते आ रहे हैं।
एक तेज है सबके चेहरे पर, अमिताभ में अपनी गरिमा और निष्ठा है, जया पर अपने सतीत्व का और रेखा पर अपने प्यार का और सभी इस ओज को बनाए हुए हैं। जाने क्यूं-क्यूं दर्शाया जा रहा है कि रेखा पहले दिन सदन में जाते ही, जया को देखते ही, जाने कैसे रिएक्ट करेंगी। बस उस एक पल को, चेहरे पर आते-जाते भावों को, आंखों की उस भाषा को हर चैनल अपने हिसाब से पढ़ेगा और गढ़ेगा। टीआरपी की एक नई इबारत। पर वो नहीं जानते, अमिताभ, रेखा और जया उस वक्त के मंझे हुए कलाकार हैं, जब ये ब्रेकिंग मीडिया पैदा ही नहीं हुआ था।
रेखा जानती हैं कि इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों है, फिर यूं ही थोड़े ना, पढ़े लेने देंगी, इन आंखों की भाषा सभी को। फिर इन्हें तो भगवान ने भी जाने क्यूं पैसा, शोहरत, कला सब कुछ देते हुए भी प्यार से महरूम रख दिया। सुरैया, मधुबाला, मीना कुमारी की ही अगली कड़ी का नाम है रेखा। जब हम ही रेखा का नाम आते ही जहन में अमिताभ को स्वत: ही ले आते हैं तो रेखा का कसूर कब है। सिलसिला फिल्म का ही एक डॉयलाग है, जब अमिताभ कहते हैं-वो कब का, सब कुछ पीछे छोड़ आए थे, भूल चुके थे, पर वक्त ने फिर से इसे सामने लाकर खड़ा कर दिया है तो....लेकिन, ये बस कलाकार, जब झूठा अभिनय करके आपको, हमको हंसा, रुला सकते हैं तो क्या अपनी असल ज़िंदगी में अपनी गरिमा बनाए रखने को असली अभिनय नहीं कर सकेंगे। तो स्वाद के चाटुकारों के हाथ कुछ नहीं आने वाला। रेखा सदन में जाएंगी, जया को देखेंगी, फिर प्यार से दोनों गले मिलेंगी और एक ही राह के मुसाफिर होते हुए भी चल देंगी अपनी-अपनी राह।
डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी इक सफ़र...

हालांकि ये पहली बार नहीं है, जब मेरा बेटा स्कूल टूर पर गया है और घर खाली-खाली लग रहा है, पर इस बार जाने क्यूं ज्यादा ही शांति पसर गई है घर में और वो मुझे भा नहीं रही। ऐसे में ही मुझे ये ख्याल भी आया कि जब वो बड़ा हो जाएगा और हम बूढ़े, और वो अपने परिवार के साथ चला जाएगा, तब इतनी ही शांति के साथ कैसे बसर हो पाएगा। इसीलिए शायद अनुपातिक शोर, थोड़ा कोलाहल जरूरी है ज़िंदगी में।
कोई हो, जो उठे तो पूरी चद्दर बिगड़ जाए, बैठे तो उस पर सॉस गिरा दे। वो खुद भले ही तीसरे कमरे में गेम खेल रहा हो, पर पहले कमरे से डोरेमोन की तीखी आवाजें आती रहें। जिसे पास बुलाने के लिए आपको कम से कम तीन आवाजें लगानी पड़ें। और जो आपके दूसरी आवाज पर ही हां जी, बेटा कहने के बावजूद तीन बार फिर भी मम्मा, मम्मा, मम्मा...बताओ क्या...करता रहे। कम से कम इतना शोर, इस तरह का शोर हर घर में होना चाहिए। गीले कपड़ों, बिखरे खिलौनों, बेतरतीब फैली किताबों और अनगिनत डिमांड्ज का थोड़ा तनाव हर किसी की ज़िंदगी में रहे।
वो भी मजेदार दृश्य था, जब हम उसे टूर बस तक छोडऩे उसके स्कूल गए। बच्चों के खिले चेहरे और पेरेंट्स के थोड़े बुझे चेहरे। ज्यादातर बच्चे चाहते हैं कि उनके फ्रेंडस और टीचर्स के सामने पेरेंट्स ज्यादा देर तक न खड़े रहें। पर पेरेंट्स का बस चले तो अपनी गाड़ी से साथ-साथ चले जाएं बच्चों के टूर पर। पेरेंट्स की वो हिदायती आवाजें, चार्जर रख लिया ना, खिड़की के साथ वाली सीट पर बैठ जा, सैंडविच रास्ते में ही खा लेना, हाय शॉल लेना भूल आया, चल सिद्धार्थ से शेयर कर लेना, मोबाइल पर अभी से गेम मत खेलना शुरू कर दियो, इसकी बैटरी खत्म हो जाएगी। पापा अपेक्षाकृत शांत रहते हैं और कहते हैं, वो अपने आप एडजस्ट कर लेगा। बच्चे बस एक ही बात कह रहे होते हैं, हां ठीक है, बॉय।
बस ज़िंदगी का ये सुहाना सफर यूं ही चलता रहे, खिड़की के साथ वाली सीट हो, बैटरी चार्जेबल हो, साथ में गर्म सैंडविच हो, शॉल अगर भूल भी गए हों तो ऐसे दोस्त आसपास हों जो शेयर कर लें। अगर भगवान की इतनी कृपा है तो वो काफी है। इससे अधिक कृपा के चक्कर में अगर काला पर्स या दस-दस की गड्डियां तिजोरी में रखेंगे तो वो जो सहज कृपा थी ना भगवान की, उससे वंचित हो जाएंगे।
जब भी बेटा कहीं घूमने जाता है, मुझे मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ जरूर याद आती है। जब हमीद मेले से अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदकर लाता है। अपने आप से बच्चे ऐसा सोच पाते हैं क्या? मैंने अपने बेटे को कहा था, दादी के लिए जयपुरी चुन्नी लेकर आना और उसका फोन भी आ चुका है कि उसने खरीद ली है। पता नहीं, ये संस्कार जैसी चीजें ऊपर से नमक की तरह छिड़कने पर वही स्वाद दे सकती हैं क्या? पर हमें कोशिश जरूर करते रहना चाहिए।
-डॉ. पूनम परिणिता

लिख लूँ, मन की...

स्टेशनरी की दुकान पर यूं ही मेरी और बेटे की नकार इक_े ही एक व्हाईट बोर्ड पर पड़ गई। हालांकि उसके लिए नहीं आए थे हम दुकान पर, लेकिन दोनों में एक इशारा हुआ, पति से कुछ मनुहार हुई, पूछा था उन्होंने, ‘करोगे क्या इसका’। कोई वाजिब जवाब नहीं था हमारे पास। बोल दिया बेटा कुछ भी लिख क रिवाइका कर लिया करेगा और वो बोर्ड आ गया घर पर।
दो हफ्ते पड़ा रहा एक कोने में क्योंकि उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था लगाने को। फिर घर की कॉमन जगह में लगाया। बेटे ने कुछ अक्षर कुछ चित्र बनाए उस पर। एक दिन पति ने फिर से क्लास ले ली। क्या यूका हो रहा है ये बोर्ड? सिर्फ फिजूलखर्ची से मतलब है आप दोनों को। ‘अरे ये बोर्ड, कुछ भी लिखते हैं, तो मिटा भी देते हैं। यूका हो रहा है’- मैंने बचाव के लिए कह दिया।
उस दिन शनिवार था। सुबह ही बोलकर गये थे कि 4:40 का शो है तैयार रहना और आये रात 8:30 बजे और फोन की लेट की किया था साढे छह बजे कि लेट हो जाउंगा। गुस्सा बहुत आ रहा था, पर उनके बाहर से आते ही सीधा लडऩे की आदत नहीं है मेरी, सफाई देने का पूरा मौका देती हूँ। पर ये क्या जवाब हुआ, कि बस दोस्त आ गये थे और बैठ गये। मूंह अपने आप फूल गया मेरा। दनदनाती रसोई में जा रही थी। रास्ते में बोर्ड दिख गया, पेन उठाया और लिख दिया। वादा निभाना नहीं आता तो करते क्यूं हैं लोग? और रसोई में चली गई। खाना लगाया और प्लेट लेकर वापिस उसी रास्ते आ रही थी। बोर्ड फिर दिख गया। मेरी वाली लाइन के नीचे कुछ लिखा था, जो अब कुछ यूं बन गया था:
वादा निभाना नहीं आता, तो करते क्यूं हैं लोग,
एक पिक्चर के लिए इतना मरते क्यूं हैं लोग,
9:20 का शो बाकी है, टिकट बैड पर रखी है। 10 मिनट में तैयार हो जाओ। मैं तब तक खाना खा लेता हूँ।
ये बात अगर आमने सामने हुई होती तो कायदे से मेरा और रूठ जाना और नाइट शो में जाने से मना करना बनता था। पर उस लिखी हुई बात में कुछ ऐसी बेतुकी रिदम थी कि मुझे हंसी आ गई और ठीक उसी वक्त उन्होंने मुझे हंसते हुए पकड़ लिया। सो आप समझ सकते हैं कि एक तुफान आने से पहले रुक गया, जिससे उस रात की पिक्चर, खाना और यहां तक की अगला रविवार भी तबाह हो सकता था। बस उसी दिन से बोर्ड हमारे घर का सदस्य बन गया, जो बिना बोले ही सब कुछ कहता, सबके दिल की कहता, सबसे ज्यादा कहता। हम ब्यां कर देते और लगे हाथ ही फीड बैक भी मिल जाता।
यूं ही बहुत कुछ अनकहा सा रहा है जिंदगी में। किस से कहें, कब कहें और कैसे कहें। चारो तरफ इतनी आपा-धापी मची है, वक्त किसके पास है सुनने का। फिर एक और दिक्कत है कहने में, कभी कहने से पहले आँखें बोल पड़ती है, कभी होंठ मुस्कुरा उठते हैं। सो बहुत बार मन की बात रह जाती है मन में हीं।
इस बार नयी शुरुआत करके देखिए। लिखें, वो हर बात जो बहुत दिनों से कई तहों में लपेट कर रखी हैं, दिल के सबसे अंदर वाले छोटे कमरे में। बस उतार दें कागका पर, वो खुद कविता बना जाएगी। यकीन मानिये बड़ी राहत मिलेगी।
-डा. पूनम परिणिता

ऐसा लगा तुम से मिल के...

