तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे...

मेरे हिसार में भी, एक हिसार है
बस मुझे ही न पता था।
कल वो अचानक वहां नम्बूदार हुआ
कुछ लफ्ज़ थे, दो सितारे थे, आधा चांद था।
तब मुझे उस हिसार का दीदार हुआ।
ये महज कोई अफसाना नहीं है, बल्कि, मेरी ही नहीं ये सबकी हकीकत है। कल जिस हिसार से हम रूबरू हुए, वो उससे बिल्कुल जुदा था, जिसे हम रोज लोगों के समन्दर में सरसरी निगाह से देखते भर हैं। शायद ये उसी का असर है कि मैं भी थोड़ी सुफियाना हो चली हूं। बहरहाल ये जि़क्र 17 मार्च की उस मखमली शाम का है जो हमने पद्मश्री पूर्ण चंद और प्यारे लाल वडाली के सान्निध्य में गुजारी। बेहतरीन। ये वही अनुभव था, जब कभी यूं ही जीते-जीते, कोई पता लग जाता है, कि हां सचमुच जी रहे हैं।
हम आप हजारों बार गुजरे हैं उस राह से, बस, कोशिश ये होती है, कि इस भीड़-भाड़ को किसी तरह जल्दी पार कर लें। गुजरी महल की दीवार के साथ चलते-चलते, इस ऐतिहासिक धरोहर का हमारे पास कभी एहसास तक नहीं हुआ। पर कल शाम इस दुर्ग में बड़े-बड़े पत्थरों से होकर भीतर जाते, इसे निहारते एक गुमान सा हो आया अपने शहर पर। तो पहला सलाम तो उस सोच को जिन्होंने ऐसी कल्पना की और दूसरा उन तमाम शख्यितों को जिन्होंने इस सोच को अमलीजामा पहनाया। ये आर्टिकल उनके लिए तो है ही जिन्होंने ये शाम मेरे साथ होकर गुजारी, पर उनके लिए ज्यादा जो वहां हो न सके। तो आप भी चलें मेरे साथ इस बड़ी-बड़ी दीवारों की रहगुजर से। गेट से थोड़ा अन्दर जाते बाएं हाथ को कुछ सीढिय़ां नीचे की ओर जाती हैं, जहां लिखा है तहखाने। पढ़ते ही इसकी तहों में बेसाख्ता जाने को मन करेगा, पर अभी वक्त नहीं है, थोड़ा सीधा चलकर हल्का सा दाएं मुड़ फिर ऊपर की ओर जाना है। पत्थरों पर बिछे हरे कारपेट सुविधाजनक तरीके से ऊपर महल की छत तक ले गए। अब यहां उजली सी शाम और धुंधली सी रात दोनों बेताब, अगर मौका मिले तो दोनों हाथ खोलकर, आंखें मूंदर कर, एक लम्बी सांस लें, फिर उसे जिंदगी भर के लिए सहेज ले अपनी भीतर। थोड़ी देर में जब लोग इकट्ठा हो स्टेज की तरफ जाने लगे तो पता चला कि वडाली बंधु पहुंच गए हैं। और कुछ ही देर में उन्हें अपने सामने पाया। सुना है बड़े भाई पूर्णचंद पहले अखाड़े में कुश्ती लड़ा करते थे। शायद इसीलिए उनके व्यक्तित्व में कहीं खालिस मिट्टी का कोई कतरा है, बिल्कुल अनगढ़ सा कोरा। आजकल की सेलीब्रेटीज से इतर बिल्कुल शांत, सरल स्वभाव, दो अन्तर्मन सूफी कलाकार हमारे बीच थे। ‘एक पल में हजारों हज हो गए जब तेरी दीद हो गई। तुझे तकया तो लगा मुझे ऐसा कि जैसे मेरी ईद हो गई।’ और ये भी कि ‘रात उनको भी यूं महसूस हुआ जैसे ये रात फिर नहीं होगी।’ खुद प्यारे लाल वडाली ने शुरू में कहा कि उन्हें गाना नहीं आता, सीख रहे हैं, आप सबके आशीर्वाद से गुनगुना लेंगे। और ये भी कि हमारी हिन्दी में पंजाबी मिक्स है, शायद समझने में दिक्कत आए। पर बिल्कुल नहीं आई क्योंकि दरअसल लफ्जों का इस्तेमाल हुआ ही नहीं, उन्होंने जो रुह से गाया, हमारी रुह को साफ-साफ समझ आया, कहीं बीच में भाषा की दीवार न हुई। हम बस सुनते रहे शब्दों की दरकार न हुई। एक के बाद एक नायाब शेर, सीधे फलक को जाते अलाप और तान, हारमोनियम, तबले और ढोलक की सीधी सरल थाप, शागिर्दों की तालियां, सब कुछ हमेशा शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। जमीं से थोड़ा ऊपर, खुले आकाश तले, वो गा रहे थे और सब सुन रहे थे, कल ही लगा कि आरती, पूजा, नमाज से इतर कभी-कभी सज़दा यूं भी किया जा सकता है। मैंने महसूस किया, जब वो सुना रहे थे, तब आसमां में आधा चांद, वो उसके पास वाला सितारा, कुछ फरिश्ते और वो खुदा, बस आंखें मूंदे सुन रहे थे, बोल थे ‘खुसरो रैन सुहाग की जो जागी पी के संग, तन मोरा, मन मोरे प्रीतम का, दोनों एक ही रंग।’ मैंने महसूस किया जब वो गा रहे थे ऊंची डयोढ़ी मेरे ख्वाजा की, तब, निजामुद्दीन औलिया, गुरु फरीद, आमिर खुसरो, बुल्ले शाह और शाहबाज कलन्दर सब एक-दूसरे की बांह पकड़े, सहारा देते एक-दूसरे को सीढिय़ों से ऊपर छत पर ला रहे थे। मैंने महसूस किया जब दमादम मस्त कलन्दर पर धमक तेज होने लगी थी। नीचे महल में गुजरी और तमाम रक्कासाएं नाच रही थी, दरबारी मुग्ध हो रहे थे। और सुल्तान फिरोजशाह तुगलक खुश थे कि फलक पर खुदा, जमीं पर दरबारी और वहां महल की छत पर उनकी रियाया सब खुश हैं।
-पूनम परिणिता 9468322525

गिव मी सम सन शाइन,सम रेन!

पिछले दिनों की बात,जब मैं फिल्म देखने गई थी। हल्की से कुछ ज्यादा ही ठंड थी। इतनी कि हाथ बार-बार जेब से बाहर निकाले जाने पर बुरा मान रहे थे,फिर एक-दूसरे से रगड़ कर अपना गुस्सा भी दिखाए देते थे। वहीं मैंने,बाहर ही, दो स्कूल बोर्डिंग लड़कियों को देखा, स्कूल यूनिफार्म में जो अच्छी लग रही थी। ब्राउन ब्लेजर और घुटनों से चार इंच ऊंची स्कर्ट। सर्द ठंडी हवा उन्हें तो साइड से क्रॉस कर जाती, मुझसे सीधी टकरा रही थी, शायद इसलिए भी सर्दी बढ़ती जा रही थी। उसके बाद वो मुझे दिखाई नहीं दी।
