सुहावनी ब्यार सा था ‘चाणक्य’

अपने मौसम जैसा ही है हिसार। कभी इतनी तपती दोपहरियां तो कभी ऐसी सर्द सुबहें। सुहावने मौसम के बस दो-एक महीने हैं। बस यूं ही जर्द से हिसार में कभी-कभी कोई सुहावनी ब्यार आती है। ऐसी ही एक ब्यार थी नाटक ‘चाणक्य’ का कामयाब और यादगार मंचन। चूंकि कला, कलाकार कमोबेश हर धड़कते दिल में हैं पर उसे जगाने का, झकझोरने का श्रेय उसी को जाता है जो इसे पकड़ कर ज़ोर से हिलाने की हिमाकत रखता है। बस तभी कहीं कोई तारतम्य पैदा होता है, जीवन की बेहोशी और जीने के होश के बीच। वरना तो बस जीये तो हम जा ही रहे हैं।
यकीनन, इस नाटक के मंचन का साक्षी होना एक उपलब्धि जैसा रहा। ये जो इस लेख में थोड़ी गूढ़ता दिख रही है, ये भी इसी का नतीजा है। इतनी शुद्ध हिंदी में इतना शुद्ध उच्चारण किया सभी कलाकारों ने कि गर्व सा हुआ अपनी भाषा की विद्वता पर। यह हर मायने में सफल आयोजन था। समसामयिक मंच सज्जा, एकबारगी सिर्फ मंच देखकर ही हम सिकंदर महान के काल में पहुंच गए। पूरू से धनानंद और पर्वतक के महलों के अंतपुर तक की सैर बस आंखों से ही कर ली। बेहतरीन परिधान में शालीन मेकअप से सजे सभी कलाकार अत्यंत संजीदा लग रहे थे।
मनोज जोशी और अशोक बांठिया जैसे व्यावसायिक फिल्मी कलाकारों को समीप से देखना हर एक के लिए रोमांचित कर देने जैसा था। पहली झलक से ही उनकी अभिनीत तमाम फिल्में याद हो आईं, पर कलाकारों को नाटक में बस कुछ दूरी से, सजीव भूमिकाओं में देखना अपने आप में कुछ घड़ी खो जाने जैसा हुआ करता है। बेशक, कथानक तो ऐतिहासिक और प्रमाणिक था ही, निर्देशन भी मंजा हुआ था। कहीं गति में कोई अवरोध न था। तीन घंटे का समय कैसे दृश्य-दर-दृश्य निकला, पता ही नहीं चला। संवाद अदायगी बेहतरीन रही, इसका परिचय दर्शकों ने बार-बार तालियां बजाकर दिया।
नाटक के अंत में सभी ने कलाकारों की प्रशंसा की और निर्देशक व कलाकारों ने हिसार के दर्शकों की। ये माना कि हिसार के दर्शक अभी नाटक देखने को लेकर अपनी प्रथम ही अवस्था में हैं, परंतु दर्शक होना भी एक विधा है और इसकी पहली ही कक्षा में यह तो सीख ही लेना चाहिए कि नाटक देखने की पहली शर्त है मूक हो जाना। न केवल स्वयं, बल्कि अपने यांत्रिक उपकरणों को भी मूक अवस्था में कर लेना जिसका भारी अभाव दिखा, इतना कि चाणक्य को अपनी कूटनीति छोड़कर विनम्र निवेदन करना पड़ा। कोई बात नहीं, इस उम्मीद के साथ कि अगली बार ऐसा नहीं होगा। हम आयोजकों से ऐसे ही विरले आयोजनों की उम्मीद बनाए रखेंगे।
इसी आयोजन के अंत में एक चीज़ मुझे छू गई। मनोज जोशी को सम्मानित करते हुए सावित्री जिंदल ने काफी झुककर उनका सम्मान किया। मनोज उनसे भी ज्यादा झुके। अचानक पांचवीं में पढ़ा श्लोक याद आया-फल वाले वृक्ष झुक जाते हैं। निश्चिंत ही यह सब अनुकरणीय था। चाणक्य ने अनेक बातें कहीं, राजा के आचरण के बारे में। सावित्री जिंदल भी खो गई होंगी चाणक्य की बातों में, आखिर नगर की ‘राजा’ हैं। पर दिनभर चलने वाले दुनिया के नाटक, तीन घंटे के नाटक पर यकीनन भारी पड़ते होंगे।
डॉ. पूनम परिणिता

प्रभु ! आप यहां कैसे...

जानती हूं, एक बार फिर इंडोनेशिया का नाम लेते ही आप में से ज्यादातर कहेंगे, बस बहुत हो गया। पर मैं भी क्या करूं? पहली बार गई थी विदेश, फिर खर्च भी काफी हो गया। वहां से कुल जमा हासिल है तो बस कुछ जोड़ी विदेशी स्टैंप कपड़े, कुछ फोटो या फिर यादों और अनुभव का खजाना। बस यही खजाना आपस में बांटना चाह रही थी। चलिए, ये इंडोनेशिया के बारे में लास्ट है। 
उस दिन और कोई कार्यक्रम नहीं था। सो, घूमने निकले। पहले बोरोबदूर गए, वो एक बुद्धा मंदिर था, बेहद सुंदर स्तूपों वाला। फिर तमन्नसारी देखा जो एक मुसलिम शासक का महल और इबादतगाह थी। तब तक शाम ढल चुकी थी। तब जाकर पहुंचे, ‘परेम्बनन।’ उस समय वहां के साढ़े चार बज रहे थे। ड्राइवर ने बताया कि साढ़े पांच बजे बंद हो जाएगा। जल्दी से टिकट लेकर भागे।
अंदर का नज़ारा अद्वितीय था। दूर तक फैले बाग-बगीचे जिन्हें पार कर पहुंचे मंदिर के पास। वहां सैकड़ों बड़े-बड़े स्लैबनुमा पत्थर थे। यह एक अधूरा बना मंदिर है जिसके बारे में अपनी कहानी ‘प्यार की अधूरी आस का मंदिर’ में लिखूंगी। पत्थरों की छोटी चारदीवारी के बाद अंदर बड़े-बड़े कई मंदिर थे जिनमें सबसे बड़ा शिव, पार्वती और गणेश का मंदिर था। उसके सामने नंदी बैल का, फिर ब्रह्मा और विष्णु के मंदिर।अपने भारत से इतनी दूर विदेश में अपने भगवानों को देख मुझे अजीब से आनंद का अनुभव हुआ। मैंने जूते उतारे, सिर पर कपड़ा किया, श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़े, आंखें बंद की और उनके वहां होने को बड़ी शिद्दत से महसूस किया। पर आंखें खोलते ही तमाम लोगों को अपनी तरफ घूरते पाया। दरअसल, वहां मंदिरों में न जूते उतारे जाते हैं, न सिर ढकने का रिवाज़, न कोई धूपबत्ती, न पूजा अर्चना, न कोई श्रद्धा और न कोई विश्वास। 
मेरे साथ से गुज़र रहे प्रवासियों के एक समूह को गाइड इंगलिश में भगवान शिव, मां पार्वती और गणेश के बारे में बता रहा था। और ये भी कि, ‘इफ यू विल टच द फीट ऑफ लॉर्ड, यू विल गेट हिज़ ग्रेस।’ तभी उनमें से एक ने ओके कहते हुए भगवान शिव के पैरों को यूं ही चलते-चलते हाथ लगा दिया और आगे बढ़ गया। अरे...रे...यूं थोड़ी...आंखें बंद कर, मन में श्रद्धा, विश्वास ला, फिर झुककर सिर चरणों में रख। मैंने नहीं, मेरे मन ने कहा था ये, ज़ोर से हिंदी में। पर सुनता कौन और समझता कौन। 
ओह! मैंने अपने भगवान की विवशता को दिल की गहराइयों से महसूस किया। फिर उन्हें कुछ मंत्र खालिस संस्कृत में सुनाए। शुद्ध हिंदी में आरती गाई। और फिर पूछ ही लिया उनसे - प्रभु आप यहां...कब से, यूं बिना धूपबत्ती, आरती, पूजा, शंख, घंटी और हां, प्रसाद-चढ़ावा। पीछे से बोल रहा था कोई इंडोनेशियन भाषा में, मुझे सिर्फ 215 बीसी से, समझ आया। मैंने अपना पर्स टटोला, कुछ डॉलरों, इंडोनेशियन करंसी के बीच, अनमना सा गांधी बाबा वाला दस का नोट पड़ा था। मैंने माथे से लगाकर रख दिया, भगवान के चरणों में। मुझे कुछ अलग सी मुस्कान दिखाई दी, अब भगवान के चेहरे पर। जैसे बहुत दिनों बाद कोई अपना सा मिला हो। 
साढ़े पांच बज चुके थे। मंदिर बंद होने लगे थे, आखिरी मंदिर देखना बाकी था। गार्ड से रिक्वेस्ट की पर आश्चर्य, उसने अलग से पैसे मांगे। (अपने यहां इसे सर्विस चार्ज कहते हैं)। मैंने कहा-मान गए भगवान, तेरे बंदे सब जगह एक जैसे हैं।
डॉ. पूनम परिणिता