गया हफ्ता बेहद मसरूफियत और रूमानियत भरा रहा। साथ ही थोड़ा रूहानी भी लिख दूं। कई बड़े लोगों से मुलाकात हुई, नजदीक से। बड़े का मतलब सिर्फ ओहदे से नहीं कह रही। गुणों से और न सिर्फ गुण, बल्कि सद्गुणों से। अपने पहले काव्य संग्रह ‘अजन्मी, द अनबॉर्न डॉटर’ के विमोचन के अवसर पर लोकसभा स्पीकर श्रीमती मीरा कुमार को करीब से जाना। जिनके इर्द-गिर्द सुरक्षा का घेरा होता है, हमारा मन हमेशा उनके ‘इन्टीमेट जोन’ में जाने को करता है। हम, उनके साधारण मनुष्यों के तौर पर बिहेव करने पर बेहद अचंभित रहते हैं।
एक बेहद शालीन मुस्कान हमेशा उनके चेहरे पर चस्पा है, वो धीरे से जब बोलती हैं तो मन सुनता है। अपनी स्वरचित कविता में मीरा कुमार ने बताया कि कैसे उन्होंने, कभी दिल को, कभी दुनिया को, कभी नौकरी को, कभी राज को मंजिल समझा, पर जब उन्होंने अंदर झांका तो पाया कि मंजिल तो भीतर है। मुझे ये समझ में आया कि जिनके बाह्य आवरण से हम अभिभूत हुए रहते हैं, जिन्हें हम पाना चाहते हैं, जिन्हें हम छू सकना चाहते हैं, जो हम हो जाना चाहते हैं, वास्तव में वो मंजिल कभी नहीं है। चाह जहां खत्म होती है, मंजिल वहां है।
इसी हफ्ते एक दिगंबर जैन मुनि मंदिर में हुई मुलाकात के बारे में भी बताना चाहूंगी। बहुत सारे प्रश्न धर्म के बारे, आस्था के बारे, ध्यान के बारे, जीवन, मृत्यु और मोक्ष के बारे, मेरे मन में अक्सर घूमते रहते हैं जिनका जवाब मैं इसी जीवन में, मरने से पहले पाना चाहती हूं। मर कर मौत को जाना तो क्या जाना कि फिर ब्लॉग पर आपको बता भी न पाऊं कि मुझे कैसा लगा मृत्यु से मिलकर। सो, सारे प्रश्न किए उन जैन मुनि महाराज जी से तो एक सबसे मोहक बात तो ये लगी कि उन्हें मेरे इतने सारे और इतने अटपटे सवालों पर जरा भी गुस्सा नहीं आया, वरन बड़े ही सरल और मुस्कुराते स्वभाव से उन्होंने उत्तर दिए।
हालांकि मेरे सवालों और उनके जवाबों का अलग से एक लेख लिखा जा सकता है, पर फिर कभी। सबसे बेहतर एक जवाब था कि जाना तो सबको एक ही मंजिल पर है, पर मैंने योगी का मार्ग चुना है जो ‘हाईवे’ है। और फिर अंत में उनका ये कहना कि मैंने सिर्फ अपने खुद के ज्ञान के आधार पर ये उत्तर दिए हैं, जितना कि मैं जानता था। आप हमारे आचार्य से और अधिक जान सकती हैं। मतलब, मैंने ये जाना कि खुद को छोटा बताकर भी आप किसी के मन पर बड़ी छाप छोड़ सकते हैं।
तीसरी जो महिला हैं, उन्हें आप सब जानते हैं, अक्सर देखते हैं। साधारण सूती साड़ी पहनती हैं, कोई लकदक आभूषण नहीं, कोई डिजाइनदार सैंडिल नहीं, साड़ी का पल्लू सिर से थोड़ा भी नीचे होने से पहले, हाथों की मशीनी मुद्रा में वापस सर पर आ जाता है। आपके हाथ जुडऩे से पहले, वो झुक कर, मुस्कुराकर आपको अभिवादन कर देती हैं। दिखने में इतनी साधारण हैं कि यदि इन्हें इनके मन की करने दी जाए तो संभवत: वे किसी समारोह में आएं तो पीछे की किसी सीट पर धीरे से जा बैठें और पूरा कार्यक्रम देखकर चुपचाप निकल जाएं। परंतु भाग्य ने उन्हें सबसे अमीर महिला बनाया है और लोगों ने इन्हें विधायक।
मैंने ये जाना कि जहां दूसरे नेता, पहनावे में, लोगों से मिलकर मुस्कुराने में, मदद और आश्वासन देने में बनावटी होते हैं और जोर-जोर से भाषण देने और दिखावा करने में असल होते हैं। वहीं हमारे हिसार की विधायक पहनावे में, लोगों से बात व मदद करने में खालिस हैं। बाकी सब काम वो करती हैं, क्योंकि भाग्य ने और आप लोगों ने उन्हें ये काम सौंपा है। मैं सोचती हूं चार व्यक्तियों से मिलने के बाद भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हो गया था। तीन लोगों का खुद पर असर मैंने आपको बताया। क्या मैं ज्ञान प्राप्ति के करीब हूं...बुद्धं शरणं गच्छामि...।
-डॉ. पूनम परिणिता

‘श्री भोजनम् महात्मय’

शुभ नवरात्रे खत्म हुए और जिस दिन खत्म हुए, उस शाम राजगुरु मार्केट स्थित चाट भंडार पर जबरदस्त भीड़ थी। आठ दिन का सात्विक व्रत, फिर नौवें दिन हलवा, पूरी और चने का भोग। दिल अचानक कुछ चटपटा सा मांगने लगता है। कुछ खट्टा, गोल गप्पों के पानी जैसा। बस ऐसा ही है इंसान। कभी तो खुद को साधने में, योग को भी हठ की तरह करता है। फिर कभी इमली के खट्टे पानी को पी, एक आंख भींचकर, एक हाथ कान पर रखकर, जीभ से चटकारे की आवाज निकालता है, मानो देवताओं ने अमृत पाने को असुरों से व्यर्थ ही युद्ध किया, असली स्वाद तो यही है।
आजकल सब उत्सव है, भूखे रहना भी, व्रत भी और उधापन भी। व्रत रखने के मायने जहां इंद्रियों को वश में कर भूखा रहने के हैं, वहीं आजकल व्रत के भोज्य पदार्थों का एक अलग ही बाजार पनप रहा है। तरह-तरह के चिप्स, लड्डु, बर्फी और नवरात्रे स्पेशल थाली। इस बार मैंने नवरात्रे नहीं रखे, पर एक होटल में पास ही बैठे परिवार पर नज़र चली गई। बच्चे जहां पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन में से चयन नहीं कर पा रहे थे, वहीं महिला ने धीरे से कहा-मेरे लिए तो व्रत वाली थाली मंगा लो। और जब खाना आया तो देखा कि व्रत वाली थाली सब पर भारी पड़ रही थी। कुटु के आटे की चार पूरी, आलू की तरीदार और पेठे की सूखी सब्जी, सामक की खीर, रसगुल्ले की मिठाई। कोल्ड कॉफी का ऑर्डर अलग से दिया गया था। व्रत से बेबस उस महिला के शीघ्र ही खुद को तृप्त किया और बच्चों से कहा कि जल्दी करो, उसे मंदिर भी जाना है।
जानते हैं धर्म, नियम, संयम के कोई लिखित कायदे-कानून नहीं हैं। सब अपने हिसाब से, अपने दिल के हिसाब से तय किया जाता है। सब कुछ तय करो और ऊपर से टैग लगा दो कि हमारे में तो ऐसा करते हैं। जाने कब किसने तय किया होगा कि बजरंग बली को मंगलवार को बूंदी का प्रसाद चढ़ाना है या माता को छोले, पूरी, हलवा पसंद है। सालासर पर सवामणि, शुक्रवार को गुड़-चना, अमावस पर खीर। मुझे लगता है कि सबका काम आपसी भाईचारे और प्रीतिभोज से चलता होगा। बजरंग बली मंगलवार को प्रसाद सबके यहां भिजवा देते होंगे और खुद शुक्रवार को गुड़-चना शेयर करने माता के यहां पहुंच जाते होंगे। अमावस के दिन सभी देवता मिलकर ट्यूब लाइट की रोशनी में खाते होंगे। क्या चंद्र देवता इनवाइटिड नहीं होते होंगे। क्योंकि चांद आ गया तो अमावस के मायने बदल जाएंगे।
दरअसल सब रस पर, स्वाद पर टिका है। व्रत भी। व्रत खुलने की आस के साथ ही किया जा सकता है। जब दो दिन बाद भी कुछ खाने को मिलने की आस नहीं होती, उसे भूखे मरना कहते हैं और देश में लाखों ऐसे बिना नवरात्रों के बरती हैं। जब मैं बहुत छोटी थी, करीब पांच या छह बरस की तो एक बार किसी बात पर जोर-जोर से रो रही थी कि खाना लग गया। मम्मी ने जैसे ही चावल के डोंगे से प्लेट हटाई, मैं ताली बजाकर जोर से खुशी से चिल्लाई-आ हा चावल। मुझे चावल आज भी उतने ही पसंद हैं। कढ़ी चावल, राजमा चावल, छोले चावल। आज ताली बजाकर जोर से चिल्लाती नहीं हूं, पर मेरे दिल से आवाज आती है-आ हा चावल। अथ श्री भोजनम् महात्मय।
-डॉ. पूनम परिणिता

दिल कहे रुक जा रे, रुक जा...