फिर बाद में वो मुझे हाल में दिखाई दीं, मुझसे तीन सीट आगे की रो में बैठी थीं। फिल्म मिस्ट्री थी, सो मैं उसमें खो गई। वो तो इंटरवेल के समय मुझे आसपास का भान हुआ तो मैं उठकर उनकी सीट तक जा पहुंची। हाय, मैं पूनम परिणीता..., हैलो..., दोनों ने मुझसे हाथ मिलाया। आपका नाम..., आई...म... मनीषा, दूसरी वाली ने अलबत्ता अपना चेहरा ब्लेजर के कॉलर में छुपाने की कोशिश करते हुए कहा कि मैं काजल। मैं यहां सही नाम इसलिए दे रही हूं क्योंकि जानती हूं, स्मार्ट जनरेशन ने नाम खुद ही मुझे बदल कर बताए होंगे। आज स्कूल नहीं है क्या? मेरा अगला प्रश्न था। वो...बंक किया है। अच्छा, तो कैसा लग रहा है, इज इट फस्र्ट एक्सपीरियंस? यह..., दोनों कहते हुए अपना उत्साह छुपा सा गई। सो, इन्जोयड मूवी एन्ड फस्र्ट एक्सपीरियंस।
नो...मनीषा ने कहा, अच्छा नहीं लग रहा। हम्म, मैं अंदर से इस बात पर सहमत नहीं हुई थी। घर पर किसी को पता है कि आप लोग यहां हैं। नहीं...। पर मम्मी को बता देंगे जाकर। अच्छा... कैसा लगेगा मम्मी को जान कर कि, बेटी ने उनका विश्वास तोड़ा है। मम्मी तो कभी एक सहेली के पास फोन करके वेरीफाई करने की कोशिश करें तो आसमान सर पर उठा लेती हो ना, कि मम्मा आप मेरी जासूसी मत किया करो। वाय डोन्ट यू ट्रस्ट मी। तो, आज ये सुन कर मम्मी नाराज नहीं होगी? मम्मी को पटाना आता है हमें, मना लेंगे। लगभग बेशर्मी से कहा था मनीषा ने।
अच्छा एक बात बताओ, अगर आते-जाते रास्ते में, कोई मिसहैप हो जाए, या यहां हाल में कोई आपसे बदतमीजी कर बैठे तो। सुना है, पिछले दिनों अपने यहां हिसार में दो लड़कियों को सरेआम काट डाला गया है। हां, सुना तो है... इस बात पर वो थोड़ा सहमी जरूर थी। बोली कुछ नहीं। अच्छा, फस्र्ट एक्सपीरियंस के नाम पर और क्या-क्या ट्राई करना चाहती हो, (हालंकि मैं खुद सोच रही थी, कि कहीं इन्होंने राक स्टार फिल्म वाली हीरोइन की फेहरिस्त गिनवा दी तो), नहीं... कुछ नहीं। ये भी आगे से नहीं करेंगे।
अब ये झिझक थी, डर था या फिर मुझे वहां उठाने के लिए रिलक्टेन्ट एटीट्यूड, ये मैं जान नहीं पाई। पर फिर भी, स्मार्ट जनरेशन की मम्मियों को थोड़ा स्मार्ट बनने की जरूरत तो है। बच्चियों से प्यार से, गुस्से से, मित्रता से, उनकी दिनचर्या, दोस्तों, स्कूल की एक्टिविटीज के बारे में पूछती रहें। थोड़ी जासूसी जरूर करें। इतना धोखा बच्चों को जरूर दें, जितना वो आपको दे रहे हैं। गिव मी सम सन शाइन, गिव मी सम रेन। इसके मायने थोड़े बदल दें। प्यार की बारिश की बारिश के साथ, थोड़ी गुस्से की धूप भी जरूरी है। बहुत बार ज़िंदगी दूसरा चान्स नहीं देती। जैसे नहीं दिया हमारी हिसार की दो बच्चियों को।
मुझे लगता है ज़िंदगी रहते, थोड़ा सा अन्याय कर लें हम अपने बच्चों के साथ, उनकी बेहतरी के लिए ताकि ज़िंदगी के बाद, न्याय के लिए भटकता ना रहना पड़े।
-पूनम परिणिता

ताकि हंसते हुए निकले दम...