आज फिर मरने का इरादा है...


मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, वो और बात है कि ज़िंदगी ने मेरा साथ बस यहीं (88 वर्ष) तक दिया। फिर सौंप दिया सांसों का बैटन मौत के हाथ और खुद रुक कर वहीं, देखती रही मुझे जाते रेस के दूसरे हिस्से में। यहां सब धुआं-धुआं सा है, उड़ाने को फिक्र नहीं है। वाय दिस कोलावरी-कोलावरी पर झूमते बच्चों को चाहे फर्क पड़े, लेकिन पचास से सत्तर दशक का पड़ाव जिनके भी जीवन को छुआ है, उनके अंदर कहीं कुछ कारूर दरक गया है। एक अनोखी अदा, एक हिलती, थिरकती, बहती लहर जैसे अचानक थम सी गई है।
देवानंद की उम्दा फिल्में और उनके बेहतरीन गीत जैसे ज़िंदगी के फ़लसफे को खुद बयां करते हैं। अगर अभी प्यार को ढूंढ रहे हैं तो सुनिए...ये दिल होता बेचारा, हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ बोलिए, या फिर कभी कभी, कहीं नहीं और पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले! और अगर प्यार को पा लिया है तो सुनकर होश खोइये...तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं, एक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने या फिर दिल पुकारे रे- रे। और गाता रहे मेरा दिल, तू ही मेरी मंज़िल। और भगवान करे कहीं प्यार में दिल टूट चुका है तो धीमे-धीमे से बजाइए...जीवन के सफऱ में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को, तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं, सैया बेईमान मोह से छल किए जाए या फिर वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाता है कहां। लेकिन मुझे देवानंद के कुछ सदाबहार नगमें पसंद हैं। मसलन, तुम हमें जानों हम तुम्हें जाने, अभी जाओ छोड़कर के दिल अभी भरा नहीं, दम मारो दम, खोया-खोया चांद। और, दिन ढल जाए हाये रात जाए।
कभी-कभी मुझे लगता है, हम सब भी चाहे कोई भी हों मां-बाप, भाई-बहन, व्यवसायी, अधिकारी, नेता, अभिनेता, साधु-संत, हर वक्त अभिनय में रहते हैं। एक भूमिका से दूसरी भूमिका में जाते अक्सर अपने कौशल का प्रदर्शन करते रहते हैं। बस अपने अंदर बसा वोआदमी सादबे-छिपे कहीं अपना असली रूप दिखा जाता है। देवानंद ताउम्र नौजवान के अभिनय में रहे, बस कभी वो आदमी सा, चुपचाप सा आता, गले की झुर्रियों पर मफ़लर डाल जाता। कहते हैं देवानंद के पास कई सौ मफ़लर थे।
अभिनेताओं का जीवन ज्यादातर पेचीदा होता है। वो ज़िंदगी में अभिनय करते हैं और ज़िंदगी उनसे अभिनय करती है। फिल्मविद्याके गीतकिनारे-किनारे चलेकी शूटिंग के दौरान सुरैया अचानक, दरअसल डूबने लगीं तो अभिनय छोड़ देवानंद ने उन्हें बचा लिया। तभी कहीं किसी क्षण शायद सुरैया ने वो दोबारा मिली ज़िंदगी देवानंद के नाम कर दी।
करीब साल भर बाद फिल्मजीतके दौरान देवानंद ने हीरे की तीन हज़ार रुपए की अंगूठी  के साथ सुरैया को परपोज़ किया। परंतु सुरैया की नानी ने उनके सामने मुसलमान हो जाने की शर्त रखी जिसे ज़िद्दीधर्म देव आनंद पिशोरीने नहीं माना और हार गए। सुरैया ने इसका प्रायश्चित ताउम्र अविवाहित रहकर किया। और देवानंद ने इसका प्रायश्चित ताउम्र सुरैया को भूल जाने का अभिनय करके किया। यूं क्या भुला दिया जाता होगा प्यार को!
कहीं लंदन की धरती पर आखिरी क्षणों में हिंदूधर्म देव आनंदने भगवान से सुरैया के बगल वाली कब्र में दफन होना तो ना मांग लिया होगा?  बहरहाल, इस गीत के साथ इस सदाबहार अभिनेता को मेरी श्रद्धांजलि-
आसमां के नीचे, हम आज अपने पीछे
प्यार का जहां बसा के चले, कदम के निशां बना के चले।
-डॉ. पूनम परिणिता

जाने क्या तूने कही...