पिछले कुछ वक्त से मैं अपने एक खास एजेंडे पर काम कर रही हूं। सो पूरी दुनिया में से, अपने लिए चुनी हुई दुनिया को ज्यादा समय नहीं दे पा रही थी। अपनी सारी सामाजिक व्यस्तताओं को एक समय तक के लिए टाल रखा था। हर चीज़ को अपनी पहली फुर्सत के लिए स्थगित कर दिया था। पर मैंने पाया कि बीतता वक्त आपकी फुर्सत का इंतजार नहीं करता।
‘एक दिन, बस यूं ही
वक्त से कहा
रुक तो सही
बस यहीं कहीं
हां यहीं, बस, बस, यहीं
ना रुका, ना पलटा
बोला चलते-चलते यही
ना रुका हूं, ना रुकूंगा
और हां, सुनो, चलती रहो
मेरे संग-संग तुम भी
यूं ही, हां, बस यूं ही।’
वक्त पर न की गई चीज़ अपने होने की गरमाहट खो देती है। अब जिस फ्रेंड ने मुझे फोन कर कहा था कि मुझसे मिलना चाहती है, कुछ देर बैठकर बात करना चाहती है। उसे मैंने अपनी फुर्सत के लिए टाल दिया। और अब जब मैंने उससे कहा-हां, अब मैं अविलेबल हूं तो उसने फीकी सी हंसी के साथ कहा कि उस बात में अब वो बात नहीं रही।
इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि मेरी कविताओं का एक संग्रह लगभग छपने को है। मेरी फुर्सत के चलते ही देरी हो रही है। उसमें मेरी वो कविताएं हैं जो मैंने इंटरनेट पर अपने लिए लिखी थीं। उसके कवर पेज के लिए मुझे एक अच्छी सी पेंटिंग की दरकार है।
दरअसल, मेरी पर्सनालटी कविताओं, कहानियों और लेखन से एकदम अलायदा है। मैं खुद, जब अपनी ही इस एक अलग शख्सियत से रूबरू होती हूं, तब लगता है ‘रहता है कहीं, मुझमें ही, मुझसा कोई।’ कभी मुझे अपने इस तरह का होने पर हैरानी होती है तो कभी एक अलग, अजीब अनुभूति होती है।
पर एक दिन जब मुझसे किसी ने कहा कि आप ऐसा लिखती हैं, जैसा मैं हमेशा लिखना चाहती हूं। पर लिख नहीं पाती हूं, क्योंकि मैं, आप नहीं हूं। बस अलग तरह का कांपलीमेंट था यह, मुझे अच्छा लगा। आत्ममुग्ध तरीके की प्राणी हूं। औरों की खुशी से भी खुश रहती हूं। अपनी खुशी से औरों को भी खुश करती हूं। और जब खुश होती हूं तो वक्त से कहती हूं-
सुन तो सही
रुक जा ज़रा
बस यहीं कहीं
पर वो है कि बस भागता जाता है, अपनी पहली फुर्सत
के इंतज़ार में।
-डॉ. पूनम परिणिता

ना खोना ही है, पाना...

बचपन में एक गाना सुनते थे, चूं-चूं करती आई चिडिय़ा, दाल का दाना लाई चिडिय़ा, कौवा भी आया, मोर भी आया, बंदर भी आया, खौं-खौं। और फिर से, फिर चूं-चूं करती आई चिडिय़ा। अब इस गाने में लॉजिकल कुछ भी नहीं है। चिडिय़ा है, दाल का दाना लाई है, अपना काम कर रही है। अब बाकी जानवर क्यूं बिना काम इकट्ठा हो रहे हैं। और इससे बढ़कर हम जाने क्यूं इस कहानी में दाल का दाना, की बात सुनते ही खिचड़ी पकने की उम्मीद लगा लेते हैं। इतना ही नहीं, खिचड़ी के ख्याली पुलाव भी बना लेते हैं कि गर्म-गर्म भाप और स्वाद की लपटें उठ रही हैं, बस अभी इसे थोड़ा सा फैलाकर, किनारे की ठंडी होती खिचड़ी को, झट से गोल बनाकर मुंह में डाल लेंगे।
बस ऐसा ही एक गीत बचपन से आज तक सुनते आ रहे हैं। हमारा बजट, चूं-चूं करती आती है चिडिय़ा, दाल का दाना लाती है। सब जानवर इकट्ठा होते हैं, खौं-खौं। और अगले साल फिर से वही। अब उपरोक्त गाने का मकसद बच्चों को महज जानवरों की हरकतों से बावस्ता कराने का होता है। सो ही मकसद बजट का है कि सब जान लें कि सरकार बकायदा, सरकारी तौर-तरीके, कायदे-कानून से चल रही है। और कहीं भी कोई वायदे से, कायदे से बाहर जाकर अपनी रेल चलाने की बात करेगा तो फिर, खौं-खौं।
इस बजट की बस एक बात मुझे पर्सनली अच्छी लगी। वो ये कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर कर दिया गया। महज दस हजार की पिछली आयकर छूट जिससे कि पूरे आयकर में सिर्फ एक हजार रुपए का फर्क आता था। इसके चलते जो दोयम दर्जा हमें प्राप्त था, उससे मुक्ति मिल गई। मतलब कि अब आयकर स्टेटमेंट में अलग से कॉलम बनाने की जरूरत नहीं कि महिलाओं के लिए विशेष छूट। अब हम भी बाखुदा उतनी ही तनख्वाह पाएंगे, उतनी ही छूट पाएंगे जितना की बाहक बनता है।
एक रोचक खबर बजट के बाद आई है कि पूरे देश की विकास दर सात प्रतिशत है और देश के नेताओं की 100 प्रतिशत। अब यहां भी देखिए सिर्फ बताने का फर्क है। अब यूं देखा जाए तो देश की विकास दर 107 प्रतिशत हुई। भई ये नेता देश के ही तो हैं, इनकी उन्नति देश की ही उन्नति तो है। तो हुई ना देश में 107 प्रतिशत तरक्की। बल्कि अभी इस विकास दर में बाबाओं की आय शामिल नहीं है। अगर वो भी मिला दी जाए तो शुद्ध विकास दर 207 प्रतिशत बनती है।
बस यूं ही बनती है साल दर साल दाल के दाने की खिचड़ी, यूं ही उठती हैं गर्म-गर्म स्वाद की लपटें, बस यूं ही दिल करता है, साइड से थोड़ी ठंडी हुई खिचड़ी को गोल कर मुंह में डाल जाने का। पर जाने क्यूं हमारे बांटे तो हर बार गीत के आखिरी शब्द ही आते हैं। खौं-खौं। लेकिन हम बेहद आशावादी हैं, हर साल फिर इंतज़ार करते हैं, चिडिय़ा का। वो फिर आएगी मुंह में दाल का दाना दबाए।
-डॉ. पूनम परिणिता

क्या बने बात, जो बात...

यूं कायदे से अब तक मौसम बदल जाना चाहिए था, लेकिन अभी भी सुबह और शाम ठंड हल्की से कुछ ज्यादा ही है। और चूंकि हम इसे हल्के में ले रहे हैं तो यह गाहे-बगाहे शरीर पर अपनी जकड़ बना ले रही है। इस बार इस आर्टिकल में कुछ ढूंढना चाहेंगे तो नहीं मिलेगा। क्योंकि जो बात मैं लिखना चाहती हूं, वह साफ-साफ लिख नहीं पाऊंगी। और यूं भी मौसम की, कभी बच्चों के एग्ज़ाम की, हिसार में हो रही इतनी शादियों की बात करूंगी तो आप समझ नहीं पाएंगे। दरअसल, बात तो वही है जो इतने दिनों से सबसे हलक में फांस की तरह अटकी है।
अपना हिसार कमोबेश शांत शहर, समझदार शहर है। जब सिख विरोधी दंगे उत्तर भारत को, पड़ोसी राज्यों को दहला रहे थे, तब अपनी समझदारी से ही, हिसार ने बहुत मेच्योरली बिहेव करते हुए अपनी व्यवस्था को बेदाग़ बनाए रखा। और वो आज भी इस कोशिश में है। वो चुप है, बिल्कुल एक सीनियर सिटीजन सा जो अपने जवान बच्चों के व्यवहार को संयम से, बस अब तक देखता रहा है, जब तक मुंह खोलना मजबूरी न हो जाए। वक्त नाज़ुक ज़रूर है, पर बीत जाएगा। बस वार ऐसे न हों, जो दाग छोड़ जाएं।
कभी-कभी बड़े तूफान आसानी से झेले जाते हैं और मामूली अंधड़ बड़े नुकसान कर जाया करते हैं। संयम हर हाल में बेहतर है।
यूं हिसार पढ़ा-लिखा शहर है, पर कभी-कभी पढ़ाई कंफ्यूज़ कर देती है। अब यूं तो ट्रैक पर आने का मतलब होता है, व्यवस्था ठीक होना। और ट्रैक से हट जाने का अर्थ होता है कि व्यवस्था खराब हो जाना। सो पूरी तरह कंफ्यूज़न में है हिसार कि सबको ट्रैक पर रहने दे या हटा दे।
सब खामोश हैं, बस बंद-बंद है, बस एक इंतज़ार है, सब कुशल मंगल होने का, सब दुरुस्त होने का। फिर इक नई सुबह होगी, फिर इक नया कारवां होगा।
-डॉ. पूनम परिणिता

तेरी इक नज़र की बात है...