लो एक कहानी गुनते हैं, काल, देश, देशांतर, समय, पात्र, सबकी पहचान कहानी के अंत में करेंगे, आपकी सूझबूझ के अनुसार। तीन बच्चे हैं, गोल-मटोल, प्यारे-प्यारे, तीनों ही अपनी-अपनी मां के बेहद दुलारे। एक के घर गुरबत का माहौल है और दूसरे खाते-पीते जमीदार घर से बावस्ता हैं, वहीं तीसरे का सामान्य कई भाई-बहनों का बड़ा सा परिवार है। ज़िंदगी अलबत्ता बिना भेदभाव अबाध रूप से चलती है सबके घर। वक्त के, सबको समान चौबीस घंटे ही प्रदत्त, लेकिन कहीं तो मिनट, घंटे, दिन काटना बेहद ही दूभर है, तो कहीं दिन कब चढ़ा, कब उतरा पता ही नहीं चलता। शुक्र बस इतना भर कि जिंदगी में से सबका एक ही दिन कटता है रोज।
चलो कहानी में रवानी के लिए पात्रों के नाम रख लेते हैं, एक का ‘क’, दूसरे का ‘स’ और तीसरे का ‘भ’। तीनों अब चौथी कक्षा में पहुंच गए हैं। बेहद गरीबी के रहते भी ‘क’ बहुत बड़े-बड़े सपने देखने का आदी है। मां से अक्सर कहता है, देखना तुझे एक दिन हवाई जहाज की सैर करवाऊंगा, दूसरे देश घुमाऊंगा। मां, उसकी बेपरवाह फैलती आंखों को देखकर डर सी जाती है। ना बेटा, मुझे नहीं घूमना, अल्लाह दो वक्त की रोटी इज्जत से दे दे, बहुत है। तूने आज की नमाज की या नहीं, बेटा शुक्राना किया कर, इस रूखी-सूखी के लिए भी।
‘स’ की बहनें उसके सारे नखरें उठाती हैं, तीन बहनों में सबसे छोटा है, पर उन पर खूब रौब झाड़ता है, बात-बात पर बात न करने की धमकी भी देता है। मां का बस चले तो उसे स्कूल भी ना जाने दे, जरा आंखों से दूर होने पर बेचैन हो जाती है। ‘भ’ की बात निराली है, बड़ा ही जिद्दी है, अपनी धुन का पक्का, जो ठान लिया, सो कर दिया। पढऩे का शौकीन, बचपन से ही अपनी अलग पहचान बनाना चाहता है। जमीदार से बेहतर कुछ और करना है उसे। मां जब ठोढ़ी से पकड़ कर उसके बाल संवारती है, बड़ी कोशिश करती है उसकी आंखों को पढऩे की, पर वो पलक झपका कर, बंद कर देता, बड़ी-बड़ी आंखें।
वक्त का पहिया घूमता रहता है, सबके लिए समान, तीनों ही की उम्र जवानी की पहली सीढ़ी छू रही है। मस्से भीगने लगी हैं, उंगलियां छू-छू कर मूंछों के बालों के होने एहसास को महसूस करना चाहती हैं। बस उम्र के इसी पड़ाव पर सबको एक-एक आदमी मिलता है। ‘क’ ने एक दिन अब्बा से ईद के दिन नए कपड़े मांगे, अब्बू ने गरीबी और लाचारी के चलते मना कर दिया। दोबारा मांगने पर, बुरी तरह गुस्से से लताड़ दिया। तभी कहीं उन्हीं दिनों में मिला था वो आदमी। ‘क’ बड़ा ही प्रभावित हुआ शख्सियत से, वो उसकी बातों में खो सा जाता है, एक-एक लफ्ज सच, एक-एक लाइन में जिंदगी की असीम संभावनाएं। अब तक का जीवन साला गाली सी लगता है। जो ये कह रहा है सब सच है क्या। सब सच होगा क्या। सब सच हो गया तो, बस मां को हवा में उड़ाने का सपना भी सच। गुरबत से आजादी, मुक्ति।
‘स’ को जो मिला उसने उसे आम सा सपना दिखाया। थोड़ी सी कुछ ज्यादा कमाई का सपना, सरहद के आर-पार आने-जाने का काम है। वो घर पर कुछ ठीक नहीं बताता, कुछ लोग कहते हैं खुफिया नौकरी पा गया है। एक अलग तरह की आजादी यहां भी है। ‘भ’ को किसी ने दिखाया, सच्ची आजादी का सपना, जिंदगी को देश के नाम लिखने का सपना, समर्पण का, शहादत का सपना। जिंदगी के सफर में तीनों निकले अपनी-अपनी राह। ‘क’ के हाथों में मौत का हथियार, पर दिमाग में जेहाद।
‘स’ के बारे में कहा जाता है कि नौकरी के चलते उसका वास्ता भी गोलियों से पड़ता रहता है। ‘भ’ के हाथ में बम है, है तो ये भी मौत का हथियार। पर आजादी का ये परवाना कहता है कि इससे सिर्फ कान खोलना चाहता है बहरी सरकार के। धाय, धाय, बम, भड़ाक, खून, लाशें, कपड़ों के चिथड़े, दौड़ती-भागती सरकारें, एम्बुलेंस, बस, सक्वाड.....
