गुलों में रंग भरे, .......

यह एक पाती है, दुखी मन के उस कोने के लिए, जिसमें गज़लें बसती हैं, बूढ़े, बेसहारा, अकेले हुए मां-बाप सी। अंदर से तो दरवाज़ा अक्सर बंद ही रहता है। गाहे-बगाहे कभी-कभी कोई दर्दभरी आवाज़ सी सुनाई देती है, बेशक वो ग़ज़ल ही है। गुनगुनाए कोई भी, जगजीत, तलत, हेमंत, गुलाम अली या मेहदी हसन।
एक पर्सनल मैसेज और अख़बारों के माध्यम से पता चला कि जनाब मेहदी हसन इस समय बेहद नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं। फेफड़ों के संक्रमण और पीठ पर बिस्तर से हुए घावों से पस्त हसन साहब मौत से लगातार लड़ रहे हैं। मैं चाहती हूं कि अपनी तमाम ताकत बटोरकर वह इसे एक ज़ोरदार पटकनी दें। कुश्ती जैसे खेलों में दायरे के बाहर खड़े और अपने प्रत्याशी को जिताने के लिए जोश भरते लोग कभी-कभी चमत्कार जैसा काम करते हैं। बस हम भी यूं ही अपनी दुआओं का शोर उस तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे, जिसके हाथ में सुना है सबकी डोर है।
सब जानते हैं कि इस दुनिया, रैन बसेरे में हमेशा के लिए रहने कोई नहीं आता। कोई स्कोप भी नहीं है। ये भगवान, अल्लाह, यीशु, वाहेगुरु, कहने को ही नहीं, सब एक हैं। सब मिलकर खेलते हैं आदमी-आदमी। 13 जनवरी को एकबारगी अफवाह थी कि...लेकिन बाद में हसन साहब के बेटे ने ख़बर दी कि अल्लाह के फज़ल से हसन साहब ठीक हैं और दवाएं अपना असर दिखाने लगी हैं। यह उसी खेल जैसा था जिसे बचपन में हम विष अमृत कहते थे। गोया कि अल्लाह ने हौले से हसन साहब के सर पर हाथ रख कर कह दिया अमृत। हम उनकी लंबी पारी की कामना करते हैं।
क्या बिस्तर पर अकेले में भी वो महफिल ही न लगा बैठे होंगे? उनकी हिंदुस्तान आने की 2009 की तमन्ना दिल में ही रह गई। ज़िंदगी भर उस मिट्टी की उतनी तड़प नहीं होती, जितनी कि यूं इस तरह तन्हाई में होती है। राजस्थान के लुना की मिट्टी कहीं यूं ही तो नहीं कह रही होगी-‘आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।’ वर्ष 2010 में लता जी और हसन साहब की एक ड्युट एलबम बनी जिसका नाम है ‘सरहदें’। इतने मुलायम मीठे और शहद से बोल भी कहां मिटा पाए ये सरहदें।
मैं महसूस करती हूं एक मुशायरा हसन साहब के बिस्तर के आसपास, लता जी प्यार से उनके बोलों को सहलाती हुई गा रही हैं-मैं जागू तुम सो जाओ। ताकि वो दर्द से राहत पा सकें। अमिताभ उनकी चादर को ठीक करे हों, हसन साहब खुद धीरे-धीरे गुनगुना रहे हैं-गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले। इन दो शख्स से मिलने की तमन्ना में वो हिंदुस्तान बार-बार आना चाहते हैं। कहीं कोई एंबेसी है जो सिर्फ दिलों की दास्तान जानकर वीज़ा दे दे या कोई विमान सेवा जो बस दिलों की हुकूमत से चले कि जब जहां जिससे चाहा मिले और सुना आएं हाले-दिल।
बहरहाल, कभी नहीं चाहूंगी कि हसन साहब ऐसी सुर्खियों के साथ खबर में आएं कि-‘अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें’...खुदा आपको लंबी उम्र और सेहत बख्शे।
डॉ. पूनम परिणिता

तू कहे तो ‘मैं’ बता दूं...