उसका नाम वंदना है, चूंकि अभी तक उससे मिली नहीं हूं, तो वो मेरी फोनफ्रेंड ही हुई। मेरी उससे कुल जमा चार बार ही फोन पर बात हुई है। वो भी कुत्ते को गोद लेने के बारे में। दरअसल नेट पर देखकर पता चला कि वंदना अपनी दो छोटी और प्यारी सी लेब्राडोर (कुत्ते की नस्ल) बच्चियों को किसी को गोद देना चाहती है। मैंने बात की तो उसने कहा नि मुझे आपसे थोड़ी ही देर बात करके अच्छा लगा, लेकिन मेरी ये शर्त है कि मैं इन बच्चियों को दिल्ली से बाहर नहीं दूंगी, क्योंकि मैं बार-बार ये देखना चाहूंगी कि इन्हें ठीक से रखा जा रहा है या नहीं। ठीक से रखने का मतलब बाद की बातों में समझ आया।
पहली बात तो यह कि इन्हें बांधकर नहीं रखना। इन्हें पूरे घर, यहां तक कि बिस्तर, पूजा घर, रसोई कहीं भी बेरोकटोक आने की पूरी आज़ादी। हो सके तो इनके लिए अलग कमरे की व्यवस्था जिसमें इनके लिए एक आरामदायक (महंगा और कुत्तों के लिए अलग से मिलने वाला) बिस्तर, खिलौने और इनके लिए खाने-पीने का सामान हो। जो भी इन्हें ले जाए, वो इनसे (बिना शर्त) बेइंतहा प्यार करे। घर में मम्मी, पापा, दादी, नौकर या कोई भी सदस्य ऐसा न हो, जिन्हें कुत्तों या उनकी किसी आदत से कोई परहेज़ हो। कुल मिलाकर ऐसा परिवार हो जिसमें कम से कम एक प्राणी कुत्तों के लिए पागल हो, बाकी दीवाने हों। अगली एक, दो बातों में उसने बताया कि वो पांच, छह घर देखकर आ चुकी है जिसमें से कोई भी उसे उसकी शर्तों के चलते पसंद नहीं आया। सो, अभी इन दो बच्चियों और तीन अन्य कुत्तों के साथ वंदना खुशी-खुशी रह रही है।
वंदना ने कत्थक में पीएचडी की है तथा सांस्कृतिक मंत्रालय के माध्यम से कई बार विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी है।
वहीं एक बार ऑस्ट्रेलिया दौरे के दौरान वहां कुत्तों के बेहतर रखरखाव पर ध्यान गया और वहां से वापस भारत आने पर यहां की गलियों में जब कुत्तों को बेसहारा, भूखे घूमते और वाहनों से टकराकर मरते देखा तो उनके प्रति समर्पित हो गई। तब से कहीं भी कोई घायल, बीमार कुत्ता देखती है तो उसका उपचार कराती हैं। कुत्ते को देखभाल की ज़रूरत हो तो अपने साथ रख लेती है। अन्यथा गोद दिलवाने का प्रबंध करती है। उसने एनजीओ या संस्था नहीं बनाई है। बस, हमारे ही एक जूनियर डॉक्टर दंपति और दोस्तों की मदद से ये नेक काम कर रही है। वो कश्मीरी पंडित है और अविवाहित है। अपनी मां के साथ रहती है। विवाह में शायद कहीं, उसके कुत्तों के प्रति इतना समर्पण आड़े आ रहा हो। पर उसे और मुझे विश्वास है कि समय रहते उसे कोई उसी की तरह समझने वाला जीवन साथी ज़रूर मिल जाएगा। जैसा कि उसने मजाक में कहा-आई नीड ए पार्टनर, हू मस्ट बी केयरिंग (फिर बीच में थोड़ा रुककर)...फॉर डोग्स।
उसकी बात का अंदाज, उसकी भावनाएं, उसका समर्पण मुझे भाता है, मैं काफी देर तक उसके बारे में सोचती हूं। वो कई साल से ये काम कर रही है। बस मेरी सोच, एक जगह आकर ठिठक जाती है कि कहीं ये काम वंदना ने किन्हीं आदमजात बच्चियों के लिए किया होता? दिल्ली में ही कहीं, अपने पड़ोस में ही कहीं निठारी कांड जैसे हादसे होते ही रहते हैं। कहीं उन बच्चियों को वंदना जैसी किसी सुह्रदय का साथ, हाथ मिल गया होता। उन पांच कुत्तों के बढिय़ा बिस्तर से इतर, एक छोटा सा झूला किसी अनाथ बच्ची के लिए भी लगा लिया होता। मेरा आशय वंदना के कुत्तों के प्रति सुव्यवहार की आलोचना बिल्कुल नहीं है और मैं मनुष्य और कुत्तों के व्यवहार की वफादारी को भी बखूबी समझती हूं। पर दिल में इतना प्यार, संवेदना, समर्पण हो तो एक प्यारी बेसहारा बच्ची की पालना कितनी उच्चकोटि की हो सकती है, बस ये कहना चाहती हूं। ऐसा काम हमारे ही शहर में एक सीनियर मेडिकल ऑफिसर कर रही हैं, कभी उनके बारे में अच्छे से बताऊंगी।
-डॉ. पूनम परिणिता

वहां से किया है टेलीफून...

वो मेरी स्कूल टाइम की दोस्त है वीना। उससे मिलने मैं उसके घर गई थी। बातें स्कूल, दोस्तों, बच्चों, घर, पति से होते हुए नौकरी तक पहुंची। नौकरी से तनख्वाह और तनख्वाह से इन्कम टैक्स, जैसे ही इन्कम टैक्स की बात आई, वो उछलकर बोली- अरे यार, रिटर्न वाला फार्म देना था और एकदम बेख़बर सा उसका हाथ मोबाइल फोन पर, मोबाइल में डायलड नंबर पर गया जिसमें ज्यादातर पहले नंबर पर पति का ही नंबर होता है, सो हरा बटन दबा दिया।
मुझे वीना की बात तो साफ-साफ सुन रही थी- सुनो, आपने मेरा वो फार्म जमा करा दिया, वो क्लर्क फिर टोकेगा कि मेरी वजह से बिल रुके पड़े हैं, *, आप कह रहे थे ग्यारह बजे तक  भरकर, आप जमा भी करवा आओगे, *, अच्छा, एक बजे तक ज़रूर करवा देना। *, और चाय पी रहे हो क्या, *, अच्छा, अच्छा सुनो तो, आते हुए मशरूम के दो पैकेट लेते आना..... मैंने मटर निकाल रखे हैं। *, एक मिनट, वो ड्राइक्लीन वाले से, *, इसके बाद दरअसल डिस्कनेक्ट की टूं टूं टूं बज गई थी।
अब जरा जहां स्टार बने हैं, वहां वीना के पति के जवाब पढ़े, नहीं, हां, अच्छा ठीक है, ठीक है, मैं करता हूं, थोड़ी देर में। वीना ने फेस पर स्माइल लाने की कोशिश करते हुए कहा कि कट गया शायद। चल तू और सुना। थोड़ी बेचैनी थी उसे, और मुझे भी..... कि क्यूं, क्यूं मोबाइल शायद कट जाता है। मुझे इस तरह के तमाम संवाद याद आ गए। इधर से किए गए कॉल्स, मसलन.... बस यूं ही कर लिया था, बोर हो रही थी.... या फिर बेटे के चार्टस ले आना आते हुए। मां जी की पीली वाली गोलियां खत्म हो गई हैं। वो चाट मसाले वाला पैकेट ले आओगे क्या, वो जो आपको पकौड़ों पर डालकर खाना पसंद है। आज थोड़ा जल्दी आ जाओगे क्या? मिसेज वर्मा के यहां कीर्तन है, तीन बजे तो शुरू हो जाएगा।
और उधर से आते जवाब, जिनमें बड़े से बड़ा जवाब छह शब्दों का होता है, ‘मैं मीटिंग में हूं, फिर करता हूं।’ वरना दो शब्दों में कॉल समाप्ति की घोषणा, ठीक है। और अगली, चल ठीक है, के बाद तो फोन शायद कट जाता है। दरअसल इन संवादों से आज तक कोई नहीं बच पाया है और न ही बच पाएगा। इस पाती के माध्यम से मोबाइल के उस तरफ वाले कान को सुनाना चाहती हूं, बस कुछ बातें। सबसे पहली बात तो ये कि मैंने अपनी लाइफ में आपके सिवा किसी को यह अधिकार नहीं दिया कि वो मेरे घर, बच्चे और मुझ से जुड़ी किसी बात के बारे में सोचे। इन सबका ख्याल रखने की जिम्मेवारी मैं सिर्फ आप से बांट सकती हूं। फिर वो चाहे चिंटू की पेंसिल हो या बाऊजी का च्यवनप्राश।
मैं जानती हूं कि मेरी हर परेशानी का हल सिर्फ आपके पास है। और खासकर छोटी-छोटी परेशानियों का, मटर के साथ आज आप पनीर खाना चाहते हैं या मशरूम, ये, सिर्फ आप से बेहतर कौन बताएगा? आते हुए, एक और एक्सट्रा चीज तो इसलिए मंगा ली जाती है कि कहीं कल फिर से आपको फोन न करना पड़े। और फिर भी इसलिए फोन करना पड़ जाता है कि एक चीज तो मंगाना भूल ही गई थी।
दरअसल, आपके एक बार, ठीक है कहने से ही मेरी सारी टेंशन खत्म हो जाती है, ये भी जानती हूं कि इसके बाद आपकी टेंशन शुरू हो जाती है। पर मैं ये अकेले सहन नहीं कर पाती और बस अपने आप ही हाथ मोबाइल पर, फिर डायलड नंबर और सबसे ऊपर आपका ही नंबर तो रहता है। पर आप नहीं जानते कि मेरी दुनियां इतनी सी ही है। आप, आपका नंबर, मटर मशरूम की सब्जी, बच्चे की पेंसिंल, ड्राइक्लीन वाले से...और वो तमाम बातें जिनके लिए मैं आपको फिर फोन करूंगी।
-डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी रोज नए रंग दिखाती है मुझे...

कल मेरा जन्मदिन था। ये जीवन का वो मौसम है, जब कड़ी धूप चमक कर जा चुकी है और सूरज हल्का हो रहा है, पर इसने अपना सुनहरीपन अभी खोया नहीं है। वरन, बड़ा और सिंदूरी लग रहा है। सांझ होने को है, पर रात अभी काफी दूर है। हल्की सुहानी बयार बह रही है। मौसम ऐसा है कि बाहर, अंदर हर जगह अच्छा लग रहा है।
मुझे अपनी ये अवस्था पसंद आ रही है। अपने सफेद बालों का गहराना अच्छा लग रहा है, फिर उन्हें रंग से छुपाना भा रहा है। ये उम्र के साथ लुका-छिपी खेलने सा है। मुझे अपने चेहरे और गर्दन पर आती अतिरिक्त तहें अच्छी लगती हैं, मैं इन्हें मसाज देकर पाल रही हूं, उस वक्त के लिए जब मेरे बच्चे के बच्चे इन्हें हिलाकर गुदगुदाएंगे। मुझे अपनी आंखों के इर्द-गिर्द के घेरे पसंद हैं। ये मुझे मेच्योर लुक दे रहे हैं। अपनी तमाम नादानियों के बावजूद बस इनकी वजह से कुछ समझदार सी लगने लगी हूं। अपनी उम्रदराजी मुझे एक अलग तरह का सुकून दे रही है। एक अजीब सी सुरक्षा भावना। मैं खुद से जुड़ी हर चीज़ का पूरा-पूरा आनंद ले रही हूं। भगवान की इस नेमत का मज़ा ले रही हूं।
बेटे की हिंदी की बुक में सुमित्रा नंदन पंत की एक कविता है-‘मैं सबसे छोटी होऊं।’ बचपन के बारे में है। हां, बचपन को याद करना सुखकर है, पर बड़े होना सपनों के पूरे होने जैसा है। मंदिर में वो बच्चा कल भी मिला, जो मुझे दो साल पहले मिला था। वो अपनी छोटी सी साइकिल चला रहा था। मैंने उसे कहा-आप मुझे अपने पीछे बैठा लो। उसका जवाब था-आंटी, जब आप छोटे हो जाओगे न, तब मैं आपको पीछे बैठाकर साइकिल चलाऊंगा। मुझे उसकी बात बड़ी प्यारी लगी। ये तुतलाती सी बोली की बात बड़ी गहरी थी। बच्चे जब बड़े हो जाएंगे, तब हम छोटे हो जाएंगे। फिर वो हमें पालेंगे, ले जाया करेंगे इधर-उधर। बस प्यार दरमियान रहे, फिर सब अच्छा होता है। सब सुहाना होता है। बड़े होना भी और छोटा होना भी।
उम्र की इस दहलीज पर मैं खुद में नई-नई चीज़ें खोज रही हूं। ये, लिखना भी मुझे इस उम्र का एक उपहार है। बस अभी ही मैंने पाया कि मैं लिख सकती हूं। और आप सबका प्यार और कॉल्स बताते हैं कि अच्छा लिख रही हूं। मैं वक्त के इस उपहार और आपके प्यार से खुश हूं। रिटर्न गिफ्ट के तौर पर कुछ और बेहतर लिखने की कोशिश करूंगी। बस ज़िंदगी में उन सब प्यारी चीजों, लोगों का साथ रहे जिन्हें मुझसे हर हाल प्यार है। मेरी तमाम कमियों के बावजूद, मेरी सारी असफलताओं के बाद भी, बस उन्हें मेरे, मेरे होने से प्यार है। बस ईश्वर से यही प्रार्थना है-
तेरा-मेरा साथ रहे.... तेरा-मेरा साथ रहे
धूप हो छाया हो.... दिन हो कि रात रहे
-डॉ. पूनम परिणिता

