बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया...

आज एक बार फिर इंडोनेशिया याद आया है, पर संदर्भ अच्छा नहीं है। जब मैं वहां गई थी, तो चार युवा साथियों का एक समूह हमें लेने आए। बच्चे कहूंगी उन्हें, क्योंकि 17-20 वर्ष की उम्र के होंगे वे सब। हमें देख कर वे इतने खुश हुए और इतनी आत्मीयता से मिले कि क्षण को भी ये नहीं लगा कि कहीं दूर देश में आए हैं। हमारा सामान उठाए, हमें यूनिवर्सिटी कैंपस में फैकल्टी हाउस में रूम में पहुंचाया। हमारे लिए खाने के अलावा, कुछ बढिय़ा खाने की चीजें भी वे लेकर आए थे। कितना सोचा होगा पहले से हमारे बारे में। हमारे टेस्ट के बारे में, हमारे कंफर्ट के बारे में, फिर सारे इंतजाम किए। उन्हीं में एक था बीमो, पूरे नाम का मतलब उसने बताया कि राजसी होता है। ओलिबीया, चित्रा और सोम्या । इन नामों के हिज्जे भले ही अंग्रेजिय़त दिखाते हों, पर असलियत में ये हिंदुस्तानी नाम हैं, अपने सही अर्थों के साथ। इंडोनेशिया में भारतीयों को बड़े ही प्यार से ट्रीट किया जाता है। वहां रामायण, महाभारत, भारतीय नृत्यों को बड़ी इज्जत से देखा जाता है। मतलब ये कि जब तक हम वहां रहे, सब बच्चों ने, फैकल्टी ने, यहां तक कि आम लोगों ने यादगार लम्हे हमें दिए। वहीं बीमों, ओलीबिया, सोम्या ने कहा कि भारत आना उनके लिए एक हसीन सपने जैसा है, वे चाहते हैं कि किसी भी तरह ये सपना पूरा हो जाए।
मैं सोच रही थी कि सपनों का पूरा ना होना अगर पैसों की कमी के चलते हो तो कितना दुखद है। तभी कहीं विचार आया था कि कोई फंड बनाया जाए जो इन लोगों की इंडिया में आने में मदद करे। उनमें से सोम्या के कोई दादा परिवार के लोग केरल से संबंधित हैं और सोम्या के पापा, जकार्ता के पास किसी जगह पर एक भारतीय रेस्तरां चलाते हैं। और अगले दिन वह खुद हमारे लिए दक्षिण भारतीय मजेदार भोजन बना कर लाए थे। वे जिस अंदाज में हमें मै-दा-म बोल रहे थे, अच्छा लगा था। उन्होंने ही बताया कि वे सोम्या को आगे की पढ़ाई के लिए भारत भेजना चाहते हैं। और उसकी शादी भी वहीं करना चाहते हैं। जब-जब भारत की तारीफ होती, हमें अच्छा लगता। मन पता नहीं कब बड़े गर्व से भर जाता। एक फंक्शन में सोम्या ने हमारे साथ साड़ी पहनी, वह बड़ी अच्छी लग रही थी। उसका रंग गहरा है, आंखें बड़ी-बड़ी हैं, बाल घुंघराले। वह खालिस दक्षिण भारतीय सुंदरता है। मैं जब से इंडोनेशिया से आई, कुछ ऐसी व्यस्त रही कि उन दोस्तों से ज्यादा संपर्क नहीं रख सकी। पर एक जुलाई को मैसेज मिला कि सोम्या को दिल्ली युनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है और वह चार जुलाई को दिल्ली पहुंच रही है। फिर पता लगा कि उसे एडजस्ट करने में मुश्किल हो रही है, लेकिन कल जो पता लगा वह शर्मनाक था कि वह एक शाम ईव टीजिंग का शिकार हुई।
बेहद दुख हुआ है। एक निजी शर्म की बात लग रही है। जीवन में सपना देखना, उसे पूरा होते देखना फिर उसका दु:स्वप्न में बदल जाना देखते-देखते, कितना बुरा लगा होगा उसे। इंडोनेशिया की बसों, ट्रेनों में, इतना अच्छा माहौल देखा था मैंने और बेहद एप्रीशिएट भी किया था। किसी को किसी से अनावश्यक मतलब नहीं। मदद के लिए बेशक हाजिर हैं पर किसी की बदनजऱ मुझे नहीं आई। और हमारे यहां आए लोगों से ऐसा व्यवहार, क्या किया जाए। कैसे किया जाए। शुरू कहां से करें। बहुत सारे सवाल हैं। जवाब कहीं नहीं, कोई नहीं है। सिवाय ढेरों शर्मिंदगी के। ऐसी ही एक बुरी खबर असम की टीवी पर बार-बार दिखाई जा रही है। लड़कियों के मामले में, मुझे भ्रूण हत्या, दूसरे दर्जे की समस्या लगती है। पहली ये है कि जो लड़कियां हमारे पास हैं, साथ हैं, उन्हें सुरक्षित माहौल दिया जाए। एक जीने लायक जीवन, फिर इन्हें भ्रूण हत्या के मायने समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, वरना कौन जाने, भ्रूण हत्या समस्या ना हो कर समाधान लगने लगे।
डॉ. पूनम परिणिता

चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए...

