मेहमां जो हमारा होता है...

शायद कुछ लोग मुझे सिर्फ इसलिए भी मिल जाते हैं कि मैं अपना ब्लॉग बिना नागा लिख सकूं। तो इस बार मुझे मिली आंद्रया। थोड़ी अलग तो वो सिर्फ इसी से हो जाती है कि वो एक जर्मन लड़की है। लंबा, ऊंचा कद और बिंदास पर्सनाल्टी तो वैसे ही विदेशियों की खास पहचान है। शुरुआती जान-पहचान में उसने बताया कि उसने पढ़ाई-लिखाई फैशन डिजाइनिंग में की है, जिसे उसने सिर्फ इसलिए छोड़ भी दिया कि कोई ये कैसे जज कर सकता है कि मेरा बनाया डिजाइन बढिय़ा नहीं है। और ये कि सिर्फ सिलाई, कढ़ाई, बुनाई तो अच्छी-बुरी परखी जा सकती है, पर किसी की क्रियेटिविटी हरगिज नहीं।
खैर, इस उधेड़बुन से निकलकर वो भारत यूं पहुंची कि उसे हॉकी खेलने का शौक है, सो बच्चों को हॉकी खेलना सिखाना शुरू कर दिया और आज एक एनजीओ के तहत राजस्थान के दौसा जिले के छोटे से गांव में किसी गरीब परिवार के साथ रहकर उस गांव और आसपास के गांवों के छह से पंद्रह साल के बच्चों को हॉकी खेलना सिखा रही है। और इस सबसे वो बेहद खुश है। उसे एडवेंचर पसंद है और राजस्थान से चेन्नई, महाबलीपुरम तक की यात्रा ऑटो रिक्शा से कर चुकी है। वो इस बात से भी खुश है कि जिस गांव में वो रह रही है, जिस जगह गुजर-बसर कर रही है, वो किसी महाराजा का पुराना किला है। यह अलग बात है कि उसमें बिजली व्यवस्था ऐसी है कि कभी-कभी चौबीस घंटे तक बिजली नहीं होती, शुरू में उसे अपना कमरा 20-25 चमगादड़ों के साथ शेयर करना पड़ा।
जिन बच्चों को वो खेलना सिखाती है, वो उसे कोई प्राइवेसी या कहें अपना स्पेस नहीं बरतने देते। पर इस बारे में वो कहती है कि मैं इसका जरा भी बुरा नहीं मानती, क्योंकि पहले मैंने इनकी ज़िंदगी में दखलअंदाजी की है, इन्होंने तो ये काम बाद में शुरू किया है। उसने 19 साल की उम्र में घर छोड़ दिया था। आज वो एक भारतीय दोस्त से शादी करना चाहती है, पर उसके किसान मां-बाप को अपनाना और साथ रखना नहीं चाहती। वो उन्हें पसंद करती है, पर अपनी लाइफ में उनका इंटरफेयरन्स बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। उसने बताया कि लड़का समझाने की कोशिश कर रहा है अपने मां-बाप को और शायद सफल भी हो जाएगा। वो कहती है कि भारतीय मां-बाप अपने बच्चों को इसलिए प्यार से पालते हैं कि बूढ़े होने पर वो उनकी देखभाल कर सके और ये तो बहुत बड़ी खुदगर्जी हुई।
दरअसल, वो नहीं जानती कि तीन सौ साल की गुलामी का इतिहास है हमारा, असुरक्षा की भावना हममें खून के आगे-आगे दौड़ती है। हम एडवेंचर करने निकलें तो घर से निकलते अगर बादल छाए दिख जाएं तो छाता लेकर निकलते हैं। मां दो-तीन दिन का खाने-पीने का इंतजाम साथ बांध देती है। हमें सेफ सा एडवेंचर पसंद है। और रही बात बच्चे पालने की तो जैसा उसने खुद बताया, एक गरीब परिवार भी मेहमान को बरसों रखने का जिगर रखता है। और मां-बाप की सेवा करना, बड़ों का आदर करना, मेहमाननवाजीक·रना, ये तो हम बच्चों को यूं ही प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए ही सिखा देते हैं, क्योंकि हमारे देश में वृद्धाश्रम अभी सिर्फ सरकारी तौर पर खुले हैं, ये प्राइवेट बिजनेस में नहीं आए हैं और अभी इनमें रहने वाले बुजुर्गों की संख्या अपेक्षाकृत काफी कम है। शाम के वक्त जब मैं उससे मिलने गई तो उसने बताया कि अभी तो वो थोड़ी देर कुछ लोगों के साथ बीयर पीएगी। हे भगवान, फिर वही असुरक्षा की भावना, ये छोटी-छोटी बच्चियां, हॉकी के साथ-साथ कुछ और तो ना सीख लेंगी इससे।
डॉ. पूनम परिणिता

आया रे खिलौने वाला...

