ज़िंदगी रोज नए रंग दिखाती है मुझे...

कल मेरा जन्मदिन था। ये जीवन का वो मौसम है, जब कड़ी धूप चमक कर जा चुकी है और सूरज हल्का हो रहा है, पर इसने अपना सुनहरीपन अभी खोया नहीं है। वरन, बड़ा और सिंदूरी लग रहा है। सांझ होने को है, पर रात अभी काफी दूर है। हल्की सुहानी बयार बह रही है। मौसम ऐसा है कि बाहर, अंदर हर जगह अच्छा लग रहा है।
मुझे अपनी ये अवस्था पसंद आ रही है। अपने सफेद बालों का गहराना अच्छा लग रहा है, फिर उन्हें रंग से छुपाना भा रहा है। ये उम्र के साथ लुका-छिपी खेलने सा है। मुझे अपने चेहरे और गर्दन पर आती अतिरिक्त तहें अच्छी लगती हैं, मैं इन्हें मसाज देकर पाल रही हूं, उस वक्त के लिए जब मेरे बच्चे के बच्चे इन्हें हिलाकर गुदगुदाएंगे। मुझे अपनी आंखों के इर्द-गिर्द के घेरे पसंद हैं। ये मुझे मेच्योर लुक दे रहे हैं। अपनी तमाम नादानियों के बावजूद बस इनकी वजह से कुछ समझदार सी लगने लगी हूं। अपनी उम्रदराजी मुझे एक अलग तरह का सुकून दे रही है। एक अजीब सी सुरक्षा भावना। मैं खुद से जुड़ी हर चीज़ का पूरा-पूरा आनंद ले रही हूं। भगवान की इस नेमत का मज़ा ले रही हूं।
बेटे की हिंदी की बुक में सुमित्रा नंदन पंत की एक कविता है-‘मैं सबसे छोटी होऊं।’ बचपन के बारे में है। हां, बचपन को याद करना सुखकर है, पर बड़े होना सपनों के पूरे होने जैसा है। मंदिर में वो बच्चा कल भी मिला, जो मुझे दो साल पहले मिला था। वो अपनी छोटी सी साइकिल चला रहा था। मैंने उसे कहा-आप मुझे अपने पीछे बैठा लो। उसका जवाब था-आंटी, जब आप छोटे हो जाओगे न, तब मैं आपको पीछे बैठाकर साइकिल चलाऊंगा। मुझे उसकी बात बड़ी प्यारी लगी। ये तुतलाती सी बोली की बात बड़ी गहरी थी। बच्चे जब बड़े हो जाएंगे, तब हम छोटे हो जाएंगे। फिर वो हमें पालेंगे, ले जाया करेंगे इधर-उधर। बस प्यार दरमियान रहे, फिर सब अच्छा होता है। सब सुहाना होता है। बड़े होना भी और छोटा होना भी।
उम्र की इस दहलीज पर मैं खुद में नई-नई चीज़ें खोज रही हूं। ये, लिखना भी मुझे इस उम्र का एक उपहार है। बस अभी ही मैंने पाया कि मैं लिख सकती हूं। और आप सबका प्यार और कॉल्स बताते हैं कि अच्छा लिख रही हूं। मैं वक्त के इस उपहार और आपके प्यार से खुश हूं। रिटर्न गिफ्ट के तौर पर कुछ और बेहतर लिखने की कोशिश करूंगी। बस ज़िंदगी में उन सब प्यारी चीजों, लोगों का साथ रहे जिन्हें मुझसे हर हाल प्यार है। मेरी तमाम कमियों के बावजूद, मेरी सारी असफलताओं के बाद भी, बस उन्हें मेरे, मेरे होने से प्यार है। बस ईश्वर से यही प्रार्थना है-
तेरा-मेरा साथ रहे.... तेरा-मेरा साथ रहे
धूप हो छाया हो.... दिन हो कि रात रहे
-डॉ. पूनम परिणिता

रूह से महसूस करो...