इक चैन ही ना मयस्सर मेरे दिल को कभी,
यूं बहलाने के, फुसलाने के तरीके बहुत हैं।
पिछला पूरा हफ्ता सुपर स्टार के शोक से गमज़दा रहा, लबो-लुवाब ये रहा कि बाज़ार में आनंद फिल्म की सीडी कहीं नहीं मिल पाई। बीमार तो राजेश खन्ना काफी अरसे से थे, पर ये उम्मीद नहीं थी कि यूं चले जाएंगे और अवाम को इस कदर रुला जाएंगे। पर साबित कर गए कि जिए तो सुपर स्टार की तरह, दुनिया को अलविदा कहा तो सुपर स्टार की माफिक।
पर एक बात मुझे साल रही है वह है सभी का ‘पोसथोमस बिहेवियर’ यानि फैंस ने, फैमिली ने, अमिताभ बच्चन ने जो किया, इसका आधा भी कहीं राजेश खन्ना के रहते किया होता तो शायद कुछ पल सुकून लम्हे उस ज़िंदगी को लंबा ना सही बड़ा तो जरूर कर जाते। पर ज़िंदगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ में है जहांपनाह! रामायण में भी जब रावण को आखिरी तीर लगता है और वह बस मरने को ही हैं, तब श्री राम, लक्ष्मण से कहते हैं कि रावण बड़े ही ज्ञानी, वेदों के ज्ञाता हैं, तुम इनसे ज्ञान प्राप्त करो और लक्ष्मण रावण के पैरों के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर विनती करते हैं तो रावण उन्हें ज्ञान देते हैं। पर यही निवेदन कहीं राम के कहने पर लक्ष्मण विनम्रता से रावण के चरणों में बैठ कर उसके जीते जी कर पाते तो लंका कांड कदाचित बदल सकता था।
बस यूं ही, राजेश खन्ना के जीते जी गर उन्हें जरा भी आभास हो जाता कि लोग अब भी उन्हें उतना ही चाहते हैं, उन्हें सुपरस्टार मानते हैं, उन पर मरते हैं, तो शायद थोड़ा चैन से मरते हमारे सुपर स्टार। फैमिली उन्हें थोड़ा और जल्दी संभाल लेती। डिम्पल कपाडिय़ा उनके हाथ को थोड़े ज्यादा महीनों पहले पकड़ लेती तो शायद ज्यादा देर तक पकड़े रख सकती थीं। अमिताभ कभी प्यार से थोड़ा झुक कर पहले उन्हें कह पाते कि सुपर स्टार सिर्फ आप ही हैं। ‘आनंद मैं तुम्हें यूं रोज-रोज मरते नहीं देख सकता’ तो शायद आनंद कभी मरते नहीं। पर ये भी बड़ा सत्य है कि हम सब ऊपर वाले के हाथ की कठपुतलियां हैं, किसका कितना रोल हैं कैसा रोल है, कब टाइम खत्म होगा, कब पैक अप होगा, सब तय है।
सांसें चल रही हैं तो, कितना करोड़ सांसें ले ली, कोई गिनती नहीं, पर नहीं है तो फिर एक भी नहीं। प्यार हमारे भीतर है, अथाह है, पर दिखने-दिखाने के लिए बड़ी हिम्मत मांगता है, कभी-कभी तो सिर्फ तभी दिखा पाते हैं, जबकि उसे दिख भी नहीं रहा जिसे दिखाया जा रहा है और नफरत इतनी भीतर छुपा कर रखते हैं पर जाने कब आंखों में दिखाई दे जाती है। हरकतों में बयां हो जाती है।
बहरहाल, एक दुआ है हमारे सुपर स्टार की चिर शांति के लिए। नफरत की दुनियां को छोड़ कर प्यार की दुनिया में
खुश रहना...।
-डॉ. पूनम परिणिता

दो जिस्म मगर एक जान हैं...