'जाने क्या तूने कही...बात कुछ बन ही गई।' दरअसल ये गुरुदत्त और वहीदा रहमान पर फिल्माया शोखियों और नाज़ोअंदाज की अदावत वाला हिंदी गीत है। पर मेरे इंडोनेशिया प्रवास के दौरान ये बार-बार नए रूप में सामने रहा था। आपसी भाषा साधारण बातचीत में बार-बार आड़े रही थी। मैं कुछ कहती, वो कुछ और समझते। पर ज्यादातर और कुल मिलाकर बात बन ही जाती।
वहां ज्यादातर मांस परोसा जाता है। शाकाहारी भोजन मिलना वहां दुविधा रही, इसलिए कोई भी चीज खाने से पहले मैं उसके इनग्रेडिंटस के बारे में ज़रूर जान लेती। यूं ही एक रेस्टोरेंट में बैठे तो खाने के बाद कुछ ठंडा लेने की चाह में एक कोल्ड कॉफी ऑर्डर की। तब उसने पूछा, ‘यू वांट इट विद सु-सु।बेसाख्ता मेरे मुंह से नो-नो निकला। तभी साथ वाली इंडोनेशियन फ्रेंड ने कहा-आई थॉट यू लाइक सु-सु। यसटरडे यू एड सु-सु इन टी। मैंने कहा-दैट वाज़ मिल्क। वो मुस्कराई। वेटर जाने के लिए मुड़ चुका था, मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-एक्सयूज़ मी, डोंट फोरगेट टू एड सु-सु टू माई कॉफी।
वहां कुछ घंटे सेलाटीगा की यूनिवर्सिटी के इंगलिश डिपार्टमेंट की सीनियर लेक्चरर पूरवंती के घर बिताए।  उनकी छह वर्षीय बेटी एडन हमारी भाषा को समझ पाने से परेशान थी। मैंने उससे बातचीत की कोशिश में उसकी इंगलिश की बुक मंगवाई। उस किताब के शुरू में कुछ करक्टर बने थे। मैंने इशारों से पूछा तुम्हें इनमें से कौन पसंद है। उसने उंगली रखकर बताया कि मैक्स मंकी। फिर मैंने उसे कागज़ पर मैक्स की तस्वीर बनानी सिखाई। फिर तो वो इशारों-इशारों से मेरे पीछे ही पड़ गई और हमने उसकी किताब के सारे करेक्टरस के चित्र बना डाले।
बच्चों के लिए इतना अपनापन काफी होता है।  उसके बाद खाने के समय मेरे पीछे ही घूमती रही, कागज़ और पैन लिए। खाने के समय जब उसकी मम्मी ने उनकी भाषा में पूछा कि क्या खाएगी। उन्होंने मुझे बताया कि ये कह रही है कि मैं सिर्फ वह खाऊंगी जो पूनम आंटी खाएंगी और आज मैं इनके साथ ही सोऊंगी। मुझे बड़ा अच्छा लगा।
भाषाएं कब भावनाओं को बांध पाती हैं, जाने के वक्त वो काफी उदास हो गई। और बच्चों की तरह गली के नुक्कड़ तक हाथ हिला-हिलाकर मुझे अलविदा कहती रही। उसकी आंखें कुछ नम सी थीं। पता नहीं इंडोनेशियन भाषा में आंसुओं को क्या कहते हैं, लेकिन वो वहां भी खारे और गीले होते हैं। तेरी माकासी धन्यवाद को कहते हैं। अभी इतना ही। अगले कुछ लेखों में इंडोनेशिया की संस्कृति पर भारत के प्रभाव के बारे में बातचीत करेंगे।
डॉ. पूनम परिणिता

जश्न-ए-महंगाई


एक पुराना गाना है, धीरे-धीरे बोल कोई सुन न ले। तो जनाब महंगाई का जमाना है, सो धीरे-धीरे बोलिए। या बेहतर होगा कि कुछ न बोलिए। आपको बोलने की जरूरत ही क्या है? अपने अर्शशास्त्रीय प्रधानमंत्री बोल रहे हैं ना। इनकी भी अजीब मुसीबत है। बोलें तब मुश्किल और न बोलें तब भी मुश्किल। महंगाई पर उन्होंने कहा है कि महंगाई का बढऩा आर्थिक प्रगति की निशानी है। चूंकि लोगों की आय बढ़ी है, इसलिए व्यय क्षमता बढ़ी है। सो, संपन्नता बढ़ रही है। गोया कि सरकार ने कुकिंग गैस के दाम बढ़ा दिए हैं, फिर भी आप गैस पर बनी रोटी ही खा रहे हैं तो यकीनन आपकी क्षमता तो है ही। पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा दिए हैं, फिर भी आप स्कूटर और कार से दफ्तर-बाजार जा रहे हैं। तो निश्चित महंगाई का आप पर असर कहां है? 
तो जनाब सरकार तो आपकी अमीरी को आखिरी पैमाने तक तौलेगी। फिर अब 32 रुपए गरीब की हैसियत तय करने के बाद गरीब बचे ही कितने हैं हिंदुस्तान में? और इस हिसाब के बाद झुग्गी वालों ने अपने आपको मध्यम वर्ग और काम वाली बाइयों ने उच्च मध्यम वर्ग घोषित कर दिया है। बस मुसीबत तो हम जैसों की हुई है जो हर वर्ग से बाहर हो गए हैं। जब महंगाई, पेट्रोल और गैस बढऩे ने कारणों और परिणामों पर खोज करने की बात आई तो एक कारण मुझे लगा कि इसमें पड़ोसी ताकतों का हाथ है। जानती थी कि आप पाकिस्तान और चीन पर शक करेंगे, लेकिन मैं तो बस अपनी पड़ोसन मिसेज वर्मा की बात कर रही थी। पिछले दिनों उन्होंने भी स्कूटर ले लिया है। और इस प्रकार मेरी व आप सबकी पड़ोसी ताकतों को मिलाकर तकरीबन सत्तर प्रतिशत वाहनों में इज़ाफा हुआ है। एक समय था जब नारी शक्ति कहीं बाहर जाने पर भाई, पिता या पति पर निर्भर करती थी। और वे अपने दफ्तर, काम या पढ़ाई का बहाना बनाते हुए उनका बाहर जाना कम से कम दो-तीन बार तो ज़रूर टाल दिया करते थे। फिर या तो उस काम की जरूरत ना रहती या भुला दिया जाता। 
मगर अब दुर्गा स्वरूपा नारी अपने स्वयं के स्कूटर,स्कूटी रूपी शेर पर निकलती है और सारा दिन सड़कों पर पेट्रोल फूंकती नकार आती है। और ये शेर लगभग हर घर की गैराज में अपनी अदद जगह बनाए हुए हैं। लेकिन खबरदार जो पेट्रोल बचाने की मुहिम के चलते इनके वाहनों पर रोक लगाई। फिर गैस बचाने के तहत घर में अन्न नहीं पकाएंगी और अगले आप सब घर से बाहर नकार आएंगे, टोपी लगाए, ‘मैं अन्ना हूं।’ अब महंगाई के परिणामों पर गौर करें। जैसा कि प्रधानमंत्री जी ने कहा है महंगाई से संपन्नता बढ़ी है तो कौन ऐसा मूर्ख होगा जो अपनी समृद्धि पर रोएगा। तो महंगाई का रोना छोडि़ए और भविष्य में और जोर-शोर से होने वाली समृद्धि का जश्न मनाइए।
डॉ.पूनम परिणिता

कहीं दूर जब दिन...