पिछले दिनों मैंने पढ़ा कि एक प्रसिद्ध हॉलीवुड अभिनेत्री ने अपने मशहूर अभिनेता पति को उसके जन्मदिन पर एक जलप्रपात भेंट किया। पढ़कर पहले तो नारी सुलभ प्रतिक्रिया हुई, पर जल्द ही उस पर मेरा प्रकृति प्रेम हावी हो गया। ये नदियां, ये आसमां, हरे-भरे जंगल, ये झरने, मीठे पानी के स्त्रोत क्या सिर्फ़ एक प्रेमी को भेंट किए जा सकते हैं? हालांकि किए तो जा सकते हैं, जैसे कि कर दिए गए हैं। पर क्या कर देने चाहिए?
एक दिन जब मैं घर के जरूरी सामान की लिस्ट बना रही थी तो चाय, चीनी, दाल, बेसन के बीच ही कहीं अगरबत्ती, बाती और लिख दिया धूप का एक पैकेट। बस तभी मन कहीं खो गया। इस खरीदती-बिकती दुनिया में कभी ऐसा हो गया तो? ये हमारी आंखों को शीतलता देती, रूह को सुकून देती, ये बारिश, ये धूप, ये रोशनी, ये अंधेरा, ये सूरज, ये चंदा, ये हवा, ये छुअन, ये सब सिर्फ़ महसूस कर सकने की चीज़ें भी बिकने लगीं तो? अभी सिर्फ़ दो ही चीज़ें बिक सकती हैं जिन्हें मापना मनुष्य सीख गया है। जो सिर्फ़ रूह से महसूस की जा सकती हैं, अभी बिकाऊ नहीं हैं। जैसे झरनों से, नलों से निकलता पानी बोतलों में, थैलियों में, प्लास्टिक के गिलासों में बंद हो गया है। कभी धूप, छांव, बारिश, सर्दी, गर्मी, अंधेरा, उजाला भी हमारे घर की लिस्ट में जगह पा गया तो?
कैसा होगा, कभी किसी खुली-खिली धूप में, जो मेरा मन किया तो निकाल लिए, फ्रिज से बारिश के दो पैकेट और ले आई आंगन में भीगने के लिए। फिर चली आई अंदर बचती-बचती पानी से। पर फिर भागी, क्योंकि ख्याल आ गया कि कितनी खरीदी है, पूरी वसूल तो कर लूं। देखा असर, बेटे ने ये लाइनें पढ़कर कहा, मम्मा फिर तो कभी बाहर आवाज़ें आया करेंगी, बारिश ले लो, धूप ले लो, कोहरा ले लो, ठंडी हवा लो...। एकदम ताज़ा ऑरगेनिक बारिश है, पहाड़ों से मंगवाई है। और जो कभी जैसे आजकल गहरी, ठंडी, बर्फीली हवाओं और धुंध का मौसम हो और जाना भी बेहद ज़रूरी हो, तो हो सकता है कि धूप के ये पैकेट काम आ जाएं जो आपने एक के साथ एक फ्री स्कीम में खरीदकर रख लिए थे एडजेस्टएबल एंटीना के साथ।
इस धूप को गाड़ी के ऊपर या फिर लॉन टेबल के ऊपर कहीं भी फिक्स किया जा सकता है। जब बाकी लोग ठंड से कांप रहे हों तो इस धूप के टुकड़े के नीचे हाफ स्लीवस टी-शर्ट पहनकर इतराने की अलग ही शान होगी। पर जाने क्यूं औरों की ये कंपकपाहट मुझे एक सिहरन दे गई। फिर तो इन सब पर भी राशनिंग शुरू हो जाएगी। इनके दाम भी अख़बारों में छपा करेंगे। गरीब तो बेचारे घरों के बाहर धूप, छांव बीनते नज़र आएंगे और अमीर सर्द-गर्म से अपनी किसी नई बीमारी से ग्रस्त हुआ करेंगे। ओह प्लीज़! इतने छोटे से लेख में इतनी टेंशन देने का मेरा इरादा बिल्कुल नहीं था। मैं तो बस यूं ही...बहरहाल, मेरी सोच के साथ कुछ देर टहलने का शुक्रिया।
डॉ. पूनम परिणिता

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते.....