यह कहानी स्तुति और आराधना से शुरू होती है। मध्य प्रदेश के बैतुल जिले के सरकारी अस्पताल में जब एक मजदूर महिला ने दो बच्चियों को जन्म दिया जो जन्म से एक दूसरे से जुड़ी थीं। दंपति ने उन बच्चियों को घर ले जाने और उनका लालन-पालन में असमर्थतता जताते हुए उन्हें अस्पताल में ही छोड़ दिया। उस सरकारी अस्पताल में जो खुद मुश्किल से जी पाता है। पर अस्पताल ने, स्टाफ ने, उन प्यारी बेटियों नो न सिर्फ पाला बल्नि डॉ. राजीव चौधरी ने उन्हें अलग कर उनकी खुद नी पहचान दी। दुनिया भर के लोग भले ही पानी पी-पी कर सरकारी अस्पतालों को, सरकारी डॉक्टरों को कोसें पर सिर्फ स्तुति और आराधना हमेशा-हमेशा इन्हें याद रखेंगी। एक स्व के लिए, एक अपनी अनुभूति के हमेशा आभारी रहेंगी।
सत्यमेव जयते ने भले ही डॉक्टरों की, डॉक्टरी पेशे की जो भी तस्वीर पेश की है पर मैं जिन डॉक्टरों को निजी तौर पर जानती हूं, उनमें से एक तो बेहद ही भले मानुष हैं और बाकी भी भले हैं, हां मानुष भी हैं ही। बहुत सी लेडी डॉक्टर्स भी मेरे संपर्क में हैं उनमें से कुछ तो अपने पेशे से इतर समाजसेवा में या व्यक्तिगत तौर पर इतनी मजबूत हैं कि उनकी ज़िंदगी अपने आप एक मिसाल है। दरअसल पहले तो इतनी सारी पढ़ाई ही ज़िंदगी का एक अहम और सुहावना पहलू निगल लेती है, तिस पर गांव की कुछ पहली पोस्टिंग्स। अपने लिए जीने की फु़र्स़त थोड़ी देर से ही मिल पाती है, लगभग तब जब बच्चे बोलने लायक हो जाते हैं। तभी बच्चों के पढ़ाई के बारे में सोचते ही शहर की पोस्टिंग के बारे में सोचा जाता है लेकिन यहां भी मरीज, बीमारियां, नाइट शिफ्ट, एमरजेंसी कॉल, पेंशन ड्यूटी, ब्लट डोनेशन कैंप, वीआईपी ड्यूटी, फिर घर परिवार आम जीवन की टेंशन ने साथ-साथ आमिर खान और कीर्तन भजन मंडली को भी झेलना होता है।
प्राइवेट, डॉक्टरों से मेरा ज्यादा वास्ता नहीं पड़ा। सो कह नहीं सकती। हां, खुद बीमार पडऩे पर जरूर बिल्कुल आम आदमियों की तरह ही सारे टेस्ट और हाई फीस संकटों से गुजरती हूं। कई बार नोट किया है कि प्रोफेशनल भाईचारा प्राइवेट फीस के आड़े कम ही आता है। इस बीच मैं उनका भी जिक्र करना चाहूंगी जो सरकारी अस्पताल में कार्यरत थे, बेहद काबिल डॉक्टर। बड़े ध्यान से मरीज की बात सुनते, बड़ी कैफियत से दवाई लिखते, मरीजों को आराम होता। बिना बात एक बार उनका ट्रांसफर मेवात़ कर दिया गया। शरीफ डॉक्टर थे, बदली रुकवा नहीं पाए, नौकरी छोड़ दी। प्राइवेट अस्पतालों के साथ काम करने लगे।
काबिल थे, काबिलियत पैसा बरसाने लगी फिर छोटा सा अपना अस्पताल खोल लिया। वह अब तक भी शरीफ ही थे। पर पिछले कुछ समय से देखा है कि उस छोटे से अस्पताल ने शहर में बड़े मौके की जगह पर एक बहुत बड़े अस्पताल का रूप अख्तियार कर लिया है। फिर उसमें बड़ी-बड़ी मशीने लगेंगी, दवाइयों की दुनाने, टेस्ट लैब। अस्पताल की मंजि़लें जैसे-जैसे बढ़ती जा रहीं हैं, मुझे डर सा लगता जा रहा है। वह डॉक्टर कब तक शरीफ बने रहेंगे? आखिर लोन तो उतारना ही पड़ेगा, फिर क्या होगा? आखिर इस सब में भुगतेगा कौन? पर बात तो यह भी है कि शुरुआत किसने की।
पिछले दिनों डॉक्टरों नो सुधारने के लिए काफी अभियान चले हैं। पता नहीं क्या किसी ने सिविल अस्पताल में खंडहर बन चुके डॉक्टरों के रिहायशी आवासों को ठीक करने के बारे में लिखा है। ये एक अहम कदम हो सकता है। परिसर में रहने से डॉक्टर मरीजों के करीब रहते हैं। बहरहाल, बस एक बात अब तक जरूर जान पाई हूं कि डॉक्टर मरीज को मारते नहीं हैं। हां, जान बचाने के हजारों केस रोज सामने आते हैं। पैसे की एक अलग दुनिया है उसके सामने सब नतमस्तक हैं। जीवन भी, मौत भी।
-डॉ.पूनम परिणिता

तुम जो मिल गए हो...