रूह से महसूस करो...

पिछले दिनों मैंने पढ़ा कि एक प्रसिद्ध हॉलीवुड अभिनेत्री ने अपने मशहूर अभिनेता पति को उसके जन्मदिन पर एक जलप्रपात भेंट किया। पढ़कर पहले तो नारी सुलभ प्रतिक्रिया हुई, पर जल्द ही उस पर मेरा प्रकृति प्रेम हावी हो गया। ये नदियां, ये आसमां, हरे-भरे जंगल, ये झरने, मीठे पानी के स्त्रोत क्या सिर्फ़ एक प्रेमी को भेंट किए जा सकते हैं? हालांकि किए तो जा सकते हैं, जैसे कि कर दिए गए हैं। पर क्या कर देने चाहिए?
एक दिन जब मैं घर के जरूरी सामान की लिस्ट बना रही थी तो चाय, चीनी, दाल, बेसन के बीच ही कहीं अगरबत्ती, बाती और लिख दिया धूप का एक पैकेट। बस तभी मन कहीं खो गया। इस खरीदती-बिकती दुनिया में कभी ऐसा हो गया तो? ये हमारी आंखों को शीतलता देती, रूह को सुकून देती, ये बारिश, ये धूप, ये रोशनी, ये अंधेरा, ये सूरज, ये चंदा, ये हवा, ये छुअन, ये सब सिर्फ़ महसूस कर सकने की चीज़ें भी बिकने लगीं तो? अभी सिर्फ़ दो ही चीज़ें बिक सकती हैं जिन्हें मापना मनुष्य सीख गया है। जो सिर्फ़ रूह से महसूस की जा सकती हैं, अभी बिकाऊ नहीं हैं। जैसे झरनों से, नलों से निकलता पानी बोतलों में, थैलियों में, प्लास्टिक के गिलासों में बंद हो गया है। कभी धूप, छांव, बारिश, सर्दी, गर्मी, अंधेरा, उजाला भी हमारे घर की लिस्ट में जगह पा गया तो?
कैसा होगा, कभी किसी खुली-खिली धूप में, जो मेरा मन किया तो निकाल लिए, फ्रिज से बारिश के दो पैकेट और ले आई आंगन में भीगने के लिए। फिर चली आई अंदर बचती-बचती पानी से। पर फिर भागी, क्योंकि ख्याल आ गया कि कितनी खरीदी है, पूरी वसूल तो कर लूं। देखा असर, बेटे ने ये लाइनें पढ़कर कहा, मम्मा फिर तो कभी बाहर आवाज़ें आया करेंगी, बारिश ले लो, धूप ले लो, कोहरा ले लो, ठंडी हवा लो...। एकदम ताज़ा ऑरगेनिक बारिश है, पहाड़ों से मंगवाई है। और जो कभी जैसे आजकल गहरी, ठंडी, बर्फीली हवाओं और धुंध का मौसम हो और जाना भी बेहद ज़रूरी हो, तो हो सकता है कि धूप के ये पैकेट काम आ जाएं जो आपने एक के साथ एक फ्री स्कीम में खरीदकर रख लिए थे एडजेस्टएबल एंटीना के साथ।
इस धूप को गाड़ी के ऊपर या फिर लॉन टेबल के ऊपर कहीं भी फिक्स किया जा सकता है। जब बाकी लोग ठंड से कांप रहे हों तो इस धूप के टुकड़े के नीचे हाफ स्लीवस टी-शर्ट पहनकर इतराने की अलग ही शान होगी। पर जाने क्यूं औरों की ये कंपकपाहट मुझे एक सिहरन दे गई। फिर तो इन सब पर भी राशनिंग शुरू हो जाएगी। इनके दाम भी अख़बारों में छपा करेंगे। गरीब तो बेचारे घरों के बाहर धूप, छांव बीनते नज़र आएंगे और अमीर सर्द-गर्म से अपनी किसी नई बीमारी से ग्रस्त हुआ करेंगे। ओह प्लीज़! इतने छोटे से लेख में इतनी टेंशन देने का मेरा इरादा बिल्कुल नहीं था। मैं तो बस यूं ही...बहरहाल, मेरी सोच के साथ कुछ देर टहलने का शुक्रिया।
डॉ. पूनम परिणिता

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते.....

बस, जिन लोगों ने इन अल्फाज़ को रूह से महसूस किया है, उनके लिए सुरों का ये रिश्ता हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहेगा। वो तो बस एक बुज़ुर्ग, बीमार, गमों से आहत शरीर था जो चला गया, रूह को तो हम जब चाहें, उस असीम आवाज़ की बदौलत महसूस कर लें। याद करें वो वाक्या जब आप अपने हमसफर के साथ गाड़ी में किसी दूर की मंज़िल को तय कर रहे होते, यह शख्स चुपचाप पीछे लगे स्पीकर में गुनगुनाता हुआ आपके साथ चलता। तुमको देखा तो ये ख्याल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया।
जब तक जगजीत सिंह यह लाइन दूसरी बार गाते, आपकी हमसफर हौले से खिसक कर अपना सर आपके कंधे पर रख चुकी होती। और फिर मंज़िल तक पहुंचने की कोई जल्दी ना होती। गज़लें और मील पत्थर साथ-साथ चलते रहते और इनके अल्फाज़ और मखमली आवाज़ हमें किसी और ही जहां में ले जाती। ग़ज़लों के शौकीनों पर अक्सर गमज़दा, देवदास या गंभीर किस्म का होने के आरोप लगते हैं, लेकिन जगजीत सिंह की ग़ज़लों, गीतों के दीवाने उम्र और हर स्वभाव के लोग हैं। मुझे याद है कि घर की सफाई के समय गर साथ-साथ ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’ चल रहा होता तो सफाई ज्यादा आत्मीयता से होती।
और कहीं खुद की या बच्चों की कोई पुरानी चीज़ मिल जाती और उस वक्त पीछे बज रहा होता, ‘वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ तब यकीनन सफाई कहीं पीछे छूट जाती और बचपन सामने खड़ा खिलखिलाता रहता। ये इस आवाज़ की खूबसूरती थी कि ये हरफ अमर हो गए हैं। ये इस संसार में कभी-कभार आने वाली रूहानी शख्सियतें होती हैं जो खुद अपने गमों से भी दूसरों के लिए दवा बनाने का काम करती हैं।
बेटे के दुख से गमज़दा जगजीत सिंह ने ऐसी सूफियाना ग़ज़लें दीं, आदमी आदमी को क्या देगा, जो भी देगा बस खुदा देगा। और मेरे दु:ख की कोई दवा न करो। इन्हें कोई भी अपने गम में साझा कर सकता है। दरअसल आज के शोर भरे गीतों से दूर वो गए दशकों का माहौल भी शायद माकूल था, इन ग़ज़लों के लिए, जब सीधे-सीधे पूछने की बजाए किसी शांत वीराने में इन ग़ज़लों से ही पूछा जा सकता था कि झुकी-झुकी सी नज़र बेकरार है कि नहीं या तुम इतना जो मुस्करा रहे हो। आज कहां ढूंढे उस आवाज़ को, उस माहौल को, कहने की बात और है, दर्शन अपनी जगह है कि रूह महसूस करें, आवाज़ में डूब जाएं।
पर हकीकत यही है कि वो नहीं रहे हमारे बीच...इस सूनेपन पर भी उन्हीं की ग़ज़लें सवाल बन कर उठ रही हैं, ‘तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा।’ ‘शाम से आंख में नमी सी है।’ ‘ये बता दे मुझे ज़िंदगी।’ आखिर में ढेर सारी श्रद्धांजलि ग़ज़ल के उस बादशाह को और फिर उन्हीं का कलाम...हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते।
-डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी...