बस, जिन लोगों ने इन अल्फाज़ को रूह से महसूस किया है, उनके लिए सुरों का ये रिश्ता हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहेगा। वो तो बस एक बुज़ुर्ग, बीमार, गमों से आहत शरीर था जो चला गया, रूह को तो हम जब चाहें, उस असीम आवाज़ की बदौलत महसूस कर लें। याद करें वो वाक्या जब आप अपने हमसफर के साथ गाड़ी में किसी दूर की मंज़िल को तय कर रहे होते, यह शख्स चुपचाप पीछे लगे स्पीकर में गुनगुनाता हुआ आपके साथ चलता। तुमको देखा तो ये ख्याल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया।
जब तक जगजीत सिंह यह लाइन दूसरी बार गाते, आपकी हमसफर हौले से खिसक कर अपना सर आपके कंधे पर रख चुकी होती। और फिर मंज़िल तक पहुंचने की कोई जल्दी ना होती। गज़लें और मील पत्थर साथ-साथ चलते रहते और इनके अल्फाज़ और मखमली आवाज़ हमें किसी और ही जहां में ले जाती। ग़ज़लों के शौकीनों पर अक्सर गमज़दा, देवदास या गंभीर किस्म का होने के आरोप लगते हैं, लेकिन जगजीत सिंह की ग़ज़लों, गीतों के दीवाने उम्र और हर स्वभाव के लोग हैं। मुझे याद है कि घर की सफाई के समय गर साथ-साथ ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’ चल रहा होता तो सफाई ज्यादा आत्मीयता से होती।
और कहीं खुद की या बच्चों की कोई पुरानी चीज़ मिल जाती और उस वक्त पीछे बज रहा होता, ‘वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ तब यकीनन सफाई कहीं पीछे छूट जाती और बचपन सामने खड़ा खिलखिलाता रहता। ये इस आवाज़ की खूबसूरती थी कि ये हरफ अमर हो गए हैं। ये इस संसार में कभी-कभार आने वाली रूहानी शख्सियतें होती हैं जो खुद अपने गमों से भी दूसरों के लिए दवा बनाने का काम करती हैं।
बेटे के दुख से गमज़दा जगजीत सिंह ने ऐसी सूफियाना ग़ज़लें दीं, आदमी आदमी को क्या देगा, जो भी देगा बस खुदा देगा। और मेरे दु:ख की कोई दवा न करो। इन्हें कोई भी अपने गम में साझा कर सकता है। दरअसल आज के शोर भरे गीतों से दूर वो गए दशकों का माहौल भी शायद माकूल था, इन ग़ज़लों के लिए, जब सीधे-सीधे पूछने की बजाए किसी शांत वीराने में इन ग़ज़लों से ही पूछा जा सकता था कि झुकी-झुकी सी नज़र बेकरार है कि नहीं या तुम इतना जो मुस्करा रहे हो। आज कहां ढूंढे उस आवाज़ को, उस माहौल को, कहने की बात और है, दर्शन अपनी जगह है कि रूह महसूस करें, आवाज़ में डूब जाएं।
पर हकीकत यही है कि वो नहीं रहे हमारे बीच...इस सूनेपन पर भी उन्हीं की ग़ज़लें सवाल बन कर उठ रही हैं, ‘तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा।’ ‘शाम से आंख में नमी सी है।’ ‘ये बता दे मुझे ज़िंदगी।’ आखिर में ढेर सारी श्रद्धांजलि ग़ज़ल के उस बादशाह को और फिर उन्हीं का कलाम...हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते।
-डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी...