...श... कृपया शांति बनाए रखें। भगवान मिल गए हैं हालांकि हम तो बहुत पहले में ही कह रहे थे कि ‘कण-कण में भगवान हैं।’ एक फिल्म भी बनाई थी, इस टाइटल पर किंतु यूरोप ने अब तक साबित कर देने की मोहर लगा दी और यूरोप की कही बात में सबको वजऩ नजर आता है।
पर एक अजीब बात हुई, कुछ फर्क नहीं पड़ा, कल जब भगवान नहीं मिले थे और आज जब मिल गए हैं। अगर यही कण कहीं भारत में मिला होता तो अब तक लाखों टन दूध चढ़ा दिया होता, लार्जर हाड्रोन कोलाइडर पर करोड़ों फूल बरसा दिए होते और छप्पन भोग लगा दिए होते तरह-तरह के आभूषण कपड़े और इतने रुपए पैसे चढ़ावे में बरसा दिए होते कि इस मशीन को बनाने की लागत निकल आती। अब वह लाख कहते रहें कि भगवान नहीं हैं, बस एक कण मिला है जो बाकी कणों को द्रव्यमान देता है। इससे सृष्टि की रचना कैसे हुई जानने में मदद मिलेगी। पर वे क्या जाने, सृष्टि मतलब दुनिया और रचने वाले हमारे श्री भगवान।
आज भले ही इन कणों को इलेक्ट्रोन प्रोटोन, न्यूट्रोन हिब्स बोसोन कह लें, कल फिर इन्हें फिर इन्हें पता चलेगा कि ये दरअसल ब्रह्मा विष्णु महेश ही थे। और ये थ्योरी भी कोई नई नहीं है कि इस कण से ही सबको द्रव्यमान मिलता है। अब पिछले दिनों की चर्चा में रहे बाबा को ही देखें सीमेंट का ठेका लेते थे, वह बात नहीं बनी, ईश्वर की कृपा आनी शुरू हुई इतना द्रव्यमान मिला, आज अरबों के मालिक हैं। किसी एक बाबा भक्त का नाम लें जो भी इस ईश्वरीय कण से जुड़ा है द्रव्यमान इतना बढ़ गया कि संभालने के लिए संस्थाएं बनानी पड़ती हैं।
दरअसल, मुझे भी बड़ी प्रतीक्षा थी भगवान को जानने की, मिलने की, अच्छा हुआ मेरे रहते ही खोज लिए गए। नहीं, अनपढ़ों वाली बात नहीं कर रहा हूं। अच्छा लगता है, साइंस को भगवान से जोड़ कर देखना, भगवान को साइंटिफिकली प्रूव होते देखना। सब पता चल जाए। कृष्ण जी के महारास का रहस्य, सीता माता के पृथ्वी में समा जाने का राज़, रावण के दस सिर, मां दुर्गा के आठ हाथ। विष्णु का सुदर्शन चक्र, कुरान के खुदा की ताकत, बाइबिल के क्राइस्ट की असली वेदना, यीशु के जन्म के समय की आलौकिकता। सब, सब जान जाएं और फिर जी भर ने हंसे इन धूप अगरबत्तियों, चढ़ावे, प्रसाद, मंदिरों पर कि बेकार ही इतने पैसे वेस्ट किए सब चीजों पर वापिस मांग ले नामदान, ये दान, वो दान के नाम पर दिए अपने सारे पैसे। शायद वैश्विक मंदी से भी निजात मिल जाए।
अरे रुको, रुको, अभी कुछ साबित नहीं हुआ है, जो कुछ मिला है निहायत ही फिजिक्स है। अपने भगवान से इसका कुछ लेना-देना नहीं है। ये कुछ ऐसा है जैसे पीटर हिग्स ने वो कण देखते ही कहा हो, ओह! माई गॉड मिल गया। जहां तक अपने भगवान की बात है, वे माशा अल्लाह हैं और खुदा कसम यूं ही अपने शानो-शौकत से बने रहेंगे और भगवान करें बने भी रहें क्योंकि भगवान आप हैं तो हम हैं, हम हैं तो आप हैं...
-डॉ.पूनम परिणिता

एक गिलहरी, अनेक गिलहरियां...

पिछले कुछ दिनों से दोस्तों की फे़हरिस्त में एक नया नाम जुड़ा है। वो टम्मो है, क्योंकि मुझे उसका असली नाम नहीं पता, सो ये नया नाम मैंने उसे दे दिया है। वो एक गिलहरी है, जो रोज मेरे कमरे के एसी के ऊपर उठी हुई खिड़की पर आती है। मैंने उसे एक दिन यूं ही देख लिया, वो उस लेटी हुई खिड़की पर उछल-कूद कर रही थी और बाकायदा चिटर-चिटर की आवाज़ें निकाल रही थी। मैंने अनायास ही इसे स्नेह भरा निमंत्रण समझ लिया। अपने परांठे में से आधा, छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर उसके लिए रख दिया।
मैंने देखा, मेरे वहां से हटते ही वो खाने पहुंच गई। एक टुकड़ा उठाया, अपने अगले दोनों पैरों से पकड़ा और लगी स्पीड से कुतरने। उसे ऐसा करते देख मैंने खिड़की से उसकी वीडियो भी बना ली। इस बीच पीली आंखों वाली काली चिडिय़ा भी आ गई। ये मेरा अपना अनुभव कहता है कि जब भी आप चिडिय़ों को दाना, खाना, पानी डालना शुरू करते हैं, तो सबसे पहले ये पीली आंखों और चोंच वाली बड़ी सी काली चिडिय़ा जिसे आम भाषा में ‘काबर’ भी कहते हैं, आती है। साथ-साथ वो अपनी पुरानी छोटी वाली भूरी घरेलू चिडिय़ा आ जाती है। इस क्रम को लगातार कई दिनों तक चलता रहने दें, फिर घुग्गी आना शुरू होती है। इसके बाद कबूतर और अगर आपके डाले हुए दानों पर तोते आने शुरू हो जाएं तो समझिए आप पंछी फ्रेंडली हो गए हैं। लेकिन इनमें से भूरी चिडिय़ा और कबूतर जहां दोस्ती के स्तर तक आ जाते हैं, काली चिडिय़ा और तोते सिर्फ खाने से मतलब रखते हैं। वो दोस्ती तो अलबता करते नहीं, करते हैं तो निभाते नहीं।
खैर, बात टिम्मो गिलहरी की हो रही थी। दोपहर को मैंने उसके लिए लंच में से कुछ चावल निकालकर डाल दिए। एक-दो दिन में उसे मेरा खाने का रूटीन पता चल गया। मैंने देखा कि वो मेरे खाने के समय से कुछ पहले आती, चिटर-चिटर की आवाज़ करती, फिर चली जाती और जैसे ही खाना डाला जाता, वो फिर खाने आ जाती। तीसरे दिन मैंने देखा एक छोटी गिलहरी और आई उसके साथ। ‘छुटकी’ यही नाम रखा होगा टम्मो ने अपनी छोटी गिलहरी का और ना भी रखा हो तो मैंने रख दिया। टम्मो, छुटकी को समझा रही थी कि अभी तू छोटी है, इधर-उधर ज्यादा मत भागा कर। दो वक्त यहीं मेरे साथ आकर खा लिया कर। छुटकी उसकी बात कम सुन रही थी, चावल में से जीरा हटाकर चावलों का मज़ा ज्यादा ले रही थी। मैं चुपचाप छिप कर उन्हें देखती रहती हूं। वो मुझसे अभी उतना खुली नहीं हैं। ये तो जानती हैं कि खाना मैं रखती हूं, पर सामने आते ही भाग जाती हैं। पर छुटकी जल्दी ही वापिस आकर फिर खाने लगती है। टम्मो मां है, ज्यादा डरती है।
पता है, कल क्या कह रही थी छुटकी गिलहरी से। देख छुटकी, तू रोज यहीं से खा-खाकर मोटी होती जा रही है। बस खाती है और जाकर सो जाती है। और ये चावल, परांठा जैसे जंक फूड से तुझे सौ तरह की बीमारियां लग जाएंगी। कितनी बार कहा है, पास वाले पेड़ से जामुन खा लिया कर। फ्रेश फ्रूट खाएगी तो हेल्दी रहेगी। हां, उसकी गुठली मेरे लिए ला दिया कर, शुगर में आराम रहेगा। बेटी ये नए जमाने वाले लोग हैं। पता नहीं कब ये दाना-पानी रखना छोड़ दें। मेहनत करना सीख बेटी, खुद अपना खाना ढूंढना और मनचाहा खाना शुरू कर।
मम्मा आप बेकार में टेंशन मत लिया करो। जब तक मिल रहा है, ऐश से खाओ, ट्रस्ट मी। नहीं मिलेगा तो मेहनत भी करके दिखा दूंगी। वैसे मुझे ये आंटी के डाले आलू के परांठे बड़े पसंद हैं। कोई इन्हें ये और समझा दे कि छोड़ी चिल्ली-सॉस भी छिड़क दिया करें इन टुकड़ों पर। आज मैंने जब सॉस वाले टुकड़े डाले हैं तो छुटकी खुश है, टम्मो नाराज़ है कि मैं उसकी बेटी की डाइट हैबिट अपने जैसी बना रही हूं।
-डॉ. पूनम परिणिता