कहीं पढ़ा था कि निर्णय लेने की क्षमता महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती है। भई, ये सच भी है और रोज़ का अनुभव भी, बल्कि हमारी ये क्षमता कठिन निर्णयों के मामलों में और भी बढ़ जाती है। याद कीजिए, एक छोटा सा निर्णय लेना था, लोकपाल बनेगा या नहीं बनेगा। फैसला करने में कितने महीने लगा दिए। और वो तो तब, जबकि जवाब हां या ना में चाहिए था। और यहां लाखों महिलाएं एक ही सवाल से दिन में तीन बार, रोज़ाना जूझती हैं कि आज सब्जी में क्या बनेगा? और हर बार एक नए जवाब के साथ कुछ नया पेश करती हैं।
कहना बड़ा आसान है, धत गोभी ही होगा। पर वो साल में 1095 बार इस सवाल का जवाब तलाशती हैं। पढ़कर मुस्कुरा देना सहज है। ज़रा दिल पर हाथ रखकर पूछिए कि कौन कितनी बार मदद करता है, इन अबलाओं की।
बच्चों से पूछो तो नूडल्स, पास्ता, मैकरानी सौ चीज़ें गिना देंगे, पर एक सब्जी का नाम नहीं बताएंगे। पति को फोन करो...देख लो...बना लो...जो दिल करे। बस यही पूछने के लिए फोन किया था? कहीं दोबारा पूछ लो तो कहेंगे, सुबह नाश्ते में क्या था? ये एक और वार घायल दिल पर। कितने दिनों बाद, कितनी मेहनत से, कितने दिल से स्टफड बैंगन बनाकर खिलाए थे, नाश्ते में। अभी दो घंटे भी नहीं हुए हैं कि बोल रहे हैं कि नाश्ते में क्या था।
बड़ी हिम्मत करके तीसरी बार भी पूछ लिया तो वो रामबाण जवाब मिलेगा...अच्छा मैं करता हूं, दो मिनट बाद। बस इसके बाद तो आप भी जानते हैं और मैं भी। ये निर्णय लेने में सहायक कोई नहीं होता, उल्टा घर में कुक है या बाई है तो वो पूछ-पूछकर परेशान कर देते हैं-हां जी, क्या बनाना है? अगर कोई अल्लाह का बंदा है तो वो सब्जी वाला भईया, जो ये कह कर कि मैडम सीज़न की नई सब्जी लाया हूं, बड़ी राहत देता है।
बस यूं ही तेज़ धारदार निर्णय लेते हुए भी हमारी क्षमता निखरती जाती है। एक और बेहद ही पेचीदा निर्णय रोज़ लेना पड़ता है और ये तो पहले वाले सवाल से भी कहीं अधिक काबिलियत को परखता है। और वो है कि क्या पहनुं...कोई अच्छी ड्रेस है ही नहीं। तो क्या हुआ, जो घर में मौजूद छह अल्मारियों में से चार में आपके ही कपड़े सुशोभित हैं, क्या हुआ जो आपकी रोज़मर्रा की, पार्टी की, ऑफिस की ड्रेस करीने से लगी दिख रही है।
पर प्रश्न तो अपनी जगह खड़ा है कि क्या पहनुं, मेरे पास तो कुछ है ही नहीं। ओह, फिर मदद नो कोई नहीं है। बच्चे से पूछो, बोलेगो वो ऑरेंज वाली पहन लो। पूछो कौन सी? ऑरेंज साड़ी नहीं...जींस और फिर कंप्यूटर गेम्स पर नज़रें गड़ा देगा। मैं जानती हूं कि मेरे पास ऑरेंज जींस नहीं है, पर सोच तो सकती हूं एक नई ले लूं। पीच वाले टॉप के साथ अच्छी लगेगी शायद, लेकिन प्रश्न अभी तक निर्णय के इंतज़ार में है। पति से पूछो...वही जाना-पहचाना, राजा-महाराजाओं का जवाब...कुछ भी पहन लो, हर ड्रेस में अच्छी लगती हो।
आपसी संबंधों की सेहत के लिए बहुत अच्छा है, पर महिलाओं को चिढ़ है इस टालु जवाब से। यूं ही नहीं लिया जाता निर्णय इस टेढ़े सवाल का, बंद कमरे में शीशे के सामने कितनी ही ड्रेसेस लगा-लगाकर देखनी पड़ती हैं। कौन सी, कब, कहां, कितनी बार पहले पहनी जा चुकी है। सारा हिसाब लगाकर, बहुत सोच समझकर ही आखिरी निर्णय लेना होता है। और भी ·ई निर्णाय· सवाल होते हैं। मसलन, बची हुई सब्जी बाई को कब देनी है, बच्चों के छोटे हुए कपड़े कहां, किसको देने हैं। कौन की सेल कब खत्म होनी है। बस यूं ही रोका इतने बड़े-बड़े निर्णयों से गुज़रते देश, दुनिया के बारे में निर्णय लेना चुटकियों का काम लगता है।
तभी तो जो निर्णय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते हुए भी नहीं ले पाते, हम ले लेती हैं मिनटों में। यूं ही नहीं विराजमान हैं हम, पेप्सीको, आईसीआईसीआई बैंक के सीईओ की कुर्सी पर। कुछ तो बात है हममें, हमारे निर्णयों में।
-डॉ. पूनम परिणिता