'मेरे पास से होकर, मेरी ज़िंदगी यूं निकल गई, जैसे कोई अजनबी हो पहचाना सा।’ ज़िंदगी यूं तेज़ कदम चलती पास से निकलती जा रही है, अब ये तो आप पर है ना, हौले से कभी जो कंधे पर हाथ रख कर रोकेंगे, पूछेंगे तो मुड़कर, रुक कर मुस्कुराएगी ज़रूर, आखिर तो आपकी ज़िंदगी है। तो फिर रोकिए, पूछिए, ‘सुनो...कैसी हो?’ जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा। फिर कहना, ‘कहां जा रही हो इतनी जल्दी में, बैठो कुछ देर मेरे पास, थोड़ी-थोड़ी चाय हो जाए।’ अगर उसके जवाब से पहले आपका मोबाइल बज उठा और आपने सिर्फ़ देखने भर के लिए भी उठा लिया तो वो बढ़ जाएगी आगे, बिना आपसे कुछ कहे। और फिर, जाने आपको ही दोबारा कब वक्त मिले अपनी ही ज़िंदगी से रू-ब-रू होने का। तो हर कॉल से पेशतर कभी ज़िंदगी का, दिल का, प्यार का राग भी सुनें।
टहलने जाएं दो घड़ी, अपनी ज़िंदगी के साथ। उस बचपन में जब, कभी कोई, यूं ही पूछ लिया करता था कि बड़े होकर क्या बनोगे? और आप भी जाने किसकी, किस चीज़ से प्रभावित हुए कह दिया करते थे फलां अफसर बनूंगा, लेकिन फिर तमाम हकीकतों से गुज़रते आज क्या बन पाए हैं? और क्या खुश हैं? जानती थी, बड़े घमंड से खुद को कह उठेंगे कि-हां, खुश हूं। आज मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है। पर ये सवाल को ज़िंदगी से था जो अभी चुप है, थोड़ी गुमसुम सी, क्योंकि पैसा कमाने से इतर और भी कुछ चाहा था ज़िंदगी ने आपसे। कभी दिल किया था, क्या, कि गिटार, हारमोनियम, तबला या बांसुरी बजाने आने चाहिए। कभी कोई बजाता दिखता है तो ज़िंदगी के तार बजते हैं क्या। या अपने बच्चे की एक मनुहार पर उसे खरीदकर ला दिया है, आपने ऐसा कोई वाद्य। तो यकीनन ज़िंदगी अभी तक लय में बह रही है।
कभी, यूं ही, रंगों से हाथ भरकर पेंटिंग के नाम पर घर की दीवारें, पुरानी सी शटर्स खराब कर मम्मी से डांट खायी थी क्या? या कभी आटर्स में मिला कोई सर्टिफिकेट आज तक किसी पुरानी फाइल में सहेज रखा है? और, क्या आज भी कभी अपने बच्चे के प्रोजेक्ट्स में, चाटर्स पर अपनी कला, अपने रंगों का असर छोड़ते हैं? तो इतमिनान रखें, आपकी ज़िंदगी बेनूर, बेरंग नहीं हुई है। क्या आज भी गाहे-बगाहे किसी महफिल में, पार्टी में, कभी सुर छेड़ देते हैं क्या? बस सिर्फ एक ही आग्रह पर, नृत्य कला का पूरा प्रदर्शन कर देते हैं? तो फिर बेफिक्र रहिए, ज़िंदगी में तरंग अभी बाकी है। ज़रा याद कीजिए, कभी डायरी में, हिस्ट्री की नोटबुक के पीछे, कुछ शेर नोट किए थे क्या? या कॉलेज मैगज़ीन में कोई कविता, आर्टिकल दिया करते थे क्या? बस फिर जो पैन रुका, क्या आज सिर्फ़ साइन करने के काम आता है।
पर फिर भी, क्या आज भी अखबार के साथ आई बच्चों की मैगज़ीन में कार्टून पढ़ लेते हैं। और हां, ज़िंदगी नाम से शुरू होने वाले आर्टिकल अपने ज़रूरी काम छोड़कर भी शौक से पढ़ते हैं क्या? फिर तो, जिस ज़िंदगी के साथ, अभी कुछ देर पहले, आप बस दो घड़ी टहलने निकले थे, वो कुछ देर थमकर आपसे खुद बतियाएगी। और फिर कुछ देर बाद कहेगी, सुनो...तुम्हारा मोबाइल बज रहा है। और हौले से मुस्कराते हुए कहेंगे, अरे, तुम बैठो ना थोड़ी देर और, वो मैं बाद में मिस कॉल चेक कर लूंगा। और फिर उसके जाने के बाद भी, आप देर तक खुद ही गुनगुनाते रहेंगे...ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है।
डॉ. पूनम परिणिता

ज़िंदगी कैसी है पहेली...