ये वादियां, ये फ़िज़ाएं...

सुबह उठी तो उठने का मन नहीं था। हल्का सा परदा हटाकर बाहर देखा, दूर-दूर तक सूरज का कहीं नामो-निशान नहीं था। गहरी सर्द धुंध छाई थी, पेड़-पौधे, हवा, पंछी सब मेरी ही तरह बस अंदर से ही झांक रहे थे। उठे कि नहीं, बाहर निकले या फिर, फिर से बिस्तर में अलसाएं। तो भी दुनिया है, दफ्तर है, उठना तो होगा, सो उठे। वहीं सब रोज का रुटीन, दिन में दस बजे के पास, फोन आया, ‘शिमला जाने का प्रोग्राम बन रहा है, चलें क्या?’ अब कहीं घूमने जाने को हर वक्त मचलता मन, भला क्यूं मना करने लगा। हां पहले कह दिया, सोचने का काम मैं बाद में करती हूं। शिमला पहले भी जा चुकी हूं। पहाड़ों की सोहबत तो मुझे पसंद है, पर आप दूर की सोचने लगेंगे तो चक्कर आ जाएंगे।
खैर, अगले दिन सुबह पांच बजे गाड़ी आ गई। तीन जन हम और एक और डॉक्टर दंपति तथा उनके दो प्यारे बच्चे। चल दिए। बस पहाड़ ही नहीं हैं हमारे हिसार में, वैसे सर्दी के मामले में किसी हिल स्टेशन से कम नहीं है। आज भी उतनी ही सर्दी है, पर बच्चों को ढकते-संभालते, अपनी सर्दी का पता नहीं चलता। सफर में जाते हुए एक आदमी ऐसा ज़रूर होना चाहिए जो हर वक्त बोलता रहे या फिर एक से कम एक गानों की ऐसी सीडी हो जो चुपचाप सुनी जा सके देर तक।
अभी हमें चले आधा घंटा ही हुआ था कि एक फोन बजा। पता चला कि डॉक्टर मैडम की कॉल है। सीजेरियन करना है, बरवाला में। दरअसल, हमारे, उनके, हां करने या मना करने का सवाल ही नहीं होता। सब कुछ उपर वाले के नाम से फिक्सड है। अब शिमला जाने को निकले डॉक्टर, पर कोई है जो अभी इस दुनिया में भी नहीं है, पर आपका इंतज़ार कर रहा है कि अपने औजारों के साथ आइए, मुझे बाहर निकालिए और इस दुनिया में लाइए। और फिर अपना शिमला जाइए या फिर कुल्लु-मनाली। सो नियत स्थान, नियत समय गाड़ी रुकी, डॉक्टर साहिबा ने सीजेरियन किया, एक बच्ची रोते-रोते इस जहां में आई, उसकी मां दर्द में भी मुस्कराई और हमारी गाड़ी फिर आगे बढ़ चली, शिमला की तरफ।
इस बार पहले से खबर लेकर चले थे कि बर्फ पड़ रही है और प्रायोजन भी यही था कि गिरती बर्फ देखनी है। वरना पड़ी हुई बर्फ और सर्दी तो पहले भी देख चुके हैं। तय ये हुआ कि हम तीनों रास्ते में शानदार कॉंटीनेंटल में रुकेंगे और डॉक्टर दंपति बच्चों के साथ शिमला जाएंगे और अगर बर्फ गिर रही होगी तो हम भी अगले दिन शिमला जा जाएंगे। अगले दिन सुबह फोन आया कि थोड़ी बर्फ तो गिर ही रही है, आ जाओ। सो, पहुंच गए शिमला, पर बर्फ तो नहीं दिखी। हां, होटल के मैनेजर ने बाहर की तरफ देखकर बताया कि गिर सकती है शायद आधे घंटे तक। पर कोई कह रहा था कि बर्फ देखनी है तो कुफरी जाओ।
अब बर्फ तो देखनी थी, कुफरी की तरफ चल दिए। सिर्फ दस मिनट ही चले होंगे, बस वो नजारा दिखा कि वहीं थम गए। अद्भुत। आकाश से यूं गिर रही थी बर्फ कि जैसे...नहीं मिल रहे हैं शब्द, सिर्फ अनुभव किया जा सकता है उन क्षणों को। किसी के बताए पता नहीं चलेगा। खुद हाथ उठाकर उन सफेद मासूम फाहों को छूकर पता चलता है कि भगवान के पास, इस कड़कती धूप, धूल भरी आंधियों के अलावा भी है तो बहुत कुछ, पर दिखाता कब है, किसे कहां? ये उसे ही पता है। बहरहाल, ऐसे मौसम में बर्फ के बारे में लिखने का मकसद बस इतना ही था गर्मी में भी सर्दी का एहसास। बस यूं ही बने रहिए हमारे साथ। हैप्पी गर्मी।
-डॉ. पूनम परिणिता