सांस सांस रुकती जिंदगियां। वक्त भी एक सांस रुका था, पर फिर चल दिया। और अब है, धुआं, गुबार, बेतहाशा दर्द, रिसते घाव, मरहम पट्टियां, पुलिस, तफतीशें, कोर्ट-कचहरी, जज, अपीलें, तारीखें, फैसला। और फैसला है फांसी। क, स, भ सजा-ए-मौत...फांसी। यकायक मेरा मन अपनी कहानी के पात्रों से मिलना चाहता है। मैंने आवाज दी उन्हें उनके नाम से, पर एक बड़ा मंच सा उभर रहा है आंखों के सामने और धीरे-धीरे उतरता एक बड़ा सा काल परदा। मेरे किरदार कहीं नहीं हैं। अब तीन परछाइयां हिल रही हैं। मैं चाहती हूं तीनों को अलग-अलग कर दूं, उनके नाम, देश, देशान्तर, काल, समय यहां तक कि उन पर लगे आरोपों के हिसाब से, पर वो फिर हिल-हिल कर एक-दूसरे में समाती जाती हैं। मेरी मुश्किलें बढ़ाती जाती हैं। पीछे कुछ शोर सुन रहा है। कुछ लोग जोरों से बड़बड़ा रहे हैं शहादत, शहीद, आतंकवादी, चौराहे पर फांसी, स्मारक बनाओ, लाश दो। सब गडमगढ है, जैसे ये भारी शब्द मेरे किरदारों को खींच रहे हैं। पर कौन कह रहा है, किसके बारे में कह रहा, जरा भी साफ नहीं है कुछ भी साबित नहीं है। तीन अक्स और उभर रहे हैं। ये तीनों औरते हैं जिनमें से दो तो मां हैं और एक शायद बहन है। माएं जानती हैं कि बेटे को फांसी हो चुकी है, बेसाख्ता दर्द को जज्ब किए हुए है। दोनों बेटों ने अंतिम इच्छा में मां के लिए ही कुछ पैगाम दिया था। तीसरी बहन है, अपने फांसीयाफ्ता भाई के लिए दुआ कर रही है।
तीनों औरतों की परछाइयां मेरे किरदारों में अपनों को ढूंढ रही हैं। पर पीछे बढ़ता सरकारों का, देशों का, लोगों का शोर, फिर परदे को हिला कर एक-दूसरे से बदल देता है।
जिंदगी अपनी जंग हार चुकी है। हार हर हाल जिंदगी की हुई है। तब भी जब बम फटे, तब भी जब फांसी हुई।
हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू सरकारें कभी एकमत ना हो गई। शहीद कौन, आतंकी कौन। हारा कौन, जीता कौन।
-पूनम परिणिता

मन रे तू काहे ना धीर धरे...