कभी किसी अकेली शाम को, हौले-हौले बजते इस गीत को सुन कर कैसा लगता है? जिंदगी के तमाम रंग दिखते हैं इस गीत में। अगर कहीं कोई जिंदगी से बिल्कुल बेपरवाह है तो उसे याद आता है, कैंसर से हंस कर लड़ता हुआ ‘बाबु मोशाय’ वाला आनंद। पिछले हफ्ते सैर करते हुए निशा आंटी मिल गईं। बात करते-करते उन्होंने अपने भांजे के बारे में बताया जिसे पिछले साल पेट में दर्द हुआ था और तीन महीने बाद रिपोर्ट में कैंसर का खुलासा हुआ,फिर उन्होंने उसकी दिन-ब-दिन गिरती हालत, परिवार की परेशानी और आखिर में बताया कि अब तो वो दवाइयों को भी रिसपोन्ड नहीं कर रहा है। रात को बहुत देर तक मैं उसके बारे में सोचती रही। मां का इकलौता बेटा, एक छोटी सी बच्ची का पिता, इतनी दर्दनाक बीमारी। क्या सोचता रहता होगा, बिस्तर पर लेटे। सोचते-सोचते जाने कब आनंद फिल्म का नायक हावी हो गया। तभी कहीं मैंने भी उससे मिलकर आने की सोची। उसके बारे में लिखने की, सोचा था पूछूंगी बातों ही बातों में, अंदर ही अंदर क्या फील करता है अपने बारे में, अपनी मां के बारे में, बच्ची और पत्नी के भविष्य के बारे में। सबसे ऊपर अपने बीमार होने के बारे में। ये भी सोचा ढेर सारी पॉज़ीटिव बातें करूंगी उससे, जिंदगी के हर पल को जीने के बारे में बताऊंगी। पर उसी रात करीब 11 बजे मुझे अचानक तेज बुखार हो गया। कारण कोई न था, ना ही कोई खांसी जुकाम। पर तेज बुखार और बदन में तेज दर्द महसूस कर रही थी। तीन दिन तक एंटीबॉओटिक का कोर्स, पर बुखार में कोई आराम नहीं। जोड़ों में अलग दर्द शुरू हो गया और भूख लगनी बंद हो गई। पूरी तरह चिड़चिड़ा गई मैं अपनी हालत से। बुखार को पांचवां दिन था। मैं सो रही थी, तभी बेटे ने बताया कि निशा आंटी मिलने आई हैं। मैंने सोते-सोते ही कहा मुझे तंग मत करो, कह दो मम्मी सो रही हैं। ना किसी से मिलने का मन था, ना बात करने का। ना मेरा हाल कोई पूछे, न अपना दर्द बताऊं। बस मुझे सोना था कि ये दिन बीत जाए कि ये बुखार अपने दिन पूरे करके खत्म हो जाए। निशा आंटी जा चुकी थीं। तभी मुझे उनके भांजे की याद आई। मैं जो उसकी कहानी लिखने चली थी, बुरा लगा मुझे खुद पर, अपने पॉजीटिव एटिट्यूड पर। कितना दर्द, कितनी बेचैनी, कितनी चिंताएं अपने बेहद बीमार शरीर पर समेटे, क्या वह कोई बात कर पाता, क्या कोई उसे आर्ट ऑफ लीविंग समझा पाता कि हर पल जी लें कि गहरी लंबी सांसों से आराम आता है। मुझे फिर आनंद याद आ रहा है और अब सिर्फ राजेश खन्ना की बेहतरीन एक्टिंग पर ध्यान गया। क्या ऐसी बीमारी से लड़ता कोई आनंद हो पाता होगा। क्या कोई आनंद हो पाएगा।
मेरे साथ आप भी प्लीज दुआ करें उसके स्वास्थ्य के लिए।
डॉ.पूनम
परिणिता

उनके हिस्से का थोड़ा सा प्यार

उन सभी लोगों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं जो इस नेक प्रोफेशन से जुड़े हैं। ये वाक्या प्राय: सभी के साथ कभी न कभी जरूर पेश आया होगा। याद कीजिए कभी बच्चे को होमवर्क कराते हुए, उसकी नोट बुक में कोई गलती सुधरवाते हुए, आपके बच्चे ने कहा, नहीं...ये ठीक नहीं है, मेरी टीचर ने ऐसा ही बताया है।
फिर, आप उसे लाख समझाते हैं पर जानती हूं वो नहीं माना होगा। और हां, आपको उसे ठीक कर के लिखने भी नहीं दिया होगा। तो ये अहमियत है हमारी जिंदगी में टीचर की। यानि कभी-कभी तो पेरेंट्स से भी ऊपर, हालांकि शास्त्रों में तो साक्षात परम ब्रह्म ही कहा गया है। हमारी चार से लगभग पच्चीस साल तक की जिंदगी में कितने ही टीचर आते हैं। मुझे याद है जब छठी कक्षा में एक मैडम की शादी हुई और वो स्कूल छोड़ कर जाने लगी, अपने हाथों से ग्रीटिंग कार्ड बनाना, उनके गिफ्ट के लिए क्लैक्शन करना, फिर गेम्स पीरियड में उनकी विदाई पार्टी करना और फिर रोना। कितनी आत्मीयता के साथ जुड़ जाते हैं हम इनके साथ।
पिछले दिनों फेसबुक पर एक सर्जरी वाले सर की फ्रेंड रिक्वेस्ट मिली। कॉलेज के दिनों में कभी हिम्मत नहीं होती थी उनके रूम में जाने की, कभी उनसे बात करने की। यकीन मानिए बड़ा अच्छा लगा और फिर फोटोज के जरिए उनके परिवार को जानना, उन्हें एक अलग व्यक्तित्व के रूप में जानना। अपने लिखे हुए पर उनके कमेंटस पढऩा, एक नई स्फूर्ति देता है। कहना यह चाहती हूं कि क्लासिस के कड़क टीचर से इधर आम जिंदगी में बड़े प्यारे इंसान भी होते हैं। अब लिखते-लिखते मुझे अपने एडवाइजर की भी याद आ गई है, जिन्हें मैं पांच सितंबर को मैसेज करना नहीं भूलती और अपने बेटे की पहली प्रिंसिपल मैडम को, बेटे से फोन करवाना भी।
मुझे याद आता है कि स्टूडेंट लाइफ में हम कैसे काम पडऩे पर टीचर्स के घर ढूंढ लिया करते थे। पर अब जबकि वो बुजुर्ग हो गए होंगे, क्या हम में से कोई उनसे मिलने के लिए, उनकी कुछ पुरानी यादें लौटाने के लिए जाता है उनके पास? कहीं पढ़ा है कि किसी भी चीज को आदत बनने में नियमित रूप से करने पर छह से आठ महीने लगते हैं। फिर सोचती हूं, इतने साल दर साल, बच्चों की क्लासेस लेना, उनके भविष्य निर्माण में उनकी सहायता करना, उन्हें समझना, उन्हें समझाना। रिटायरमेंट के बाद कितना खालीपन महसूस करते होंगे। चाहते होंगे कि कभी-कभी कोई आकर अपनी सफलता बांटे उनसे, सफलता में उनके योगदान के केक का एक टुकड़ा खिला जाए, अपने हाथों से।
तो अगर इसे पढ़ कर आपको भी अपने कोई उम्रदराज सर या मैडम याद आए हों तो अपनी व्यस्तता में से बस कुछ पल निकालें और दे आएं उनके हिस्से का थोड़ा सा प्यार उन्हें। सिर्फ प्रवचन नहीं हैं ये, मैं जा रही हूं...डा. विद्यासागर से मिलने उनके घर।
-डा.पूनम परिणिता

