नदी को निमंत्रण और विनम्र इनकार

बंजारा मन मेरा; यूं तो घूमता ही रहता है। पर पिछले दिनों सशरीर पहुंचा मनाली। कुल्लु के पास एक कस्बा है बजौरा, वहां एक फेसबुक डाक्टर मित्र के पास जाना हुआ। बच्चे कुछ यूं घुलमिल गए कि रात वहीं ठहरने का प्रोग्राम बन गया। तभी सोच लिया था कि सुबह की सैर पहाड़ों के बीच करूंगी। अलसभोर उठे, मैं और उनका बड़ा बेटा कैमरा लिए चल दिए। उसने बताया कि कोई दो किलोमीटर दूर ब्यास नदी बहती है। उस नदी तक पहुंचने में छोटा-सा एक जंगल पार करना पड़ा। पर जब नदी पर पहुंचे तो वहां अद्भुत नजारा था। सुबह जैसे पहाड़ के पीछे से होने को बेकरार, पहाड़ जैसे बादलों से मिलकर रात को रोकना चाह रहे थे। नदी इन सब से बेखबर बस बहे चले जा रही थी। हर शहर का एक अलग मिजाज हुआ करता है और शायद वो ही कहीं आदमियों का मिजाज भी तय करता है। धीरे-धीरे नदी में चलते-चलते कब उससे बतियाना शुरू कर दिया, पता नहीं चला। हम मैदानी सोहबत वाले पहाड़ों से नदियों से बात करना क्या जानें, पर फिर भी बातों-बातों में नदी से कह दिया-तुम कैसे यहां, कभी पहाड़ों के बीच, कभी घाटियों में घुट-घुट कर चलती हो। सुनो हमारे साथ चलो, वहां मैदानों में भरपूर बहो और भर दो धरती का आंचल हरियाली से। फिर देखो तुम्हारी भी वाह और हम भी कुछ कमा लेंगे तुम्हारे सहारे। जाने कब मैदानों में छोटी-छोटी नहरों से पानी काटने की मानसिकता हावी हो गई थी मन पर कि इतनी बड़ी नदी को यूं ही बहता देख न्यौता दे बैठी। जाने किसी ने पत्थर नदी में उछाला था कि यूं ही छपाक की आवाज आई। लगा जोर से हंसी वो मुझ पर। बोली, पहली बार पहाड़ों से उतरती घाटियों में बहती नदी देख रही हो शायद। तुम्हारे आमंत्रण के लिए धन्यवाद। मेरा भी मन करता है दूर तक अविरल बहने को। धान, सुनहरी कनक की बलियां पहनने को और चुनर ओढऩे को। यूं सज-संवर कर किसी मैदान की हो जाने को। पर जानती हो ये पहाड़ हैं ना, बाबा हैं मेरे। अब बूढ़े हो गए हैं, ये घाटियां बचपन की सहेलियां है और नक्शे में देखना, जहां आखिरी छोर है ना मेरा, वहां सागर है। कितने जन्मों से मेरी ही राह देखता है। मैं तुम्हारे साथ चल दी तो ये सब अकेले पड़ जाएंगे। हां,पर मेरा कुछ पानी ले जाना अपनी धरती पर छिड़क देना। देखना धीरे-धीरे पानी को काटना और पानी के लिए काटना भूल जाओगे। तब कभी होले-होले चलती हवाओं में बुलाना मुझे। कौन जाने हवाओं का रुख मुझे भी बहा ले जाए वहां, जहां तुम बुलाती हो मुझे और जब तक उस नदी के पानी की अंजुलि मैं भरती, एक लहर मुझे पूरा भिगो गई।
डा. पूनम परिणिता