गुनगुनाती सुबह और 'अपनों' का साथ

पिछले एक साल से आ रही हूं इस पार्क में, सुबह-सुबह घूमना मुझे पसंद है सो निकल आती हूं। अकेली आती हूं, किसी को जानती नहीं हूं या कहिए कि अपने ढंग से जानती हूं। आइए आपको भी मिलवाती हूं अपने पार्क के सहवाकियों से नहीं। नहीं समझे, मतलब साथ वाक करने वाले। जैसे ही पार्क के गेट पर पहुंचती हूं, साथ-साथ एक बुजुर्ग भी पहुंच जाते हैं। करीब 65 वर्ष के होंगे, वो भी समय के पक्के, और मैं भी।
तीन वर्ष के पोते के साथ आते हैं। अपने हिस्से का जी चुके हैं शायद, बच्चे के साथ पुनर्जन्म में हैं यानि अपने बचपन में। चलो-चलो दौड़ो-दौड़ो दादा पकड़ेंगे, वंशु को। मैं जान गई हूं, बच्चे का नाम। थोड़ी देर दोनों भागेंगे, फिर वंशु उन्हें झूले पर चलने के लिए कहेगा, फिर वो उसे झुलाएंगे। तब तक मैं थोड़ा आगे निकल आती हूं, वो जो दोनों साड़ी वाली, थोड़ी थुलथुल हैं, उन्हें क्रास कर रही हूं। मिसेज बंसल, गरमी में बस जान निकल रही है। ऊपर से लाइट ने परेशान कर रखा है। कल तो आप वाले तरीके से बनाए करेले, स्वाद बनें। पूछ रहे थे इनके पापा मैंने कह दिया टीवी से सीखें हैं। यूं ही थोड़े बस सीरियल ही देखती हूं, खाना खजाना से देखे थे। मिसेज कपूर आज कुछ परेशान लग रही हैं। मानव स्वभाव है। मैं उनके पास से थोड़ा धीरे गुजर रही हूं ताकि कुछ पता लग सके। कल बेटे-बहू ने अपने कमरे में एसी लगवा लिया है। मैं समझ नहीं पाई, बेटे की तरक्की की खुशी थी या अपने पति द्वारा एसी ना लगवा पाने की खीज। खैर दो चार रोज में खुलासा हो ही जाएगा।
ये निकल गया दौड़ता हुआ एक युवा लड़का मेरे पास से। अब खीजने की बारी मेरी है, इतने दिन हो गए पार्क में आते, लगभग सबको जानती हूं। परंतु आजकल के ये युवा अपना कोई भेद नहीं देते। पता नहीं क्या नाम है, क्या करता है, क्या सुनता रहता है, जब तक मैं सौ मीटर चलूंगी, ये दौड़ता हुआ पार्क से बाहर चला जाएगा। किसी दिन पास बैठकर सब पूछ लूंगी। अब ये जोड़ी जो मेरे आगे जा रही है मेरी पसंदीदा है, ये है दीया और मानवी। दिन महीने, साल, मौसम बीत जाए पर इनकी बातें हमेशा एक सी रहती हैं। ‘दीया, देख मैंने थोड़ा लूज किया क्या, चार दिन से फर्क लग रहा होगा, पता है अब तो वो ब्लू वाली ड्रेस भी फिट आने लगी है। मानवी, यार कल तो बच गए, मम्मी को पता लगने वाला था, उस बाइक वाले के बारे में। ‘आज चलोगी क्या मॉल।’ बातों का क्रम जरूर ऊपर नीचे हो सकता है पर विषय नहीं। दोनों मुझे देखकर स्माइल करती हैं, बदले में मैं भी थोड़ा मुस्करा देती हूं।
अब निकल रही हूं, उन तोंदू सज्जन के पास से, अब ये बड़ी गड़बड़ है। जैसे ही मैं इनके पास से निकलती हूं, इनकी पूरी योग साधना खत्म हो चुकी होती है और ये दोनों हाथ ऊपर उठाकर जोर-जोर से हंसना शरू कर देते हैं, पहले दिन तो मैं थोड़ा डर ही गई थी पर अब अंदर ही अंदर मैं हंसती हूं जोर से। अजीब है ना हम भी। यहां से निकलते वो भजनों की धुन शुरू हो जाती है। नारायणी, सावित्री, शकुंतला, शीला ये कुछ नाम है इस वृद्ध महिला मंडली के सदस्यों के इनमें से शकुंतला की आवाज अच्छी है और भजनों की धुन भी। वैसे कभी-कभी मेरा मन करता है थोड़ी देर बैठूं इनके बीच। नये जमाने से बेपरवाह ये अपनी संस्कृति को सहेजे, चुपचाप इसे फिजा में घोलती रहती हैं। कौन जाने इस नई पीढ़ी के कानों में लगे स्पीकर कुछ देर उतरे और ये शायद बना लें अपनी जगह इनके अंत: कान में, कभी न बाहर जाने के लिए। मेरा भी राउंड पूरा होने को है
अंत में ये महाशय भी जरूर मिलते हैं, प्रशासनिक अधिकारी हैं शायद, इनका मोबाइल कभी इनके कान से हटता नहीं। एक लंबी सी... हां प्रदीप कुमार...अफसर बोल रहा हूं। मुझे दस मिनट बाद फोन करना। हर आदमी से यहीं कहते हैं। रोज वाक करते हैं, ये तो नहीं अलबत्ता इनका फोन हर दूसरे महीने स्लिम होता जाता है। मेरे साथ-साथ आप भी जान गए न सबको। सामने ही पार्क का गेट है, अब मैं जा रही हूं, मिस्टर अग्रवाल अंदर आ रहे हैं। पैरालिटिक अटैक से उबर रहे हैं, धीरे-धीरे ठीक हो रहे हैं। ये सब मुझे प्रेरणा देते हैं, रोज नया जीवन जीने की, संघर्ष करने की। रोज नए लोगों को जानना, उनके बारे में सोचना, लिखना अच्छा लगता है। आप भी जाते हैं क्या उस पार्क में? अगर हां तो मैं आपसे भी मिलना चाहूंगी।
-डा. पूनम परिणिता