मेरे हिस्से के अन्ना

मेरी ठोढी से बिलात भर नीचे, बांयी ओर दिल है मेरा, आम हिन्दूस्तानियों की तरह काफी बड़ा और खुला है। ऊपर दो एटरियम और नीचे दो वैन्टरीकल मिला कर फोर रूम सेट है। बड़े वाले रूम को ड्रॉइंग कम डाईनिंग बना रखा है, एक बैडरूम है। एक को लिविंग रूम और एक को गेस्टरूम बना छोड़ा है। जहाँ तमाम तरह के लोग आते जाते रहते हैं। कुछ स्थायी हैं, कुछ किरायेदार और कुछ पेईंग गेस्ट।
तो बात उन दिनों की है जब पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद मेरी नई-नई नौकरी लगी, दिल बड़ा खुश था मेरा तब। उस दिन मैडिकल और ज्वाईनिंग दोनों साथ ही थे। तो मैडिकल जल्दी कराने के लिए कुछ सिफारिश करवाई गई, फिर ज्वाइनिंग पर दफ्तर के बाबु ने मिठाई की डिमांड की, पर ये सब खुशी-खुशी में निपट गया। शाम को कोई सिपाही आया था घर, वो पासपोर्ट की पुलिस वैरीफिकेशन के लिए, तो चाय पानी के अलावा उसे निपटाने में कुछ सौ रुपये देने पड़े। पर उस दिन मुझे कुछ तकलीफ नहीं हुई, बल्कि नौकरी लगने का नशा इतना था कि कुछ सौ रुपये तुच्छ भेंट लग रहे थे। बस उसी दिन शाम को जरा गर्दन झुका नीचे देखा, दिल में गेस्ट रूम पर नजर गई, कोई था अन्दर, पूछा, आप कौन , थोड़ा अजीब किस्म का था। मतलब जो बिना पूछे ही अन्दर चला आया हो। पूछने पर हंसते हुए इतनी जल्दी से बोला ‘भ्रष्टाचार कहते हैं जी मुझे’। मुझे समझ में नहीं आया या समझना नहीं चाहा पता नहीं। दोबारा पूछ लिया, क्या कहा आपने? तो बोला- हे हे भाई साहब कह सकती हो जी आप मुझे। मतलब जान ना पहचान रिश्ता भी बना लिया। फिर बोला पेइंग गेस्ट हूं जी मैं और आपके छोटे मोटे काम भी निपटा दिया करूँगा। अजीब तो था पर बहुत बुरा नहीं लगा मुझे वो, बल्कि थोड़ा काम का लगा। तो मुस्कुरा कर गर्दन हिलाते हुए रहने की इजाजत दे दी। हालांकि उसने मांगी ही कब थी। मुस्कुराते हुए एक अच्छी फीलिंग आई थी मुझे।
अब ये दिल में रहने वालों की अच्छी या बुरी फीलिंग्स ही होती हैं, जो आदमी को कहीं का नहीं रहने देती, वरना इतनी बुरी भी नहीं है जिंदगी।
तो उसके बाद मैंने पाया कि काफी हेल्पफुल हैं, भाईसाहब। अब देखिये ड्राईविंग लाइसेंस बनवाना था, तो एक से जान-पहचान करवा दी। माने तीन सौ वाला काम दो सौ में बनवा दिया। घर में गैस की किल्लत थी तो, ब्लैक में सिलेंडर दिलवा दिए वो भी दो-दो। मतलब कुछ चमत्कारी से थे। दफ्तर में अब कोई एरियर, लोन, जीपीएफ वगैरह का काम रुकता ही नहीं था। इनकी जान पहचान हर जगह निकल आती, बस फिर कुछ तय होता दोनों के बीच और फटाफट काम बन जाता। मैंने देखा बड़ा ध्यान रखते हैं सबका, किसी को बच्चों की मिठाई के लिए दे देते हैं, किसी को चाय पानी के लिए, किसी को तेल का खर्चा, कई बार तो किसी की जेब में जबरदस्ती ही डाल देते हैं, गांधी बाबा को मोड़ कर। बड़े हंसमुख है, लोग खुश होते हैं इनसे मिलकर। नैगोशिएशन में तो माहिर हैं। मुझे भी आदत सी हो गई है, इनसे हर मामला डिस्कस करके ही, कोई निर्णय लेती हूं। और कमाल ये कि हर बार पपलु फिट हो ही जाता है।
अब हुआ यूं कि 25 अगस्त को शाम यूं ही टहल रही थी, पैर के नीचे कुछ चुभता सा महसूस हुआ। देखने को झुकी थी। तभी दिल के बाहर वाले गेट पर कोई बैठा दिखा। थोड़ा कमजोर सा, कोई बुजुर्ग लग रहा था। पैर की चुभन भूल गई मैं। पूछा- जी किससे मिलना है? आवाज अलबत्ता बुलंद थी उनकी। बोले- आप ही के पास आया हूं। मैं हैरान थी उनका चेहरा देख कर। अन्ना थे! जहां पूरा देश उनकी झलक पाने को दिन रात टीवी से चिपका था, लोग बेतहाशा दिल्ली की ओर भाग रहे थे, हर कोई टोपी लगा खुद वही बनने की कोशिश कर रहे थे। वो यहाँ खुद। बड़े शांत थे वो, बोले, अंदर आने को कहोगी या यूं ही बाहर से...। नहीं, नहीं प्लीज आईये और मैंने मुड़ कर सरसरी नजर डाली दिल पे। कहाँ बैठाउं, फिर पता नहीं क्या सोच कर गेस्ट रूम ही खोल दिया। वहाँ भाई साहब आराम से पैर फैलाये सो रहे थे। थोड़ा झिझोड़ा उनको सुनिये, उठिये, ये अपने अन्ना जी आये हैं। आश्चर्य, भाई साहब ने बस एक आंख खोल कर देखा, अपने कानों के स्पीकर फिर से एडजस्ट किए और,.... पलट कर फिर से सो गये। मैंने अन्ना से निवेदन किया कि देखिये आप दोनों यहीं रह लीजिए एक साथ। मैंने देखा ज्यादा डिमांडिंग नहीं थे अन्ना। अपना झोला साथ लाये थे, वहीं कुर्सी पर बैठ गए शांत भाव से। कुछ लेंगे आप, मैंने पूछा। नहीं मैं 16 अगस्त से अनशन पर हूं। कोई ज्यादा आवभगत नहीं कर पाई थी मैं उनकी, पर मैंने पाया कि फीलिंग अच्छी आ रही थी मुझे उनके आने से। और अब जाने क्यूं मुझे भाईसाहब का बिहेवियर थोड़ा खटकने लगा। आखिर बुजुर्ग हैं देश के लिए इतना कर रहे हैं, कुछ तो तमीज से पेश आना चाहिए था। खैर मुझे बाजार जाना था। रेलवे रोड़ के नुक्कड़ वाले मैदान में भीड़ लगी थी। लोग अन्ना हजारे के नारे लगा रहे थे, कुछ भाषण दे रहे थे, कुछ युवा युवतियां मस्ती में देश-भक्ति के गानों पर अपनी नृत्य प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे थे। पता नहीं आज मुझे भाईसाहब से सलाह लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई। सीधे जलसे में पहुंच गई। मुझे फील हुआ है कि, बुरा लग गया है भाईसाहब को, बड़बड़ा रहे हैं। देखो, सब लीडर बन रहे हैं। यूं नाचने गाने से, भूखे रहने से कहीं कानून बना करते हैं। देश में संसद है, लोकतंत्रीय प्रणाली है, सिस्टम है। पर नहीं लोगों को हुड़दंग मचाने से काम है। कुछ नहीं होने वाला इस देश का। वो जानकर अन्ना को सुनाने के लिए जोर से बोलने लगे थे। पर अन्ना शान्त भाव से ‘वैष्णव जन तो’ गुनगुना रहे हैं।
मैं सबके साथ हूं,,,,, भाई साहब के भी,,,, अन्ना के भी,,,, भीड़ के भी।
दरअसल समझ ही नहीं आ रहा है कि किस का साथ छोडूं और क्यों छोडू और किसके भरोसे पर छोडू। जानें क्यूं , मैंने भाईसाहब को कहा कि थोड़े दिन कहीं घूम आईए। अन्ना भी चैन से रह लेंगे तब तक, कौन हमेशा के लिए रहने आए हैं। पर नहीं,,, भाईसाहब जमे हैं। बोले, रेन्ट बढ़ाना चाहती हो, बढ़ा लो मैं पे कर दूंगा। मैं दोनों की झड़प देखती रहती हूं। कभी-कभी अन्ना सीधे सटीक जवाबों से चुप करवा देते हैं इनको,, बस यूं ही छीटे बोछारों के बीच 27 अगस्त आ गई और ऐतिहासिक फैसला हुआ, अन्ना के पक्ष में। मान ली गई सारी मांगे, कल सुबह अन्ना अपना अनशन तोड़ देंगे। मैं दंग हूं इनकी सहन शक्ति, निर्णय शक्ति और इच्छा शक्ति देख कर।
सुबह आठ बजे का वक्त है, दिल थोड़ा ज्यादा धडक़ रह है। टीवी से चिपकी हूं.. बेताब हूं वो मंजर देखने को, जब अन्ना अनशन तोड़ेंगे। देखा दिल के गेस्ट रूम में भी कुछ आवाजें आ रही हैं। मेरे वाले अन्ना, अपना सामान समेट रहे हैं। मैंने पूछा, आप? बोले बस जा रहा हूं। काम जो पूरा हो गया है, वैसे मुझे अच्छा लगा आपके यहां, आता रहुंगा, कभी दिल किया जब, कुछ आशीष सा देते हुए हाथ रख दिया मेरे सिर पर। जाने क्यूं चाहते हुए भी रोक नहीं पाई। तभी दूसरी तरफ देखा भाईसाहब भी बैग पकड़े खड़े हैं। मैंने पूछा आप, अन्ना के साथ जा रहे हैं। थोड़ा खिसिया गये, बोले नहीं बस यूं ही बोर सा हो गया हूं, इनके साथ रहते रहते थोड़े दिन पहाड़ों पर घूम कर आता हूं। टेबल पर मोबाईल नंबर रख दिया है कोई काम हो तो फोन कर लेना।
दोनों निकल गए अपनी-अपनी राह, मैंने गेस्टरूम में सफाई के लिए बोल दिया है। अलबत्ता मोबाईल नंबर उठाकर संभाल कर रख लिया है। बड़ा खाली-खाली सा लग रहा है।
अजीब फीलिंग आ रही है, कभी खुशी की, कभी दुख की... बताया था मैंने, ये दिल में रहने वालों की अच्छी या बुरी फीलिंग्स ही हैं, जो आदमी को कहीं का नहीं रहने देती। वरना इतनी बुरी भी नहीं है जिंदगी।
डॉ. पूनम परिणीता