नहीं, मैं नहीं देख सकता तुझे...

आम बोलचाल की भाषा में एक कहावत सुनी थी कि ‘और लड़कियां क्या रात को उठ·र खाती हैं।’ जब कभी किसी लड़की के उत्पीडऩ की बात चलती है, तो यह बात अक्सर कही जाती है। तब मुझे इसका मतलब समझ नहीं आता था। पर अब आरूषि के बारे में अक्सर सोचती हूं। तलवार दंपति के बारे में सोच कर परेशान हो जाती हूं। डॉक्टर लोग और लोगों की अपेक्षा थोड़ा लेट शादी करते हैं, अपनी शिक्षा पूरी करने के चलते। तो बड़ी उम्र में शादी हुई होगी और फिर प्यारी सी बेटी आरूषि। आरूषि की आंखें बड़ी-बड़ी, गोल, खूबसूरत थीं। चूंकि दोनों वर्किंग थे, फिर भी उसके लिए पूरा वक्त निकाला होगा। कभी मिल कर मालिश करते होंगे, कभी नहलाते होंगे।
शुरू के दो महीने तो किसी दंपति को नहीं भूलते, जब दिन और रात बराबर हो जाते हैं। रात को एक हाथों में झुलाता है, नींद आंखों में भरे उसके सोने का इंतजार करता है। फिर रातों को दूध बनाकर लाने की बारी भी आई होगी। आरूषि के बाल, पता नहीं शुरू से ही लंबे रखे थे क्या तलवार दंपति ने। बालों की दो चोटियां बनाकर आगे दोनों तरफ हेयर पिन लगाकर खुश होते होंगे। फिर पहला बर्थ डे, कितने प्लान बनते-बिगड़ते हैं, सबको बुलाकर बड़ी पार्टी रखें या फिर बस पड़ोस के सारे बच्चे बुलाकर घर में ही केक काट लें। वर्किंग लोगों के बच्चे बॉय कहना बड़ी जल्दी सीख लेते हैं। दूसरे और तीसरे बर्थ डे के बीतते ही प्ले स्कूल शुरू कर दिया होगा। घर में ऐशो आराम, खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। और होती भी तो, बच्ची के लिए कोई कमी कभी न होने दी होगी। नौकर-चाकर, माली, ड्राइवर ध्यान रखते थे आरूषि का। इसीलिए कभी उनके भरोसे छोड़ दिया जाता होगा उसे। आरूषि थोड़ी कमजोर थी, सो बचपन में बीमार भी ज्यादा होती होगी, तब डॉ. तलवार अपने हर तरह के जरूरी काम छोड़कर सिर्फ उसे संभालते होंगे। दूसरी-तीसरी क्लास के अच्छे मार्कस देखकर दोनों ने सोचा होगा, आरूषि भी डॉक्टर बनेगी बड़ी होकर।
कभी आरूषि को किसी फ्रेंड के बर्थ डे पर जाना होता तो डॉ. तलवार खुद छोड़कर आते। बड़े डरते-डरते स्कूल टूर पर भेजते और जब तक वापस न आ जाती, बड़े बेचैन से रहते। कभी काम से फुर्सत ले फैमिली टूर पर जाते होंगे। आरूषि के लिए उसकी पसंद की ढेरों ड्रेसस लाते, आरूषि को जींस-टॉप के साथ कैप लगाना भी पसंद था। जब आरूषि थोड़ी बड़ी होने लगी, मम्मी ने अच्छे-बुरे बारे समझाया होगा, लेकिन काम में व्यस्तता के चलते, शायद खुद नहीं समझ पाईं। वर्किंग पेरेंटस के बच्चों को धीरे-धीरे मम्मी-पापा का काम पर जाना भाने लगता है, उस वक्त वो पहले देर तक टीवी, फिर कंप्यूटर, फिर इंटरनेट देखकर बिताने लगते हैं। या कभी-कभी फ्रेंड्स को घर पर बुलाते हैं। थोड़ी अकेलेपन की छूट जरूर लेते हैं। घर के नौकर, घर के हर शख्स पर अपनी पैनी नजर रखते हैं। उनकी पसंद-नापसंद को बारीकी से परखते रहते हैं। फिर घर पर ज्यादातर अकेली रहती आरूषि का भी नौकर के साथ ही ज्यादा वक्त बीतता होगा। यूं कभी कांच का टुकड़ा आरूषि के पैर में लगा होगा या कभी साइकिल से गिरकर घर आई होगी तो पापा ने प्यार से सहलाते, उसकी चोट को साफ कर पट्टी बांध दी होगी। उसके आंसू पोछते कहा होगा-मेरी बहादुर बेटी है। यूं छोटी सी चोट पर थोड़ी ना रोते हैं।
फिर एक दिन अचानक जब आरूषि अपने कमरे में पढ़ रही थी, कुछ आवाजें सुनकर दोनों उसके कमरे की तरफ गए और वहां जो देखा, बर्दाश्त नहीं हुआ। शायद किसी भी मां-बाप से ना हो, कभी ना हो। बच्ची की वो हालत, नौकर की वो हिमाकत। कोई नहीं समझ सकता, उस भावना के तूफान को। समझ, बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया होगा। अपने प्यार का ये सिला, नमकहरामी नहीं सहन कर पाए होंगे। पता नहीं, अभी तो केस की सुनवाई बाकी है। दलीलें और तहरीरें बाकी हैं। पर कोई सब कुछ जानता है। पर अगर किसी की ज़िंदगी को किसी गलत काम करने पर माफ नहीं किया जा सकता तो अपनी ज़िंदगी बचाने की इतनी जद्दोजहद क्यूं।
डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी यूं ही चलती रहे