विगत दिनों शक्ति और दौलत के दो बेताज बादशाह दिवंगत हो गए। बाला साहेब और पोन्टी चड्ढा। जहां एक ओर, शक्ति के स्रोत और फिर बुझी हुई राख में भी चिंगारी सी, ढूंढने की आदत के चलते बीस लाख लोग अंतिम यात्रा में पहुंचे। वहीं दूसरी ओर, दौलत के स्तंभ को शायद अभी तक अग्नि भी नसीब नहीं हुई है। डाक्टर अभी दूसरा पोस्टमार्टम करने की तैयारी में हैं, क्योंकि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी में काट-काट कर सोने का अंडा देने का मुहाना ढूंढा जा रहा है, पर मिलेगा कुछ भी नहीं, मिलता, कभी कुछ भी नहीं। एक ओर मिलेगी कुल जमा सवा किलो राख और दूसरी ओर बस कतरा-ए-खून।
तो फिर क्यूं मन रे..., आम आदमी किसी की मौत का समाचार सुनकर आमतौर पर करीब पचास सेकंड तक सांसारिक नश्वरता पर मनन करता है। किसी को सामने मुर्दा देखकर यह अवधि सौ सेकंड तक बढ़ सकती है और शव दाह में अमूमन एक सौ बीस सेकंड, तब तक वाइबरेटर मोड पर किया मोबाइल, आपको वापिस इस शाश्वत संसार में ला छोड़ता है। आप साइड में जाकर धीमे स्वर में बोलते हुए आफिस से आया फोन सुनते हैं, खुद की प्रजेन्ट सिचुएशन बताते हुए, थोड़ी देर से आने की सूचना देते हैं और थोड़े निश्चंत हो जाते हैं, क्योंकि आपने इस सिचुएशन का भी फायदा उठाते हुए, खुद को बेहद चालाक साबित कर लिया है।
पर इस मन का करिए क्या, इसे तो दिलचस्पी है, बाला साहेब की निजी ज़िंदगी में थोड़ा और करीब से झांकने की। आंखें उस खबर को ढ़ूढती हैं, कैसे पोन्टी दाल, भुजिया की रेहड़ी से उठकर पूरी यूपी में सोमरस का देवता बन गया। सिर्फ डेढ़ हाथ का कर्मयोगी, कैसे हर पार्टी को समान नजर से देखता, सबसे सौहार्द रिश्ते बनाए रखता। वो सिर्फ हमारे भगवान कृष्ण के कर्मयोग के सिद्धांत में विश्वास रखता। दरअसल, गीता में भी सिर्फ कर्म करने पर जोर दिया है। सद्कर्म की बात या तो आई नहीं या इसे सब अपने तरीके से समझते हैं।
बाला साहेब शेर की तरह गरजते रहे, जिनकी दहाड़ से सभी चुप हो जाते। पर जब कभी घर में बच्चे-कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ते तो शेर गहन चुप्पी खींच जाता। पोन्टी एक लहर की तरह जीया, बस तूफान की तरह बढ़ती लहर। यूं चमचमाती ज़िंदगी लुभाती तो जरूर है, मन बोलता तो है, फिर धीर धरने को समझने, समझाने को कोई आदर्श हो। किसे देखकर जिये, कैसी ज़िंदगी जिए। भगवान के अवतार, जो मोक्ष का रास्ता बताते वो भी किसी दिन यूं ही अस्पतालों में साधारण मनुष्य की भांति, ऑक्सीजन की सप्लाई के चलते भी, विवश हो मर जाते हैं।
कोई है तो जिसे पता है, जन्म, मृत्यु, जीवन, मोक्ष, अनंत, शून्य। पर बताता कोई नहीं। गीता में अर्जुन को कृष्ण ने कहा कि मैं ही मारने वाला, मैं ही मरने वाला। तो दुर्योधन क्या इस ज्ञान को पहले से ही जानता था कि कृष्ण ही चीर हरण करने वाला है और कृष्ण ही चीर बढ़ाने वाला। बस ‘कर्म’ ही सर्वोपरि है। कि कर्म या कुछ भी अपने हाथ में है ही नहीं। फिर मन को कहना क्या ठीक है कि तू काहे ना धीर धरे।
-पूनम परिणिता

जो भी हो तुम खुदा की कसम....