'मेरे पास से होकर, मेरी ज़िंदगी यूं निकल गई, जैसे कोई अजनबी हो पहचाना सा।’ ज़िंदगी यूं तेज़ कदम चलती पास से निकलती जा रही है, अब ये तो आप पर है ना, हौले से कभी जो कंधे पर हाथ रख कर रोकेंगे, पूछेंगे तो मुड़कर, रुक कर मुस्कुराएगी ज़रूर, आखिर तो आपकी ज़िंदगी है। तो फिर रोकिए, पूछिए, ‘सुनो...कैसी हो?’ जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा। फिर कहना, ‘कहां जा रही हो इतनी जल्दी में, बैठो कुछ देर मेरे पास, थोड़ी-थोड़ी चाय हो जाए।’ अगर उसके जवाब से पहले आपका मोबाइल बज उठा और आपने सिर्फ़ देखने भर के लिए भी उठा लिया तो वो बढ़ जाएगी आगे, बिना आपसे कुछ कहे। और फिर, जाने आपको ही दोबारा कब वक्त मिले अपनी ही ज़िंदगी से रू-ब-रू होने का। तो हर कॉल से पेशतर कभी ज़िंदगी का, दिल का, प्यार का राग भी सुनें।
टहलने जाएं दो घड़ी, अपनी ज़िंदगी के साथ। उस बचपन में जब, कभी कोई, यूं ही पूछ लिया करता था कि बड़े होकर क्या बनोगे? और आप भी जाने किसकी, किस चीज़ से प्रभावित हुए कह दिया करते थे फलां अफसर बनूंगा, लेकिन फिर तमाम हकीकतों से गुज़रते आज क्या बन पाए हैं? और क्या खुश हैं? जानती थी, बड़े घमंड से खुद को कह उठेंगे कि-हां, खुश हूं। आज मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है। पर ये सवाल को ज़िंदगी से था जो अभी चुप है, थोड़ी गुमसुम सी, क्योंकि पैसा कमाने से इतर और भी कुछ चाहा था ज़िंदगी ने आपसे। कभी दिल किया था, क्या, कि गिटार, हारमोनियम, तबला या बांसुरी बजाने आने चाहिए। कभी कोई बजाता दिखता है तो ज़िंदगी के तार बजते हैं क्या। या अपने बच्चे की एक मनुहार पर उसे खरीदकर ला दिया है, आपने ऐसा कोई वाद्य। तो यकीनन ज़िंदगी अभी तक लय में बह रही है।
कभी, यूं ही, रंगों से हाथ भरकर पेंटिंग के नाम पर घर की दीवारें, पुरानी सी शटर्स खराब कर मम्मी से डांट खायी थी क्या? या कभी आटर्स में मिला कोई सर्टिफिकेट आज तक किसी पुरानी फाइल में सहेज रखा है? और, क्या आज भी कभी अपने बच्चे के प्रोजेक्ट्स में, चाटर्स पर अपनी कला, अपने रंगों का असर छोड़ते हैं? तो इतमिनान रखें, आपकी ज़िंदगी बेनूर, बेरंग नहीं हुई है। क्या आज भी गाहे-बगाहे किसी महफिल में, पार्टी में, कभी सुर छेड़ देते हैं क्या? बस सिर्फ एक ही आग्रह पर, नृत्य कला का पूरा प्रदर्शन कर देते हैं? तो फिर बेफिक्र रहिए, ज़िंदगी में तरंग अभी बाकी है। ज़रा याद कीजिए, कभी डायरी में, हिस्ट्री की नोटबुक के पीछे, कुछ शेर नोट किए थे क्या? या कॉलेज मैगज़ीन में कोई कविता, आर्टिकल दिया करते थे क्या? बस फिर जो पैन रुका, क्या आज सिर्फ़ साइन करने के काम आता है।
पर फिर भी, क्या आज भी अखबार के साथ आई बच्चों की मैगज़ीन में कार्टून पढ़ लेते हैं। और हां, ज़िंदगी नाम से शुरू होने वाले आर्टिकल अपने ज़रूरी काम छोड़कर भी शौक से पढ़ते हैं क्या? फिर तो, जिस ज़िंदगी के साथ, अभी कुछ देर पहले, आप बस दो घड़ी टहलने निकले थे, वो कुछ देर थमकर आपसे खुद बतियाएगी। और फिर कुछ देर बाद कहेगी, सुनो...तुम्हारा मोबाइल बज रहा है। और हौले से मुस्कराते हुए कहेंगे, अरे, तुम बैठो ना थोड़ी देर और, वो मैं बाद में मिस कॉल चेक कर लूंगा। और फिर उसके जाने के बाद भी, आप देर तक खुद ही गुनगुनाते रहेंगे...ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है।
डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी कैसी है पहेली...

वो भी बस आम दिनों जैसा ही दिन था। वही दुनियावी कार्य निपटाए जा रहे थे। सुबह बेटे को स्कूल बस तक छोड़कर वापस आए तो सामने वाले शर्मा जी घूमने के लिए निकल रहे थे। वो जल्दी में मुंह फेर कर निकल गए, सो दुआ सलाम न हो पाई जो सुबह के समय अमूमन हो जाया करती थी। सोमवती, मौनी अमावस थी उस दिन। घर के काम करके ऑफिस पहुंची, सब कुछ और दिनों की तरह सामान्य ही था, जब तक कि शर्मा जी के बेटे का फोन नहीं आया कि आप जल्दी घर पहुंच जाओ, पापा बाथरूम में गिर गए हैं। मैं शहर से बाहर हूं, एक घंटे तक पहुंच पाऊंगा। मैंने सांत्वना देते हुए कहा कि चिंता मत करो, मैं पहुंच जाती हूं। फिर जाने क्या सोचते मैंने एक सहकर्मी को साथ आने को कह दिया।
शर्मा जी के घर पहुंचे तो देखा कि उनकी पत्नी और पुत्रवधू बुरी तरह घबराई हुई थीं और रोए जा रही थीं। शर्मा जी फर्श पर गिरे हुए थे। जल्दी में उन्हें हाथ लगाकर देखा, कुछ समझ नहीं आ रहा था। सहकर्मी को उन्हें आगे से पकडऩे को कहा। हम सब ने बड़ी मुश्किल से पीछे से पकड़कर गाड़ी में लिटाया। घर से अस्पताल का सफर बामुश्किल चार मिनट का होगा। उस दिन इतना लंबा हो गया। वहां पहुंचकर स्ट्रेचर लेने भागे और शर्मा जी को स्ट्रेचर पर लिटाने के लिए दो लोगों से निवेदन करना पड़ा। जब तक आहत हमारा जानकार न हो, सहज मदद को कोई आगे नहीं आता। डॉक्टर ने जल्दी से प्राथमिक मुआयने में ही बता दिया कि अब कुछ शेष नहीं है। इस तरह के हालात से मैं पहली बार गुज़र रही थी। बस इससे बड़ा सच भी कोई नहीं है। इससे बड़ा झूठ भी कोई नहीं है। किसी का पिता, भाई, पति, ससुर, रिश्तेदार यहां विश्वास है कि जबकि, जब तक खबर न दी जाए, उनके लिए यह कि ज़िंदा है, बस इसी वहम में जीए जा रहे हैं हम सब। बस उसके बाद तो अन्य कर्म शुरू हो गए। खबर मिलते ही सब आ गए।
शर्मा आंटी का बुरा हाल था। सब उनसे पूछ रहे थे, बीपी, शुगर था क्या? पहले कभी अटैक हुआ था? वो मना किए जा रही थीं। कुछ नहीं था, बिल्कुल ठीक थे। बगीचे में काम कर रहे थे। हाथ-पैर धोने बाथरूम में गए थे कि...। कुछ कह भी नहीं पाए। सुबह कह रहे थे कि मौनी अमावस है, बड़ा अच्छा दिन होता है, इस दिन कम बोलना चाहिए या मौन रहना चाहिए। इसलिए खुद भी कम बोल रहे थे। पितरों को तर्पण भी किया था। गाय को रोटी भी दे आए थे। कोई कह रहा था कि आदमी बीमार होकर जाए तो इलाज वगैरह करवाए। कुछ दिल की कह जाए। मैं सोच रही थी, दिन भर के इतने झमेलों में क्या कभी हम सोच पाते हैं कि मृत्यु क्या है? कब होनी है? हम कितने करीब हैं? बस जब किसी का क्रिया-कर्म देखते हैं, तभी क्षण भर भले ही खुद को उसकी जगह धरती पर लिटा लें, परंतु तभी फर्श ठंडा लगने लगता है और अनायास ही हम खुद को वहां से उठा लेते हैं। कभी आपस में बात करते भी, मरने की बात आते ही एक-दूसरे के मुंह पर हाथ रख देते हैं। कैसी मनहुसियत की बातें लगती हैं ये। पर आखिरी सच तो है ये।
मैं चाहूंगी कि मेरे मरने पर मेरी आंखें दान कर दी जाएं। और मेरी देह भी मेडिकल कॉलेज को दे दी जाए। पर ये भी सच है कि कभी इन सबके लिए नामित कोई फार्म आज तक मैंने नहीं भरा है। बस कहा भर है। दरअसल, सोचा भी नहीं जाता मरने के बारे में, दिल ही नहीं करता। मन करता है बस, खेलते रहें ज़िंदगी की इस पहेली के साथ, सुलझे न सुलझे, पर साथ तो रहे। लड़ें, झगड़ें, रूठे, माने, हंसे, रोएं, जीते, हारें पर चलते रहें, भागते रहें। मिट्टी की इस देह में हवा से, पानी से ज़िंदगी की नमी बनी रहे।
डॉ. पूनम परिणिता

वक्त ने किए क्या हसीं...