आज एक बड़ा सा फ्लैक्स बोर्ड देखा, अनाज की भरपूर पैदावार बारे था कि हरियाणा में गेहूं की बंपर पैदावार। पता नहीं क्यूं मन किया कि कोई इतने बड़े बोर्ड के दायीं ओर निचले कोने पर अखबार की वो कटिंग लगा दे जिसमें दिखाया गया कि बंपर पैदावार कैसे सिर्फ बोरियों में भरे जाने के अभाव में सड़ रही है। शहर में एक और बड़ा सा बोर्ड किसी कॉलेज की लड़कियों को दर्शाता हुआ लगा है। कोई इसके भी बायें कोने पर, अखबार में आयी ‘अपना घर’ से लापता युवतियों की तस्वीर लगा दे।
अब इसमें दो बातें गौर करने की हैं। पहली तो तस्वीर लगा दें और दूसरी कि कोई और लगा दे। मैं और मेरा मन तो जैसे निमित मात्र हो सकते हैं। बस अंदर ही अंदर आग जलती है, चिंगारियां सुलगती हैं, बस एक हाथ चाहिए जिस पर ये जलते शोले रख दें। और फिर हमारा काम खत्म। फिर देखें, कैसे वो हाथ पहले खुद को जलाते हैं, फिर दुनियां को रोशन करते हैं। पर इसमें भी कोई हमारे योगदान को न भूले। पता नहीं कब ये तलाश मुकम्मल होगी। हर किसी को कोई ऐसी आदिम सीढ़ी चाहिए कि उसकी गर्दन पर सवार हो देख पाए दूसरी ओर का शाइनिंग इंडिया।
फिर एक सवाल खुद से ही किया, क्यूं कभी मन ये नहीं करता कि पिछले स्टोर में बेकार पड़ी अनाज की खाली बोरियों में से ज्यादा नहीं तो दो-चार बोरियां वहां दे आऊं, अपने हिस्से का योगदान करूं, दो बोरी अनाज तो खराब होने से बचाऊं और अगर बस अपने हिस्से का काम सब कर दें तो फिर किसी को तलाश कर लाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्यूं राह चलती, रेड लाइट पर खड़ी, बीकानेर की दुकान के सामने घूमती, मॉल के रास्ते में कपड़े खींच कर भीख मांगती लड़कियों को देख सिर्फ खीज उठती है मन में। क्यूं? बस ये लगता है कि ये काम नहीं कर सकतीं। हमेशा एक काम वाली लड़की नजर आती है उनमें।
कभी मन ये क्यूं नहीं करता कि इनमें से किसी एक की जिम्मेवारी मेरी, उसे थोड़ा पढ़ाने-लिखाने की, बस पढ़ाई के मायने भर समझाने की, उसे इतनी समझ देने की, कि वो ज़िंदगी में कुछ और भी कर सकती है। इससे बेहतर। आखिर इसी तरह की लड़कियां तो पहुंचती हैं ‘अपना घर’, अपनों के अभाव के चलते। कुछ करना तो होगा। कुछ करना तो है। कब, कैसे की उहापोह में ही आधी ज़िंदगी निकल चुकी है। फिर भी शुरुआत के लिए कभी देर नहीं होती।
एक बात और, आजकल रिजल्ट का मौसम है। तमाम तरह के रिजल्ट आ रहे हैं, बच्चे उपलब्धियों से खुश हैं, पेरेंट्स के चेहरे खिले हैं। पर कुछ मायूस मन भी हैं जो इस बार वो मंजि़ल नहीं पा सके जिसकी दरकार थी। ये भी जानती हूं कि सांत्वना के बोल बड़े चुभते हैं मन को। पर उस हाथ की जरूरत हमेशा रहती है जो कंधे को थपथपा कर, मन को हल्का कर दे। सो पेरेंट्स और दोस्त, प्लीका बने रहे उस मायूस मन के पास। समझाएं उसे, ज़िंदगी अभी बस नहीं हुई है, कि ज़िंदगी कभी बस नहीं होती और बच्चे भी रैंक की दुनिया से इतर, कुछ और सोचें। कि ज़िंदगी बार-बार मौके देती है। आपको बस इतना करना है कि उसकी रवानगी को बरकरार रखें। यूं बहती रहते देंगे तो ही कहीं न कहीं, घनी छांव के, प्यारे छोर भी मिल ही जाएंगे।
डॉ. पूनम परिणिता

ना तुम हमें जानो...