मेरे घर आना...ज़िंदगी

नए साल की एक नई सुहानी सुबह। नया कलरव, नया कलेवर। नए संकल्प, नए संयम, नए नियम। बस कुछ पुराना है तो वह हैं हम। न सिर्फ पुराने, बल्कि एक साल और पुराने हो चले हैं।
फिर भी, इस पुरातन से ही, नए का स्वागत तो करना ही होगा।
पिछले कुछ साल से मेरे साथ तो ये दिक्कत हो चली है, जाने उम्रदराज़ी है या सभ्य शब्दों में कहा जाए मेच्योरिटी या कि अक्ल दाढ़ों से अक्ल रिस-रिसकर बाहर आ रही है। मैं कुछ चुप हो चली हूं। कुछ ‘समझदार’ सी। कम बोलना भाने लगा है। सुनने की इच्छा ज्यादा होती है, पर अच्छा सुनने की। लोगों को इतना बोलते और व्यर्थ बोलते देखकर कोफ्त होने लगी है। बनावटी बातें, शहद लिपटे व्यंग्य-बाण, बेकार के तर्क और सबसे बढ़कर औपचारिकता निभाने की रस्मी बातें। हैलो...हां जी, नया साल मुबारक हो...हां जी...आपको भी। बात तो इतनी सी है, फिर उसके बाद! और...बस...।
समझते सब हैं कि इसके बाद की जितनी बाते हैं, उन्हें आप ऊपर लिखी किसी कैटेगिरी में डाल सकते हैं। सब महज औपचारिकता है, आपके आपसी संबंधों की व्याख्या मात्र। दिल किसी का नहीं करता, पर चूंकि मोबाइल के दूसरी तरफ जो कान है, उससे आपका लेना-देना ज़रूर है, वो भले ही कोई व्यावसायिक है, आपका सहकर्मी है, आपका बॉस है या आपका रिश्तेदार। सो आपको ओके कहने तक का सफर तो तय करना ही होगा।
कुछ यही बात गिफ्ट और अन्य भेंटों की भी है। दिल करे या न करे। मुझे आपसी भेंट (मेल-मिलाप) और देने वाली भेंट में भी सामंजस्य लगता है। वही दिल करे न करे, लेन-देन करना पड़ता है।
कल ही कोई बोल रहा था कि ‘मैन इज़ ए एनिमल’। बस सोसायटी में रहने की वजह से ‘सोशल’ हो गया है। और वो सब नहीं कर पा रहा जो वो एनिमल रहते कर सकता था। और इसी वजह से परेशान सा है।
देखने, सुनने, बोलने के निमित बनाई गई इंद्रियों में क्रमश: चश्मा, हेडफोन और मोबाइल फोन लगे हैं। हाथों में स्टेयरिंग है, पैरों में रेस है। सोचने के लिए कंप्यूटर है, सो दिल और दिमाग खाली-खाली से हैं। ऐसे में जीना क्या है और ज़िंदगी कहां है ये एक शोध का विषय है।
कहीं, कोई कुल पल ठहरे तो, रुककर सुने तो। पर उसके लिए तो पैर को ब्रेक पर लाना होगा, हाथ को न्यूटरल पर, कान से हेडफोन हटाने पड़ेंगे, मोबाइल को म्यूट करना पड़ेगा और शरीर नामक इस मशीन को फैक्टरी के डिफाल्ट मोड पर लाना होगा। काम थोड़ा पेचीदा ज़रूर है, पर सुकूनभरा भी है।
नए साल के लिए कुछ नया नहीं सोचा है। बस जो है, जैसा है, चलता रहे तो बेहतर। बस ज़िंदगी से दरकार है बहती रहना, यूं ही अविरल। सब चीज़ों, सब कामों से पेशतर बस ज़िंदगी की दस्तक ज़रूरी है। हर साल, साल दर साल मेरे घर आना...आना ज़िंदगी।
डॉ. पूनम परिणिता

बचपन के दिन...