पिछले हफ्ते काफी मसरूहफियत रही, ज़ेहनी तौर पर भी और यूं भी। शहर में एक बेहतरीन आयोजन हुआ। पेरेंटिंग पर था, लेकिन अटैंड नहीं कर पाई। मन बहुत था इसमें शामिल होने का और जानने का कि क्या पढऩा, सुनना, वर्कशॉप और दूसरों का अनुभव खुद के बच्चों को पालने में सहायक हो सकता है। वक्त इस कदर बदल चुका है कि हमारे समय की कहावतों तक को बदल देने का टाइम आ गया लगता है। कारण-आज के परिवेश में बेमानी सी हो गई हैं वो कहावतें।
अब देखिए, एक वक्त था जब कहा जाता था कि मां तो वो होती है जो खुद गीले में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाती है। पर अब आलम ये है कि बच्चे को ड्राइपर पहनाकर मां खुद चैन से सोती है और बच्चा गीले में सोते हुए भी टेक्नीकली सूखे में आराम से सोता है। मतलब साइंस ने त्याग का ये स्कॉप छीन लिया। और जिसे मां का ममतामयी आंचल कहा करते थे, वो बेचारा कहीं ढूंढे नहीं मिलता। वो स्कूटी चलाती सुपर मॉम के सिर, चश्मे और मुंह के इर्द-गिर्द कुछ यूं उलझा सा लिपटा है कि स्कूल से छुट्टी के वक्त लेने आई मां को बच्चे तक नहीं पहचानते, जब तक आवाज़ लगाकर बुला न ले। एक और कुठाराघात मां और बच्चे के स्नेहमयी रिश्ते पर ये भी कि एक नया अजीब का चलन देखने में आ रहा है।
आजकल के एक्स जेनरेशन बच्चे अपने बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड को ओ...मॉय बेबी कहकर बुलाते हैं। फिर यही चलन कमोबेश नए अभिभावकों में भी जारी रहता है और बच्चा बेचारा कंफयूकान में रहता है कि मम्मा मुझे बुला रही या पापा को? और घर में दरअसल बेबी है कौन? आजकल के ये बच्चे भी शुरू से ही इलेक्ट्रॉनिकली साउंड पैदा हो रहे हैं। आप बच्चे के सामने नोकिया-5800, एन-70 और नोकिया ल्यूनिया रख दें। वो पहले वाले मोबाइल को तो बायीं लात मारकर बैड से गिरा देगा, दूसरे को एक बार उलट-पलट कर देखेगा। तीसरे को उठा, ऑन और स्टार दबा अनलॉक करके झट से गाना लगा देगा, वॉय दिस कोलावरी...आ...डी।
तो इस तरह के बच्चों के लालन-पालन के लिए बेशक आपको पढऩा, सुनना और वो सब करना पड़ेगा जो आपको पालते हुए बिल्कुल नहीं किया गया था। पर पता नहीं, पेरेंटिंग टिप्स, क्वालिटी टाइम, ट्रस्ट योर किड्स और सबसे ऊपर स्पेस नामक शब्दों में, बस एक ज़रूरी शब्द कार में पीछे कहीं स्टेपनी के पास रखा नज़र आता है जिसे कहा करते थे संस्कार। जिसे हमारे माता-पिता अक्सर रोज धो-पोंछकर सबसे ऊपर रखते थे। देखिए इन सब में बुरा जो देखन चलेंगे तो कबीर साहब खुद आपको ही शर्मिंदा कर देंगे। सो बस दुनिया है, चलन है, आपका खुद का बच्चा है और खुद की जवाबदेही है, दिखावे पर मत जाओ...
और हां, मां पर कहावतों में आखिरी बात, हमारे वक्त में अमिताभ यूं आंखें भरकर और धर्मेंद्र कुछ यूं नाक फुलाकर मां...कहते थे कि इमोशनस बह-बहकर बाहर आती थी। आजकल की फिल्मों में दीपिका पादुकोणे यूं घनघनाती कह कर बाहर निकल जाती है-आयशा, खाने पर वेट मत करना। आज शाम पार्टी में दोस्तों के साथ लेट हो जाऊंगी। जैसे आयशा को कुछ साल के लिए मां के काम पर रखा हो। बहरहाल, अपने कीमती समय में से कुछ क्वालिटी टाइम मुझे और मेरे आर्टिकल को देने का शुक्रिया।
-डॉ. पूनम परिणिता

गुलों में रंग भरे, .......

यह एक पाती है, दुखी मन के उस कोने के लिए, जिसमें गज़लें बसती हैं, बूढ़े, बेसहारा, अकेले हुए मां-बाप सी। अंदर से तो दरवाज़ा अक्सर बंद ही रहता है। गाहे-बगाहे कभी-कभी कोई दर्दभरी आवाज़ सी सुनाई देती है, बेशक वो ग़ज़ल ही है। गुनगुनाए कोई भी, जगजीत, तलत, हेमंत, गुलाम अली या मेहदी हसन।
एक पर्सनल मैसेज और अख़बारों के माध्यम से पता चला कि जनाब मेहदी हसन इस समय बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं। फेफड़ों के संक्रमण और पीठ पर बिस्तर से हुए घावों से पस्त हसन साहब मौत से लगातार लड़ रहे हैं। मैं चाहती हूं कि अपनी तमाम ताकत बटोरकर वह इसे एक ज़ोरदार पटकनी दें। कुश्ती जैसे खेलों में दायरे के बाहर खड़े और अपने प्रत्याशी को जिताने के लिए जोश भरते लोग कभी-कभी चमत्कार जैसा काम करते हैं। बस हम भी यूं ही अपनी दुआओं का शोर उस तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे, जिसके हाथ में सुना है सबकी डोर है।
सब जानते हैं कि इस दुनिया, रैन बसेरे में हमेशा के लिए रहने कोई नहीं आता। कोई स्कोप भी नहीं है। ये भगवान, अल्लाह, यीशु, वाहेगुरु, कहने को ही नहीं, सब एक हैं। सब मिलकर खेलते हैं आदमी-आदमी। 13 जनवरी को एकबारगी अफवाह थी कि...लेकिन बाद में हसन साहब के बेटे ने ख़बर दी कि अल्लाह के फज़ल से हसन साहब ठीक हैं और दवाएं अपना असर दिखाने लगी हैं। यह उसी खेल जैसा था जिसे बचपन में हम विष अमृत कहते थे। गोया कि अल्लाह ने हौले से हसन साहब के सर पर हाथ रख कर कह दिया अमृत। हम उनकी लंबी पारी की कामना करते हैं।
क्या बिस्तर पर अकेले में भी वो महफिल ही न लगा बैठे होंगे? उनकी हिंदुस्तान आने की 2009 की तमन्ना दिल में ही रह गई। ज़िंदगी भर उस मिट्टी की उतनी तड़प नहीं होती, जितनी कि यूं इस तरह तन्हाई में होती है। राजस्थान के लुना की मिट्टी कहीं यूं ही तो नहीं कह रही होगी-‘आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।’ वर्ष 2010 में लता जी और हसन साहब की एक ड्युट एलबम बनी जिसका नाम है ‘सरहदें’। इतने मुलायम मीठे और शहद से बोल भी कहां मिटा पाए ये सरहदें।
मैं महसूस करती हूं एक मुशायरा हसन साहब के बिस्तर के आसपास, लता जी प्यार से उनके बोलों को सहलाती हुई गा रही हैं-मैं जागू तुम सो जाओ। ताकि वो दर्द से राहत पा सकें। अमिताभ उनकी चादर को ठीक करे हों, हसन साहब खुद धीरे-धीरे गुनगुना रहे हैं-गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले। इन दो शख्स से मिलने की तमन्ना में वो हिंदुस्तान बार-बार आना चाहते हैं। कहीं कोई एंबेसी है जो सिर्फ दिलों की दास्तान जानकर वीज़ा दे दे या कोई विमान सेवा जो बस दिलों की हुकूमत से चले कि जब जहां जिससे चाहा मिले और सुना आएं हाले-दिल।
बहरहाल, कभी नहीं चाहूंगी कि हसन साहब ऐसी सुर्खियों के साथ खबर में आएं कि-‘अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें’...खुदा आपको लंबी उम्र और सेहत बख्शे।
डॉ. पूनम परिणिता

तू कहे तो ‘मैं’ बता दूं...

कहीं पढ़ा था कि निर्णय लेने की क्षमता महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती है। भई, ये सच भी है और रोज़ का अनुभव भी, बल्कि हमारी ये क्षमता कठिन निर्णयों के मामलों में और भी बढ़ जाती है। याद कीजिए, एक छोटा सा निर्णय लेना था, लोकपाल बनेगा या नहीं बनेगा। फैसला करने में कितने महीने लगा दिए। और वो तो तब, जबकि जवाब हां या ना में चाहिए था। और यहां लाखों महिलाएं एक ही सवाल से दिन में तीन बार, रोज़ाना जूझती हैं कि आज सब्जी में क्या बनेगा? और हर बार एक नए जवाब के साथ कुछ नया पेश करती हैं।
कहना बड़ा आसान है, धत गोभी ही होगा। पर वो साल में 1095 बार इस सवाल का जवाब तलाशती हैं। पढ़कर मुस्कुरा देना सहज है। ज़रा दिल पर हाथ रखकर पूछिए कि कौन कितनी बार मदद करता है, इन अबलाओं की।
बच्चों से पूछो तो नूडल्स, पास्ता, मैकरानी सौ चीज़ें गिना देंगे, पर एक सब्जी का नाम नहीं बताएंगे। पति को फोन करो...देख लो...बना लो...जो दिल करे। बस यही पूछने के लिए फोन किया था? कहीं दोबारा पूछ लो तो कहेंगे, सुबह नाश्ते में क्या था? ये एक और वार घायल दिल पर। कितने दिनों बाद, कितनी मेहनत से, कितने दिल से स्टफड बैंगन बनाकर खिलाए थे, नाश्ते में। अभी दो घंटे भी नहीं हुए हैं कि बोल रहे हैं कि नाश्ते में क्या था।
बड़ी हिम्मत करके तीसरी बार भी पूछ लिया तो वो रामबाण जवाब मिलेगा...अच्छा मैं करता हूं, दो मिनट बाद। बस इसके बाद तो आप भी जानते हैं और मैं भी। ये निर्णय लेने में सहायक कोई नहीं होता, उल्टा घर में कुक है या बाई है तो वो पूछ-पूछकर परेशान कर देते हैं-हां जी, क्या बनाना है? अगर कोई अल्लाह का बंदा है तो वो सब्जी वाला भईया, जो ये कह कर कि मैडम सीज़न की नई सब्जी लाया हूं, बड़ी राहत देता है।
बस यूं ही तेज़ धारदार निर्णय लेते हुए भी हमारी क्षमता निखरती जाती है। एक और बेहद ही पेचीदा निर्णय रोज़ लेना पड़ता है और ये तो पहले वाले सवाल से भी कहीं अधिक काबिलियत को परखता है। और वो है कि क्या पहनुं...कोई अच्छी ड्रेस है ही नहीं। तो क्या हुआ, जो घर में मौजूद छह अल्मारियों में से चार में आपके ही कपड़े सुशोभित हैं, क्या हुआ जो आपकी रोज़मर्रा की, पार्टी की, ऑफिस की ड्रेस करीने से लगी दिख रही है।
पर प्रश्न तो अपनी जगह खड़ा है कि क्या पहनुं, मेरे पास तो कुछ है ही नहीं। ओह, फिर मदद नो कोई नहीं है। बच्चे से पूछो, बोलेगो वो ऑरेंज वाली पहन लो। पूछो कौन सी? ऑरेंज साड़ी नहीं...जींस और फिर कंप्यूटर गेम्स पर नज़रें गड़ा देगा। मैं जानती हूं कि मेरे पास ऑरेंज जींस नहीं है, पर सोच तो सकती हूं एक नई ले लूं। पीच वाले टॉप के साथ अच्छी लगेगी शायद, लेकिन प्रश्न अभी तक निर्णय के इंतज़ार में है। पति से पूछो...वही जाना-पहचाना, राजा-महाराजाओं का जवाब...कुछ भी पहन लो, हर ड्रेस में अच्छी लगती हो।
आपसी संबंधों की सेहत के लिए बहुत अच्छा है, पर महिलाओं को चिढ़ है इस टालु जवाब से। यूं ही नहीं लिया जाता निर्णय इस टेढ़े सवाल का, बंद कमरे में शीशे के सामने कितनी ही ड्रेसेस लगा-लगाकर देखनी पड़ती हैं। कौन सी, कब, कहां, कितनी बार पहले पहनी जा चुकी है। सारा हिसाब लगाकर, बहुत सोच समझकर ही आखिरी निर्णय लेना होता है। और भी ·ई निर्णाय· सवाल होते हैं। मसलन, बची हुई सब्जी बाई को कब देनी है, बच्चों के छोटे हुए कपड़े कहां, किसको देने हैं। कौन की सेल कब खत्म होनी है। बस यूं ही रोका इतने बड़े-बड़े निर्णयों से गुज़रते देश, दुनिया के बारे में निर्णय लेना चुटकियों का काम लगता है।
तभी तो जो निर्णय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते हुए भी नहीं ले पाते, हम ले लेती हैं मिनटों में। यूं ही नहीं विराजमान हैं हम, पेप्सीको, आईसीआईसीआई बैंक के सीईओ की कुर्सी पर। कुछ तो बात है हममें, हमारे निर्णयों में।
-डॉ. पूनम परिणिता