सुन ले दिल की पुकार...

बस कुछ यूं ही मैं शनिवार को मंदिर गई थी, वो माता की इतनी बड़ी मूर्ति है कि उसके पीछे आराम से छुपा जा सकता था। मैं तो बस प्रार्थना कर रही थी, वो तो मेरा मन जा छिपा था, मूर्ति के पीछे और सबकी प्रार्थना, दुआ, अरदास सुनने लगा था और उस दिन जाना कितना मुश्किल है भगवान होना। सबसे पहले वो मां और बेटी आई थी। जहां मां ने पीली कनेर के फूल चढ़ाये, बेटी ने जीन्स की पिछली जेब से निकाल कर दस रुपये का नोट चरणों में रख दिया था। पहली अपील मां की तरफ से आई-हे देवी, वो जो जबलपुर से रिश्ता आया है ना इसके लिए, वहीं बात पक्की करा दो। खर्चा वगैरह तो देख लेंगे, बाकी मैया तेरा आसरा तो है ही। थोड़ी जल्दी बात बन जाए तो अक्टूबर में रख दूंगी शादी। पहला कार्ड देकर जाऊंगी मैया।
तभी बेटी ने पुकार लगाई-माता किसी तरह मम्मी-पापा को मना दे राहुल के लिए, इनके दिमाग से कास्ट की बात निकाल दे और हां वो जबलुर वाले रिश्ते की ना करवा देना। देखो मैंने व्रत राहुल के लिए रखे हैं, ना कि उस जबलपुर के सड़ी शक्ल वाले के लिए। मैंने देखा मां थोड़ी असमंजस में थीं। जाने क्या फैसला देंगी। पता नहीं कैसे डिसाइड करेंगी कि किसने ज्यादा श्रृद्धा से मांगा है।  तभी, डाक्टर साहब की प्रार्थना फुसफुसाने लगी, बकायदा बर्फी के साथ थी। नई एमआरआई मशीन आ गई है, मैया। फिट भी करवा दी है। लोन थोड़ा ज्यादा ही हो गया है, कृपा करना। मतलब सौ मरीज भी रोज के आ जाएं तो साल भर में उतर जाएगा। की तो है दो-तीन और डाक्टरों से बात, वो भी भेजेंगे रेफर करके। बस अपनी दया का हाथ रखना मां। तब तक नीचे चटाई पर बैठे गुप्ता जी का ‘दुर्गा क्वच’ खत्म हो चुका था। दो बार सिर से लगाकर रख दिया वापिस और कहने लगे-माता बस इन बड़ी बीमारियों से दूर रखियो, एक अटैक में तो आपकी कृपा से बच गया था। देखो अब तो सैर भी करता हूं, दवाई भी वक्त पर लेता था। बस इन डाक्टरों का मुंह माथा न देखना पड़े।
मेरा मन तो बस भक्तों की पुकार सुनने तक ही सीमित है। माता क्या सोचती हैं, नहीं कह सकती। उनके लिए तो सब बराबर हैं। अब इस युवा की प्रार्थना मैं सुन नहीं पा रही हूं या ये कुछ मांग ही बड़ी रहा है। हां बुदबुदाया तो- इस बार इंटरव्यू क्लीयर करवा दो मां, वरना ओवरएज हो जाऊंगा। तू तो घर की हालत जानती है, कहां से लाऊं इतने लाख रुपये देने को, बस आगे उससे कुछ बोला नहीं जा रहा था। वो सर झुकाकर जल्दी निकल गया। तब तक सफेद कपड़े वाले तीन-चार आदमी एक साथ आ गए थे। दान-पात्र में सौ-सौ के कुछ नोट डाल रहे थे। उनमें से एक माता से कह रहा था, तेरी बड़ी कृपा है माता, बस अपना आशीर्वाद बनाए रखना। पांच-चार नौकरियों वाले फिट करवा दूं, फिर मंदिर का कमरे का काम शुरू करवा दूंगा। बस यूं ही कृपा रखना माता। मैं माता की परेशानी समझ सकती थी। रात के दूसरे पहर जब पुजारी ताला लगा कर सो जाता होगा, तब कैसे करती होगी सबका लेखा-जोखा। बाकी की कुछ रुटीन प्रार्थनाएं थी, मसलन, मकान पूरा करवा देना, रिजल्ट अच्छा देना, प्रमोशन करवा देना, बड़ी वाली गाड़ी तथा कुछ शरीर संबंधी बीपी, शुगर कंट्रोल करा दो जैसी।
पर तभी एक छोटा बच्चा अपनी मां के साथ आया था। मेरी दिलचस्पी उसकी प्रार्थना में थी। लो वो तो आते ही शुरू हो गया। हे भगवान, एक तो फुटबॉल मैच में सेलेक्शन करवा देना, यूनिट टेस्ट में ए ग्रेड दिलवा देना और मम्मी कल पॉकेट मनी दे दें और आपको पता ही है मेरे पापा पुलिस में हैं, उनको छुट्टी नहीं मिलती, वो कह रहे थे कि कुछ देशभक्त किस्म के लोग सत्ता में आ जाएं तो कुछ सुधार हो और हमें भी शांति मिल जाए। तो उनको वो-वो दे देना। और हां मम्मी मुझे जाते हुए आईसक्रीम के लिए मना ना करे। मुझे लगा माता को इनकी बात तो तुरंत मान लेनी चाहिए। मेरी भी प्रार्थना खत्म हो चुकी है, चलना चाहिए। कहीं भगवान इसीलिए तो पत्थर नहीं हो गए। मैं सोचती जा रही थी...।
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नदी को निमंत्रण और विनम्र इनकार