 जानते हैं दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य कौन सा होता है, वो जब आपका बच्चा स्टेज पर अपनी परफोरमेंस दे रहा होता है या किसी भी प्रतियोगिता में अपनी श्रेष्ठ उपलब्धि के लिए पुरस्कार ले रहा होता है। बस, तभी कहीं अनजाने ही हल्का सा गुरूर सा हो आता है अपने-आप पर। उसके अभिनय में, उत्कृष्टता में मन ढूंढने लगता है अपना बिंब, अपना श्रेष्ठ और पिछले मोड़ पर, कहीं दूर छूट गया अपना बचपन। आजकल, आम स्कूलों की बिल्डिंग भी इतनी बड़ी हैं कि लगभग हर माता-पिता का अपने बच्चे को बड़े स्कूल में पढ़ाने का सपना पूरा हो गया लगता है। फिर शहर के बड़े स्कूलों की तो बात सचमुच ही निराली है।
स्कूल के ऑडिटोरियम की तरफ जाते एक दंपति को अपने बुजुर्ग को स्कूल का वर्ग गज एरिया बताते सुना। ऐसा भी है ना कि हम अपने बच्चों को अगर अनोखी सुविधाएं उपलब्ध करवा रहे हैं तो अपने थोड़े से दंभ के आवरण के नीचे, कहीं अपनी छोटी सी शिकायत भरी अर्जी भी दर्ज कराते हैं कि भई देखो, इसे कहते हैं बच्चे पालना। हम तो बस पाल दिए यूं ही आप लोगों ने, बल्कि पल गए यूं ही। ये सब बस अंजाने में हो जाता है। जान-बूझकर तो हम बड़े ही सभ्य और आदर्श व्यक्ति होते हैं। जीवन का अस्सी प्रतिशत हिस्सा हम सपने देखते गुजारते हैं, वो अलग बात है कि इसमें से आधे सपने हम सोते हुए देखते हैं और बाकी के आधे जागते, खुली आंखों से। बस यूं ही स्कूल के प्रांगण से गुजरते जब स्कूल के हैड ब्वॉय, स्पोट् र्स कैप्टन, प्रीफेक्ट या किसी भी हाउस हेड को देखते हैं। फिर से ढूंढते हैं उसमें अपने बच्चे का चेहरा। हम उसे एक ही समय में हर जगह देखना चाहते हैं। हर उपलब्धि का बैज उसके सीने पर लगा हो, भले ही उसका सीना अभी इस लायक ही ना हुआ हो कि इतने सारे बैज इकट्ठे लगाए जा सके।
चलिए अब थोड़े शांत हो जाइए। कार्यक्रम शुरू होने वाला है। ये वक्त बड़े स्कूल के बड़े ऑडिटोरियम को देख कर अभिभूत होने का है, वो तमाम पिक्चर्स याद करने का, जिसमें हीरो बचपन में स्टेज पर गाना गा रहा है और भारी भीड़ तालियां बजा रही है। अगर फिल्में ना होती तो हमारे सपने इतने रंगीन कभी ना होते। कार्यक्रम की शुरुआत स्वागत गीत से है, सब बच्चे आ चुके हैं स्टेज पर। तभी पीछे से सुना, वो दाएं से पांचवें नंबर वाली मेरी बिटिया है, वो जिसने बाल खुले छोड़े हैं, जबकि जिसे बताया गया, उसका इंटरेस्ट सिर्फ इस गीत के बाद होने वाले नाटक में है जिसमें उसका बेटा एक्ट करने वाला है। तभी मेरे साथ बैठी एक छोटी बच्ची हाथ हिलाकर चिल्लाने लगी नॉय भईया, भई....ई....या....। भइया अलबत्ता समझदार निकला, स्टेज से मुस्कुरा भर दिया।
फिर तो दो तीन आवाज़ें और शुरू हो गई। शैरी दीदी, बंटी भैया, पर जल्द ही सारी आवाजें स्वागत गीत में खो गईं। स्वागत गीत के शब्द सुनते ही मैंने भी जल्दी ही बता दिया, हम भी गाते थे स्कूल में ये ही वाला। और तो और साथ गाने भी लगी और प्रमाण देने के लिए आगे के बोल पहले ही बता दिए। ये सब अनजाने ही हो गया। एक कोहनी लगते ही मैं वापिस अपनी सभ्य अवस्था में आ गई। सभ्य मोड, मोबाइल के साइलेंट मोड जैसा ही होता है। जिसमें समझ में सब आता है, पर मूक रहना मशीनी मजबूरी होती है। इसके बाद वो नाटक शुरू हो गया, इंग्लिश में था। अगर पहले से उसका हिंदी अनुवाद ना सुना हो या आपका बच्चा उसमें एक्ट ना कर रहा हो, तो वो समझ में आना मुश्किल है। बस सब दम साधे अपने बच्चे के आने का इंतजार करते हैं और उसका पार्ट खत्म होते ही नाटक के खत्म होने का इंतजार करते हैं। स्कूली कार्यक्रमों का समापन हमेशा राष्ट्रीय गान से होता है जिसे गाना मुझे बहुत पसंद है। पिछले दिनों हमारे राष्ट्रगान को दुनिया का बेहतरीन राष्ट्रगान चुना गया है। यूं ही जलेबी बाई के इस दौर में कुछ तो है जो खालिस है।
-डॉ. पूनम परिणिता