मेरे घर आना...ज़िंदगी

नए साल की एक नई सुहानी सुबह। नया कलरव, नया कलेवर। नए संकल्प, नए संयम, नए नियम। बस कुछ पुराना है तो वह हैं हम। न सिर्फ पुराने, बल्कि एक साल और पुराने हो चले हैं।
फिर भी, इस पुरातन से ही, नए का स्वागत तो करना ही होगा।
पिछले कुछ साल से मेरे साथ तो ये दिक्कत हो चली है, जाने उम्रदराज़ी है या सभ्य शब्दों में कहा जाए मेच्योरिटी या कि अक्ल दाढ़ों से अक्ल रिस-रिसकर बाहर आ रही है। मैं कुछ चुप हो चली हूं। कुछ ‘समझदार’ सी। कम बोलना भाने लगा है। सुनने की इच्छा ज्यादा होती है, पर अच्छा सुनने की। लोगों को इतना बोलते और व्यर्थ बोलते देखकर कोफ्त होने लगी है। बनावटी बातें, शहद लिपटे व्यंग्य-बाण, बेकार के तर्क और सबसे बढ़कर औपचारिकता निभाने की रस्मी बातें। हैलो...हां जी, नया साल मुबारक हो...हां जी...आपको भी। बात तो इतनी सी है, फिर उसके बाद! और...बस...।
समझते सब हैं कि इसके बाद की जितनी बाते हैं, उन्हें आप ऊपर लिखी किसी कैटेगिरी में डाल सकते हैं। सब महज औपचारिकता है, आपके आपसी संबंधों की व्याख्या मात्र। दिल किसी का नहीं करता, पर चूंकि मोबाइल के दूसरी तरफ जो कान है, उससे आपका लेना-देना ज़रूर है, वो भले ही कोई व्यावसायिक है, आपका सहकर्मी है, आपका बॉस है या आपका रिश्तेदार। सो आपको ओके कहने तक का सफर तो तय करना ही होगा।
कुछ यही बात गिफ्ट और अन्य भेंटों की भी है। दिल करे या न करे। मुझे आपसी भेंट (मेल-मिलाप) और देने वाली भेंट में भी सामंजस्य लगता है। वही दिल करे न करे, लेन-देन करना पड़ता है।
कल ही कोई बोल रहा था कि ‘मैन इज़ ए एनिमल’। बस सोसायटी में रहने की वजह से ‘सोशल’ हो गया है। और वो सब नहीं कर पा रहा जो वो एनिमल रहते कर सकता था। और इसी वजह से परेशान सा है।
देखने, सुनने, बोलने के निमित बनाई गई इंद्रियों में क्रमश: चश्मा, हेडफोन और मोबाइल फोन लगे हैं। हाथों में स्टेयरिंग है, पैरों में रेस है। सोचने के लिए कंप्यूटर है, सो दिल और दिमाग खाली-खाली से हैं। ऐसे में जीना क्या है और ज़िंदगी कहां है ये एक शोध का विषय है।
कहीं, कोई कुल पल ठहरे तो, रुककर सुने तो। पर उसके लिए तो पैर को ब्रेक पर लाना होगा, हाथ को न्यूटरल पर, कान से हेडफोन हटाने पड़ेंगे, मोबाइल को म्यूट करना पड़ेगा और शरीर नामक इस मशीन को फैक्टरी के डिफाल्ट मोड पर लाना होगा। काम थोड़ा पेचीदा ज़रूर है, पर सुकूनभरा भी है।
नए साल के लिए कुछ नया नहीं सोचा है। बस जो है, जैसा है, चलता रहे तो बेहतर। बस ज़िंदगी से दरकार है बहती रहना, यूं ही अविरल। सब चीज़ों, सब कामों से पेशतर बस ज़िंदगी की दस्तक ज़रूरी है। हर साल, साल दर साल मेरे घर आना...आना ज़िंदगी।
डॉ. पूनम परिणिता

बचपन के दिन...

 जानते हैं दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य कौन सा होता है, वो जब आपका बच्चा स्टेज पर अपनी परफोरमेंस दे रहा होता है या किसी भी प्रतियोगिता में अपनी श्रेष्ठ उपलब्धि के लिए पुरस्कार ले रहा होता है। बस, तभी कहीं अनजाने ही हल्का सा गुरूर सा हो आता है अपने-आप पर। उसके अभिनय में, उत्कृष्टता में मन ढूंढने लगता है अपना बिंब, अपना श्रेष्ठ और पिछले मोड़ पर, कहीं दूर छूट गया अपना बचपन। आजकल, आम स्कूलों की बिल्डिंग भी इतनी बड़ी हैं कि लगभग हर माता-पिता का अपने बच्चे को बड़े स्कूल में पढ़ाने का सपना पूरा हो गया लगता है। फिर शहर के बड़े स्कूलों की तो बात सचमुच ही निराली है।
स्कूल के ऑडिटोरियम की तरफ जाते एक दंपति को अपने बुजुर्ग को स्कूल का वर्ग गज एरिया बताते सुना। ऐसा भी है ना कि हम अपने बच्चों को अगर अनोखी सुविधाएं उपलब्ध करवा रहे हैं तो अपने थोड़े से दंभ के आवरण के नीचे, कहीं अपनी छोटी सी शिकायत भरी अर्जी भी दर्ज कराते हैं कि भई देखो, इसे कहते हैं बच्चे पालना। हम तो बस पाल दिए यूं ही आप लोगों ने, बल्कि पल गए यूं ही। ये सब बस अंजाने में हो जाता है। जान-बूझकर तो हम बड़े ही सभ्य और आदर्श व्यक्ति होते हैं। जीवन का अस्सी प्रतिशत हिस्सा हम सपने देखते गुजारते हैं, वो अलग बात है कि इसमें से आधे सपने हम सोते हुए देखते हैं और बाकी के आधे जागते, खुली आंखों से। बस यूं ही स्कूल के प्रांगण से गुजरते जब स्कूल के हैड ब्वॉय, स्पोट् र्स कैप्टन, प्रीफेक्ट या किसी भी हाउस हेड को देखते हैं। फिर से ढूंढते हैं उसमें अपने बच्चे का चेहरा। हम उसे एक ही समय में हर जगह देखना चाहते हैं। हर उपलब्धि का बैज उसके सीने पर लगा हो, भले ही उसका सीना अभी इस लायक ही ना हुआ हो कि इतने सारे बैज इकट्ठे लगाए जा सके।
चलिए अब थोड़े शांत हो जाइए। कार्यक्रम शुरू होने वाला है। ये वक्त बड़े स्कूल के बड़े ऑडिटोरियम को देख कर अभिभूत होने का है, वो तमाम पिक्चर्स याद करने का, जिसमें हीरो बचपन में स्टेज पर गाना गा रहा है और भारी भीड़ तालियां बजा रही है। अगर फिल्में ना होती तो हमारे सपने इतने रंगीन कभी ना होते। कार्यक्रम की शुरुआत स्वागत गीत से है, सब बच्चे आ चुके हैं स्टेज पर। तभी पीछे से सुना, वो दाएं से पांचवें नंबर वाली मेरी बिटिया है, वो जिसने बाल खुले छोड़े हैं, जबकि जिसे बताया गया, उसका इंटरेस्ट सिर्फ इस गीत के बाद होने वाले नाटक में है जिसमें उसका बेटा एक्ट करने वाला है। तभी मेरे साथ बैठी एक छोटी बच्ची हाथ हिलाकर चिल्लाने लगी नॉय भईया, भई....ई....या....। भइया अलबत्ता समझदार निकला, स्टेज से मुस्कुरा भर दिया।
फिर तो दो तीन आवाज़ें और शुरू हो गई। शैरी दीदी, बंटी भैया, पर जल्द ही सारी आवाजें स्वागत गीत में खो गईं। स्वागत गीत के शब्द सुनते ही मैंने भी जल्दी ही बता दिया, हम भी गाते थे स्कूल में ये ही वाला। और तो और साथ गाने भी लगी और प्रमाण देने के लिए आगे के बोल पहले ही बता दिए। ये सब अनजाने ही हो गया। एक कोहनी लगते ही मैं वापिस अपनी सभ्य अवस्था में आ गई। सभ्य मोड, मोबाइल के साइलेंट मोड जैसा ही होता है। जिसमें समझ में सब आता है, पर मूक रहना मशीनी मजबूरी होती है। इसके बाद वो नाटक शुरू हो गया, इंग्लिश में था। अगर पहले से उसका हिंदी अनुवाद ना सुना हो या आपका बच्चा उसमें एक्ट ना कर रहा हो, तो वो समझ में आना मुश्किल है। बस सब दम साधे अपने बच्चे के आने का इंतजार करते हैं और उसका पार्ट खत्म होते ही नाटक के खत्म होने का इंतजार करते हैं। स्कूली कार्यक्रमों का समापन हमेशा राष्ट्रीय गान से होता है जिसे गाना मुझे बहुत पसंद है। पिछले दिनों हमारे राष्ट्रगान को दुनिया का बेहतरीन राष्ट्रगान चुना गया है। यूं ही जलेबी बाई के इस दौर में कुछ तो है जो खालिस है।
-डॉ. पूनम परिणिता