आया रे खिलौने वाला...

बात थोड़ी पुरानी जरूर है, पर इतनी भी नहीं कि इसे रिकॉल ना किया जा सके। कुछ औरतें आती थीं, मैले कुचले से घाघरा, चुनरी पहने। सर पर एक छाबड़ी, एक हाथ की उंगली से खिंचता बच्चा और दूसरे हाथ से एक डुगडुगी बजाती। डमरू जैसी बजती उसे आवाज में कुछ तो बात थी कि बच्चे सब मम्मियों को बाहर ले जाते, फिर उसकी छाबड़ी को घेर कर खड़े हो जाते और वो खुरदरी सी आवाज को भरसक मधुर बनाने की कोशिश करते हुए अपने पिटारे से निकालती, मिट्टी का एक डमरू और मिट्टी की छोटे-छोटे पहियों वाली गाड़ी। अब लड़के जहां उस गाड़ी को चलाकर दिखाने की जिद करते, लड़कियां चाहती कि वो अपने हाथ वाली डुगडुगी उन्हें बेच दे, क्योंकि और कोई भी डमरू या डुगडुगी वैसी आवाज ना निकाल पाते, जैसी उसके हाथ वाले खिलौने से निकलती थी।
बात फिर मोल-भाव पर आती, बेहद सस्ते खिलौने होते थे वो, और ज्यादातर तो आटा, चीनी से भी कम दाम पर। फिर जब वो बिजनेस खत्म कर उठती तो थोड़ी दूर उसकी तान के पीछे जाते, पर फिर मां की आवाज के साथ वापिस अपनी चारदीवारी में जा, अपने खिलौनों से खेलने में मस्त हो जाते। ये खिलौने बस ही देर तक चलते, अमूमन जब तक उसकी डुगडुगी की दूर तक आवाज आती। बस उसके बाद तो डमरू का एक तरफ का बजाने का टुकड़ा टूट कर हाथ में आ जाता और गाड़ी का पहिया भी एक तरफ जा गिरता। इसके साथ ही इन खिलौनों के स्पेटर पार्टस के लिए उस खिलौने वाली को गेट से दोनों तरफ नजर दौड़ा-दौड़ा कर गली के छोर तक ढूंढा जाता, हालांकि किसी पिछली गली से उसकी आवाज तो आ रही होती, पर उसे ढूंढना आसान नहीं होता था। थोड़ी देर कुछ जुगाड़ की कोशिश की जाती, लेकिन थक-हार कर फिर उस खिलौने का पोस्टमार्टम कर दिया जाता। डमरू के भीतर छेद करने में तो वाकई मजा आ जाता।
बच्चों को अगर उनकी दुनिया में उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो वो हर चीज में अपनी खुशी ढूंढ लेते हैं। मुश्किल तब होती है जब अपने बड़े-बड़े, अधूरे सपनों का, उनके सपनों की दुनिया से घालमेल कर दिया जाता है। ऐसा ही नजारा दिख रहा था, वाहनों के मेले में। अपने और बच्चों के सपनों का घालमेल। बच्चों की उंगली पकड़े उन्हें बड़ी-बड़ी गाडिय़ां दिखाते, अभिभावक। स्पीडोमीटर की आखिरी लिमिट को पढ़ते बच्चे, रेस और ब्रेक तक पहुंचने नी नाकाम कोशिश करते उनके छोटे-छोटे पैर। बंद गाडिय़ों में भी फुल रेल देते उनके पैर और हाथ। लोगों के सपने देखने की क्षमता को भुनाते सेल्समैन, उनके सपनों को फाइनेंस करने की कोशिश करते फाइनेंसर। हालांकि लगभग सभी बढिय़ा लिबास पहने थे, पर मुझे जाने क्यूं वो छोटी-छोटी चादर लपेटे नजर आए जिसके बाहर उनके पैर झांक रहे थे। मगर मैंने पाया कि आजकल चादर को, सबने, एक साथ बाहर निकाल स्टाइल से ओढऩा शुरू कर दिया है। फिर पैसे की फिक्र कौन करे। मैं जोर-जोर से बजते डीजे में कहीं उस खिलौने वाली की डुगडुगी की आवाज को महसूस करना चाहती थी।
-डॉ. पूनम परिणिता