वो भी बस आम दिनों जैसा ही दिन था। वही दुनियावी कार्य निपटाए जा रहे थे। सुबह बेटे को स्कूल बस तक छोड़कर वापस आए तो सामने वाले शर्मा जी घूमने के लिए निकल रहे थे। वो जल्दी में मुंह फेर कर निकल गए, सो दुआ सलाम न हो पाई जो सुबह के समय अमूमन हो जाया करती थी। सोमवती, मौनी अमावस थी उस दिन। घर के काम करके ऑफिस पहुंची, सब कुछ और दिनों की तरह सामान्य ही था, जब तक कि शर्मा जी के बेटे का फोन नहीं आया कि आप जल्दी घर पहुंच जाओ, पापा बाथरूम में गिर गए हैं। मैं शहर से बाहर हूं, एक घंटे तक पहुंच पाऊंगा। मैंने सांत्वना देते हुए कहा कि चिंता मत करो, मैं पहुंच जाती हूं। फिर जाने क्या सोचते मैंने एक सहकर्मी को साथ आने को कह दिया।
शर्मा जी के घर पहुंचे तो देखा कि उनकी पत्नी और पुत्रवधू बुरी तरह घबराई हुई थीं और रोए जा रही थीं। शर्मा जी फर्श पर गिरे हुए थे। जल्दी में उन्हें हाथ लगाकर देखा, कुछ समझ नहीं आ रहा था। सहकर्मी को उन्हें आगे से पकडऩे को कहा। हम सब ने बड़ी मुश्किल से पीछे से पकड़कर गाड़ी में लिटाया। घर से अस्पताल का सफर बामुश्किल चार मिनट का होगा। उस दिन इतना लंबा हो गया। वहां पहुंचकर स्ट्रेचर लेने भागे और शर्मा जी को स्ट्रेचर पर लिटाने के लिए दो लोगों से निवेदन करना पड़ा। जब तक आहत हमारा जानकार न हो, सहज मदद को कोई आगे नहीं आता। डॉक्टर ने जल्दी से प्राथमिक मुआयने में ही बता दिया कि अब कुछ शेष नहीं है। इस तरह के हालात से मैं पहली बार गुज़र रही थी। बस इससे बड़ा सच भी कोई नहीं है। इससे बड़ा झूठ भी कोई नहीं है। किसी का पिता, भाई, पति, ससुर, रिश्तेदार यहां विश्वास है कि जबकि, जब तक खबर न दी जाए, उनके लिए यह कि ज़िंदा है, बस इसी वहम में जीए जा रहे हैं हम सब। बस उसके बाद तो अन्य कर्म शुरू हो गए। खबर मिलते ही सब आ गए।
शर्मा आंटी का बुरा हाल था। सब उनसे पूछ रहे थे, बीपी, शुगर था क्या? पहले कभी अटैक हुआ था? वो मना किए जा रही थीं। कुछ नहीं था, बिल्कुल ठीक थे। बगीचे में काम कर रहे थे। हाथ-पैर धोने बाथरूम में गए थे कि...। कुछ कह भी नहीं पाए। सुबह कह रहे थे कि मौनी अमावस है, बड़ा अच्छा दिन होता है, इस दिन कम बोलना चाहिए या मौन रहना चाहिए। इसलिए खुद भी कम बोल रहे थे। पितरों को तर्पण भी किया था। गाय को रोटी भी दे आए थे। कोई कह रहा था कि आदमी बीमार होकर जाए तो इलाज वगैरह करवाए। कुछ दिल की कह जाए। मैं सोच रही थी, दिन भर के इतने झमेलों में क्या कभी हम सोच पाते हैं कि मृत्यु क्या है? कब होनी है? हम कितने करीब हैं? बस जब किसी का क्रिया-कर्म देखते हैं, तभी क्षण भर भले ही खुद को उसकी जगह धरती पर लिटा लें, परंतु तभी फर्श ठंडा लगने लगता है और अनायास ही हम खुद को वहां से उठा लेते हैं। कभी आपस में बात करते भी, मरने की बात आते ही एक-दूसरे के मुंह पर हाथ रख देते हैं। कैसी मनहुसियत की बातें लगती हैं ये। पर आखिरी सच तो है ये।