बात थोड़ी पुरानी जरूर है, पर इतनी भी नहीं कि इसे रिकॉल ना किया जा सके। कुछ औरतें आती थीं, मैले कुचले से घाघरा, चुनरी पहने। सर पर एक छाबड़ी, एक हाथ की उंगली से खिंचता बच्चा और दूसरे हाथ से एक डुगडुगी बजाती। डमरू जैसी बजती उसे आवाज में कुछ तो बात थी कि बच्चे सब मम्मियों को बाहर ले जाते, फिर उसकी छाबड़ी को घेर कर खड़े हो जाते और वो खुरदरी सी आवाज को भरसक मधुर बनाने की कोशिश करते हुए अपने पिटारे से निकालती, मिट्टी का एक डमरू और मिट्टी की छोटे-छोटे पहियों वाली गाड़ी। अब लड़के जहां उस गाड़ी को चलाकर दिखाने की जिद करते, लड़कियां चाहती कि वो अपने हाथ वाली डुगडुगी उन्हें बेच दे, क्योंकि और कोई भी डमरू या डुगडुगी वैसी आवाज ना निकाल पाते, जैसी उसके हाथ वाले खिलौने से निकलती थी।
बात फिर मोल-भाव पर आती, बेहद सस्ते खिलौने होते थे वो, और ज्यादातर तो आटा, चीनी से भी कम दाम पर। फिर जब वो बिजनेस खत्म कर उठती तो थोड़ी दूर उसकी तान के पीछे जाते, पर फिर मां की आवाज के साथ वापिस अपनी चारदीवारी में जा, अपने खिलौनों से खेलने में मस्त हो जाते। ये खिलौने बस ही देर तक चलते, अमूमन जब तक उसकी डुगडुगी की दूर तक आवाज आती। बस उसके बाद तो डमरू का एक तरफ का बजाने का टुकड़ा टूट कर हाथ में आ जाता और गाड़ी का पहिया भी एक तरफ जा गिरता। इसके साथ ही इन खिलौनों के स्पेटर पार्टस के लिए उस खिलौने वाली को गेट से दोनों तरफ नजर दौड़ा-दौड़ा कर गली के छोर तक ढूंढा जाता, हालांकि किसी पिछली गली से उसकी आवाज तो आ रही होती, पर उसे ढूंढना आसान नहीं होता था। थोड़ी देर कुछ जुगाड़ की कोशिश की जाती, लेकिन थक-हार कर फिर उस खिलौने का पोस्टमार्टम कर दिया जाता। डमरू के भीतर छेद करने में तो वाकई मजा आ जाता।
बच्चों को अगर उनकी दुनिया में उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो वो हर चीज में अपनी खुशी ढूंढ लेते हैं। मुश्किल तब होती है जब अपने बड़े-बड़े, अधूरे सपनों का, उनके सपनों की दुनिया से घालमेल कर दिया जाता है। ऐसा ही नजारा दिख रहा था, वाहनों के मेले में। अपने और बच्चों के सपनों का घालमेल। बच्चों की उंगली पकड़े उन्हें बड़ी-बड़ी गाडिय़ां दिखाते, अभिभावक। स्पीडोमीटर की आखिरी लिमिट को पढ़ते बच्चे, रेस और ब्रेक तक पहुंचने नी नाकाम कोशिश करते उनके छोटे-छोटे पैर। बंद गाडिय़ों में भी फुल रेल देते उनके पैर और हाथ। लोगों के सपने देखने की क्षमता को भुनाते सेल्समैन, उनके सपनों को फाइनेंस करने की कोशिश करते फाइनेंसर। हालांकि लगभग सभी बढिय़ा लिबास पहने थे, पर मुझे जाने क्यूं वो छोटी-छोटी चादर लपेटे नजर आए जिसके बाहर उनके पैर झांक रहे थे। मगर मैंने पाया कि आजकल चादर को, सबने, एक साथ बाहर निकाल स्टाइल से ओढऩा शुरू कर दिया है। फिर पैसे की फिक्र कौन करे। मैं जोर-जोर से बजते डीजे में कहीं उस खिलौने वाली की डुगडुगी की आवाज को महसूस करना चाहती थी।
-डॉ. पूनम परिणिता