बंजारा मन मेरा; यूं तो घूमता ही रहता है। पर पिछले दिनों सशरीर पहुंचा मनाली। कुल्लु के पास एक कस्बा है बजौरा, वहां एक फेसबुक डाक्टर मित्र के पास जाना हुआ। बच्चे कुछ यूं घुलमिल गए कि रात वहीं ठहरने का प्रोग्राम बन गया। तभी सोच लिया था कि सुबह की सैर पहाड़ों के बीच करूंगी। अलसभोर उठे, मैं और उनका बड़ा बेटा कैमरा लिए चल दिए। उसने बताया कि कोई दो किलोमीटर दूर ब्यास नदी बहती है। उस नदी तक पहुंचने में छोटा-सा एक जंगल पार करना पड़ा। पर जब नदी पर पहुंचे तो वहां अद्भुत नजारा था। सुबह जैसे पहाड़ के पीछे से होने को बेकरार, पहाड़ जैसे बादलों से मिलकर रात को रोकना चाह रहे थे। नदी इन सब से बेखबर बस बहे चले जा रही थी। हर शहर का एक अलग मिजाज हुआ करता है और शायद वो ही कहीं आदमियों का मिजाज भी तय करता है। धीरे-धीरे नदी में चलते-चलते कब उससे बतियाना शुरू कर दिया, पता नहीं चला। हम मैदानी सोहबत वाले पहाड़ों से नदियों से बात करना क्या जानें, पर फिर भी बातों-बातों में नदी से कह दिया-तुम कैसे यहां, कभी पहाड़ों के बीच, कभी घाटियों में घुट-घुट कर चलती हो। सुनो हमारे साथ चलो, वहां मैदानों में भरपूर बहो और भर दो धरती का आंचल हरियाली से। फिर देखो तुम्हारी भी वाह और हम भी कुछ कमा लेंगे तुम्हारे सहारे। जाने कब मैदानों में छोटी-छोटी नहरों से पानी काटने की मानसिकता हावी हो गई थी मन पर कि इतनी बड़ी नदी को यूं ही बहता देख न्यौता दे बैठी। जाने किसी ने पत्थर नदी में उछाला था कि यूं ही छपाक की आवाज आई। लगा जोर से हंसी वो मुझ पर। बोली, पहली बार पहाड़ों से उतरती घाटियों में बहती नदी देख रही हो शायद। तुम्हारे आमंत्रण के लिए धन्यवाद। मेरा भी मन करता है दूर तक अविरल बहने को। धान, सुनहरी कनक की बलियां पहनने को और चुनर ओढऩे को। यूं सज-संवर कर किसी मैदान की हो जाने को। पर जानती हो ये पहाड़ हैं ना, बाबा हैं मेरे। अब बूढ़े हो गए हैं, ये घाटियां बचपन की सहेलियां है और नक्शे में देखना, जहां आखिरी छोर है ना मेरा, वहां सागर है। कितने जन्मों से मेरी ही राह देखता है। मैं तुम्हारे साथ चल दी तो ये सब अकेले पड़ जाएंगे। हां,पर मेरा कुछ पानी ले जाना अपनी धरती पर छिड़क देना। देखना धीरे-धीरे पानी को काटना और पानी के लिए काटना भूल जाओगे। तब कभी होले-होले चलती हवाओं में बुलाना मुझे। कौन जाने हवाओं का रुख मुझे भी बहा ले जाए वहां, जहां तुम बुलाती हो मुझे और जब तक उस नदी के पानी की अंजुलि मैं भरती, एक लहर मुझे पूरा भिगो गई।
डा. पूनम परिणिता

यूं ही बरस कर चूक गया मेरे मन का सावन

पिछले हफ्ते हुई इस मानसून की पहली बारिश। और कहीं का नहीं कह सकती पर हिसार मौसम की सारी भविष्यवाणियां फेल करने में लगभग अव्वल है। तो पहली बारिश में कुर्सी बाहर निकलवा ली। इतनी बाहर कि पैर भीगते रहें, बाकी सब बचा रहे। पर कुछ बूंदे पैर पर पड़ते ही सबसे पहले मन भीग गया। क्यूंकि मन बैठा ही कहां था कुर्सी पर, वो तो निकल चला था बारिश में पैरों से भी कहीं पहले। और मन के हाथों में थी रस्सी और झूलने वाली पटरी। झूला डालना चाहता था कहीं, किसी बड़े नीम के पेड़ पर।ये तो अच्छा है कि मन के पैर नहीं हैं, पर हैं, वरना जितना ये उड़ता-फिरता है, इससे तो बचपन में आर्थराईटिस हो जाए। पता है कहां पहुंच गया है सीधे मायके। पता नहीं कैसा रिश्ता है, सावन, बूंदे, तीज, मायका, सिंघारा, घेवर। एक दूसरे में गुथे-मुथे सब। मन अब भी ढूंढ रहा है, घर के आस-पास का कोई पेड़। पर नाकाम है। वो जो मंदिर के पास वाला नुक्कड़ था और वहां जो बड़ा नीम का पेड़ था, वहां आजकल लाइन से तीन हस्पताल बन चुके हैं। और वो पेड़ कब का पार्किंग की बलि चढ़ चुका है। जाने घर-घर किसे देख रहा है।
सीमा, कविता, बबली, पिंकी, पायल और सोनिया कब की ब्याही जा चुकी हैं। सीमा कितनी ऊंची पींग चढ़ाती थी। नीम की आखिरी टहनी के पत्ते तोड़ कर लाती तो उसकी दादी कहती छोरी ज्यादा न उड़े। लड़कियों के पैर धरती पर लगे रहने बहुत जरूरी है। और सीमा वही पत्ते दादी पर उड़ा देती और दादी की नसीहत को हवा में। मुझे जोर से नहीं, हौले-हौले देर तक झुलाना पसंद था। सो मैं अपनी बारी आराम से किसी को भी दे देती, ताकि आखिरी में देर तक झूल सकूं। ना मन को मिला यहां कोई, ना कोई पुरानी सहेली, ना कोई पुराना पेड़। मैंने अभी-अभी कुछ चिडिय़ों को बारिश में पंख फैला कर नहाते देखा है। कहते हैं अगर चिडिय़ा यूं नहाये तो बारिश अच्छी होती है। मन फिर उड़ चला, अब पहुंचा है ससुराल। ढूंढ रहा है मेहंदी भर-भर हाथ, लाल जोड़े की बहुएं, पुराने लोकगीत, मीठे गुलगुले, सुहाली, बड़े वाले बताशे और एक अदद पेड़, झूला डालने के लिए।
कहां मिलना था, कुछ पुरानी बहुएं सब बच्चों और नौकरियों के साथ दूसरे शहरों में चली गईं और अब की जो हैं, उनके हाल अजब हैं। मेहंदी भी है, चूड़ा भी पर लाल जोड़े की जगह जींस और टॉप है। बालों के ऊपर चश्मा फंसा है, झूलने के लिए अपना स्कूटर है, गाड़ी है। बेचारा मन रस्सी कंधे पर लटकाये, पटरी ऊंगलियों में फंसाये लौट आया है, मेरे पास। मैंने थोड़ा प्यार से सहलाया इसे, तो फिर लगा ढूंढने यहीं आसपास ही, मिल जाए कोई पेड़ (इसी वर्तमान कालोनी में) पर यहां तो आसपास ट्री गार्ड में भिंचे-भिंचे से कुछ पेड़ हैं। हाय! यूं ही बरस कर चूक गया मेरे मन का सावन, यूं ही बिन झूले बीत गई मेरे मन की तीज।
मोबाइल की धुन में मन को वापिस अपने कोटर में ला बैठाया। मिसेज तायल का फोन था, कह रही थीं, तीज महोत्सव में तीज क्वीन चुनने के लिए मुझे जज बनाना चाहती हैं। खूब धमाल होगा। इस बार तीज पर तंबोला, एक मिनट गेम शो, डीजे, स्टॉल्स। मैंने हां कह दी है। तभी बाई ने आकर कहा, कल की छुट्टी दे देंगे, मैडम जी तीज है। बच्चों को पास वाले पेड़ में झूला डाल देंगे, सभी झूल लेंगे मिलकर। मनाई लेंगे तीज। मुझ से कहीं पहले मन बोल पड़ा-कर लेना छुट्टी, हां-हां ठीक है।
-डा. पूनम परिणिता