आज भारत भूषण अग्रवाल की एक कविता पढ़ी। ‘मैं और मेरा पिट्ठू।’ फिर मुझे अपनी उस अलिखी, माने जो लिखी नहीं गई, कविता की याद आ गई। ये रिश्तों और आपसी समझ के बारे में है। कि-जानती हूं, तुम उसे जानते हो, जो सुबह पांच बजे अलार्म के साथ उठ जाती है, बिखरे बालों को, उंगलियों से साधती पीछे को बांधती, सीधे रसोई में चली जाती है, बच्चे और तुम्हारे टिफिन में, फिर कुछ नया, कुछ जादुई, कुछ सेहतमंद सा डालने। पर क्या तुम उसे जानते हो, जो चाहती है, सोना देर तक, तुम्हारी बगल में, यूं ही बिखरे बालों के साथ।
हां जानती हूं, उसे तो, तुम, अच्छे से जानते हो, जो तुम्हें देकर तुम्हारे कपड़े, टॉवेल, हो जाती है तुम से पहले तैयार, और देखती है तुम्हारे मूड की बाट, कि क्या बिना कोई मुंह बनाए, छोड़ दोगे ऑफिस तक। पर, क्या तुम उसे जानते हो, जो, बस रहना चाहती है घर पर, हमेशा, ताकि रख सके, अपने, नए लाए फ्लॉवर पॉट में, अपने चुने हुए ताजे फूल।
हां, हां, तुम उसे तो भले ही जानते हो, जो, सर से ढलते, सरकते, पल्लु को वापिस सर पर रखने की नाकाम कोशिश करती, रखती है खुश, तुम्हारे तमाम छोटे-बड़े रिश्तों को, पर उसे जानते हो क्या, जो ढीली टी-शर्ट और लोअर पहने, चाहती है बस, घंटों बतियाना, अपनी मां से फोन पर।
और, उसे तो अब जान ही गए हो, जो स्कूटर, कार उठाए, कर देती है, तुम्हारे, बच्चों के, घर के, हर अंदर-बाहर के काम, और तुम्हें इतिला हो जाती है कि-ठीक किया, पीटीएम जा आईं। पर उसे जानते हो क्या, जो चाहती है दिन भर में याद आई चीजों की लिस्ट बनाना और तुम्हें थमाना, ना चाहते हुए भी, ऑफिस से आते ही। और उसे तो तुम जानकर थक चुके हो, जो बैठ जाती है, रात देर तक के लिए, हाथ में कोई किताब लेकर, जब तुम चाहते हो, चैन से सोना, लाइट बंद कर। पर उसे कब जाना। जो चाहती है, ये कहानी, ये कविता पढऩा तुम्हारे साथ-साथ, ताकि जान सके कि, कितना जाना तुमने मुझे, और कितना तुम जान सके।
अब ये तो हुई कविता, इसके बाद इसकी नारियों पर दो तरह से प्रतिक्रिया हो सकती है। एक तो कि ‘अच्छी है’ और फिर अपनी पहली सी भूमिका में मशगूल। और दूसरी कि किसी तरह उन्हें (जिनसे ये कविता बावस्ता है) ये कविता पढ़वाई जाए और लगातार उनके एक्सप्रेशन नोटिस किए जाएं। और फिर उनकी क्रिया पर जोरदार जवाबी प्रतिक्रिया की जाए (ऐसी कि न्यूटन भी थर्रा उठे और कहे, मैंने ऐसा तो नहीं कहा था)।
अब उनकी भी प्रतिक्रिया दो तरह की हो सकती है। एक तो ये कि-हां जी, पढ़वाओ और फिर पढ़कर वही हल्की सी-हां, ठीक है, मतलब अच्छी है। या फिर ये कि-भागवान, दरअसल मैं तो जानता ही कविता की दूसरी वाली पात्र को हूं। और दो, जिसका जिक्र पहले है, जिसे कि कहा गया है, उसे तो तुम जानते हो। मेरा भगवान जानता है कि ऐसी एक पत्नी मैंने चाही जरूर थी, पर वो जिसे मैं सचमुच जानता हूं। जिसे भगवान ने मुझे बख्शा है, वो बाखुदा वो वाली है जिसका जिक्र बार-बार ये कह कर किया है कि-पर, क्या तुम उसे जानते हो? भई, जानता हूं, खूब जानता हूं, ना सिर्फ जानता हूं, बल्कि भुगत भी रहा हूं।
देखिए, वास्तव में, मेरा इरादा तो बस, कविता का ही था। आप लोगों की पर्सनल जान-पहचान में दखलंदाज़ी करने का तो बिल्कुल नहीं था। बहरहाल, यूं ही मीठी नोक-झोंक के साथ खुश रहें।
-डॉ. पूनम परिणिता