अखबार में पढ़कर पता चला कि आज रूप चौदस है, सौंदर्य का पर्व। वरना तो इतना ही जानते थे इस दिन के बारे में कि छोटी दिवाली होती है पर सौंदर्य यानि क्या, परिभाषा क्या है, मापदंड क्या है, आदर्श कौन है और कब तक है। कैसे मोहित होते हैं हम पूर्णिमा के चमकते पूर्ण चांद पर, कुछ देर तक तो उस पर न्यौछावर रहते हैं, फिर अनायास ही नजरें उसके दूसरे पहलू पर पड़ती हैं, तो कभी गड्ढे दिखने लगते हैं, कभी दाग, तो कभी चरखा काटती बुढिय़ा। बस, फिर ये ही नजरें ढूंढने लगती हैं कोई और सौंदर्य, कहीं और पूर्णता।
कभी-कभी यूं ही कहीं, राह चलते, दिख जाता है कोई हसीन चेहरा, कहीं चाल में नजाकत, किसी अंदाज में नफासत और कभी पहरन में अदावत। दिल को भला तो लगता है, नजरें तो ठहरती हैं पर फितरत फिर कुछ तलाशने लगती है, कुछ और बेहतर। व्यक्तिगत तौर पर मुझे डायना बहुत सुंदर लगती थी, पर उस सौंदर्य का हश्र बड़ा भयानक रहा। जब उसके रूप पर कायल प्रिंस चाल्र्स ने उसे छोड़कर किसी और की सुंदरता को उससे बेहतर माना। उस वक्त उसकी मनोदशा क्या रही होगी। उस नाज की, उस मान की, उस गर्व की दशा क्या हुई होगी।
मुझे तब भी समझ नहीं आया था कि आखिर सुंदरता है क्या। लाखों-करोड़ों लोग नजर भर देखने को तरसते रहे और जिसे मन चाहे वो नजर फेर ले। फिर क्या कहता होगा आइना, लिपस्टिक भरते हुए होंठ क्या कुछ बुदबुदाते होंगे। कुछ ऐसा ही सौंदर्य, हेमा मालिनी, करिश्मा, श्रीदेवी और अब करीना का है। और कुछ वैसा ही हश्र भी। इन सब रूप सुंदरियों का रूप वहां टूट कर बरसा जहां पहले ही बारिश हो चुकी थी। सारी बात शायद मन को समझने और समझाने की है। सौंदर्य की ऐसी शृंखला में अचंभित करने वाला एक नाम और भी है ‘प्रियंका गांधी’। यहां भी शायद दिल का मामला भारी पड़ गया। कभी मुझे लगता है कि जैसे कहा जाता है ना कि प्यार अंधा होता है, यूं ही सौंदर्य के कानों में कुछ गड़बड़ होती है, जब तक उसके कान में ना सुन ले ‘तुम बेहद खूबसूरत हो’ तब तक ही कान ठीक काम करते हैं उसके बाद कुछ भी सुनना बंद कर देते हैं।
चलिये थोड़े आम सौंदर्य की बात करते हैं, हमारे-आपके सौंदर्य की, बस इतनी सी प्रॉब्लम है, आइना तो कहता है कि अच्छी लग रही हो, पर वो बोल नहीं सकता। और जो बोल सकते हैं उनकी आंखों के सामने अखबार, टीवी, कंप्यूटर, लैपटॉप या कानों में मोबाइल लगे रहते हैं। उनकी बस नजरों से समझना पड़ता है कि शायद ठी· ही लग रहे हैं। हालांकि किस्सा यहां कभी खत्म नहीं होता, क्योंकि हमारे पास प्रश्न और भी होते हैं, जैसे ये कलर सूट कर रहा है, शब्द बेशक फिर नहीं बोलें पर, गर्दन ने हिलकर कह दिया है, हां। फिर एक और प्रश्न है, मोटी तो नहीं लग रही, इस बार हाथ के इशारे ने दो बार हिलकर नहीं बता दिया है। बस आखिरी बात ‘ये सैंडिल ठीक लग रहे हैं’ ऊपर से चला सौंदर्य क्विज पैरों तक आ पहुंचा है। पर वो तो पहले प्रश्न को ही आखिरी पड़ाव बनाकर चलते हैं।
ज्यादातर कविता, गीत, संगीत, फिल्मी गाने अति सौंदर्य पर गढ़े गए हैं। इन सबमें औसत सुंदरता वाली कुछ लाइनें भी हैं, जिनसे आम सौंदर्य का भी जीवनयापन होता है। इन्हीं में से एक है चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था, हां तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था, बड़ी राहत वाला गाना है। ऐसी ही एक बीच की लाइन है, ना कोई किया श्रृंगार फिर भी कितनी सुंदर हो। और अंत में ‘जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो।’

-पूनम परिणिता