गुनगुनाती सुबह और 'अपनों' का साथ

पिछले एक साल से आ रही हूं इस पार्क में, सुबह-सुबह घूमना मुझे पसंद है सो निकल आती हूं। अकेली आती हूं, किसी को जानती नहीं हूं या कहिए कि अपने ढंग से जानती हूं। आइए आपको भी मिलवाती हूं अपने पार्क के सहवाकियों से नहीं। नहीं समझे, मतलब साथ वाक करने वाले। जैसे ही पार्क के गेट पर पहुंचती हूं, साथ-साथ एक बुजुर्ग भी पहुंच जाते हैं। करीब 65 वर्ष के होंगे, वो भी समय के पक्के, और मैं भी।
तीन वर्ष के पोते के साथ आते हैं। अपने हिस्से का जी चुके हैं शायद, बच्चे के साथ पुनर्जन्म में हैं यानि अपने बचपन में। चलो-चलो दौड़ो-दौड़ो दादा पकड़ेंगे, वंशु को। मैं जान गई हूं, बच्चे का नाम। थोड़ी देर दोनों भागेंगे, फिर वंशु उन्हें झूले पर चलने के लिए कहेगा, फिर वो उसे झुलाएंगे। तब तक मैं थोड़ा आगे निकल आती हूं, वो जो दोनों साड़ी वाली, थोड़ी थुलथुल हैं, उन्हें क्रास कर रही हूं। मिसेज बंसल, गरमी में बस जान निकल रही है। ऊपर से लाइट ने परेशान कर रखा है। कल तो आप वाले तरीके से बनाए करेले, स्वाद बनें। पूछ रहे थे इनके पापा मैंने कह दिया टीवी से सीखें हैं। यूं ही थोड़े बस सीरियल ही देखती हूं, खाना खजाना से देखे थे। मिसेज कपूर आज कुछ परेशान लग रही हैं। मानव स्वभाव है। मैं उनके पास से थोड़ा धीरे गुजर रही हूं ताकि कुछ पता लग सके। कल बेटे-बहू ने अपने कमरे में एसी लगवा लिया है। मैं समझ नहीं पाई, बेटे की तरक्की की खुशी थी या अपने पति द्वारा एसी ना लगवा पाने की खीज। खैर दो चार रोज में खुलासा हो ही जाएगा।
ये निकल गया दौड़ता हुआ एक युवा लड़का मेरे पास से। अब खीजने की बारी मेरी है, इतने दिन हो गए पार्क में आते, लगभग सबको जानती हूं। परंतु आजकल के ये युवा अपना कोई भेद नहीं देते। पता नहीं क्या नाम है, क्या करता है, क्या सुनता रहता है, जब तक मैं सौ मीटर चलूंगी, ये दौड़ता हुआ पार्क से बाहर चला जाएगा। किसी दिन पास बैठकर सब पूछ लूंगी। अब ये जोड़ी जो मेरे आगे जा रही है मेरी पसंदीदा है, ये है दीया और मानवी। दिन महीने, साल, मौसम बीत जाए पर इनकी बातें हमेशा एक सी रहती हैं। ‘दीया, देख मैंने थोड़ा लूज किया क्या, चार दिन से फर्क लग रहा होगा, पता है अब तो वो ब्लू वाली ड्रेस भी फिट आने लगी है। मानवी, यार कल तो बच गए, मम्मी को पता लगने वाला था, उस बाइक वाले के बारे में। ‘आज चलोगी क्या मॉल।’ बातों का क्रम जरूर ऊपर नीचे हो सकता है पर विषय नहीं। दोनों मुझे देखकर स्माइल करती हैं, बदले में मैं भी थोड़ा मुस्करा देती हूं।
अब निकल रही हूं, उन तोंदू सज्जन के पास से, अब ये बड़ी गड़बड़ है। जैसे ही मैं इनके पास से निकलती हूं, इनकी पूरी योग साधना खत्म हो चुकी होती है और ये दोनों हाथ ऊपर उठाकर जोर-जोर से हंसना शरू कर देते हैं, पहले दिन तो मैं थोड़ा डर ही गई थी पर अब अंदर ही अंदर मैं हंसती हूं जोर से। अजीब है ना हम भी। यहां से निकलते वो भजनों की धुन शुरू हो जाती है। नारायणी, सावित्री, शकुंतला, शीला ये कुछ नाम है इस वृद्ध महिला मंडली के सदस्यों के इनमें से शकुंतला की आवाज अच्छी है और भजनों की धुन भी। वैसे कभी-कभी मेरा मन करता है थोड़ी देर बैठूं इनके बीच। नये जमाने से बेपरवाह ये अपनी संस्कृति को सहेजे, चुपचाप इसे फिजा में घोलती रहती हैं। कौन जाने इस नई पीढ़ी के कानों में लगे स्पीकर कुछ देर उतरे और ये शायद बना लें अपनी जगह इनके अंत: कान में, कभी न बाहर जाने के लिए। मेरा भी राउंड पूरा होने को है
अंत में ये महाशय भी जरूर मिलते हैं, प्रशासनिक अधिकारी हैं शायद, इनका मोबाइल कभी इनके कान से हटता नहीं। एक लंबी सी... हां प्रदीप कुमार...अफसर बोल रहा हूं। मुझे दस मिनट बाद फोन करना। हर आदमी से यहीं कहते हैं। रोज वाक करते हैं, ये तो नहीं अलबत्ता इनका फोन हर दूसरे महीने स्लिम होता जाता है। मेरे साथ-साथ आप भी जान गए न सबको। सामने ही पार्क का गेट है, अब मैं जा रही हूं, मिस्टर अग्रवाल अंदर आ रहे हैं। पैरालिटिक अटैक से उबर रहे हैं, धीरे-धीरे ठीक हो रहे हैं। ये सब मुझे प्रेरणा देते हैं, रोज नया जीवन जीने की, संघर्ष करने की। रोज नए लोगों को जानना, उनके बारे में सोचना, लिखना अच्छा लगता है। आप भी जाते हैं क्या उस पार्क में? अगर हां तो मैं आपसे भी मिलना चाहूंगी।
-डा. पूनम परिणिता