मैं चाहूंगी कि मेरे मरने पर मेरी आंखें दान कर दी जाएं। और मेरी देह भी मेडिकल कॉलेज को दे दी जाए। पर ये भी सच है कि कभी इन सबके लिए नामित कोई फार्म आज तक मैंने नहीं भरा है। बस कहा भर है। दरअसल, सोचा भी नहीं जाता मरने के बारे में, दिल ही नहीं करता। मन करता है बस, खेलते रहें ज़िंदगी की इस पहेली के साथ, सुलझे न सुलझे, पर साथ तो रहे। लड़ें, झगड़ें, रूठे, माने, हंसे, रोएं, जीते, हारें पर चलते रहें, भागते रहें। मिट्टी की इस देह में हवा से, पानी से ज़िंदगी की नमी बनी रहे।
डॉ. पूनम परिणिता

वक्त ने किए क्या हसीं...

पिछले हफ्ते काफी मसरूहफियत रही, ज़ेहनी तौर पर भी और यूं भी। शहर में एक बेहतरीन आयोजन हुआ। पेरेंटिंग पर था, लेकिन अटैंड नहीं कर पाई। मन बहुत था इसमें शामिल होने का और जानने का कि क्या पढऩा, सुनना, वर्कशॉप और दूसरों का अनुभव खुद के बच्चों को पालने में सहायक हो सकता है। वक्त इस कदर बदल चुका है कि हमारे समय की कहावतों तक को बदल देने का टाइम आ गया लगता है। कारण-आज के परिवेश में बेमानी सी हो गई हैं वो कहावतें।
अब देखिए, एक वक्त था जब कहा जाता था कि मां तो वो होती है जो खुद गीले में सोकर बच्चे को सूखे में सुलाती है। पर अब आलम ये है कि बच्चे को ड्राइपर पहनाकर मां खुद चैन से सोती है और बच्चा गीले में सोते हुए भी टेक्नीकली सूखे में आराम से सोता है। मतलब साइंस ने त्याग का ये स्कॉप छीन लिया। और जिसे मां का ममतामयी आंचल कहा करते थे, वो बेचारा कहीं ढूंढे नहीं मिलता। वो स्कूटी चलाती सुपर मॉम के सिर, चश्मे और मुंह के इर्द-गिर्द कुछ यूं उलझा सा लिपटा है कि स्कूल से छुट्टी के वक्त लेने आई मां को बच्चे तक नहीं पहचानते, जब तक आवाज़ लगाकर बुला न ले। एक और कुठाराघात मां और बच्चे के स्नेहमयी रिश्ते पर ये भी कि एक नया अजीब का चलन देखने में आ रहा है।
आजकल के एक्स जेनरेशन बच्चे अपने बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड को ओ...मॉय बेबी कहकर बुलाते हैं। फिर यही चलन कमोबेश नए अभिभावकों में भी जारी रहता है और बच्चा बेचारा कंफयूकान में रहता है कि मम्मा मुझे बुला रही या पापा को? और घर में दरअसल बेबी है कौन? आजकल के ये बच्चे भी शुरू से ही इलेक्ट्रॉनिकली साउंड पैदा हो रहे हैं। आप बच्चे के सामने नोकिया-5800, एन-70 और नोकिया ल्यूनिया रख दें। वो पहले वाले मोबाइल को तो बायीं लात मारकर बैड से गिरा देगा, दूसरे को एक बार उलट-पलट कर देखेगा। तीसरे को उठा, ऑन और स्टार दबा अनलॉक करके झट से गाना लगा देगा, वॉय दिस कोलावरी...आ...डी।
तो इस तरह के बच्चों के लालन-पालन के लिए बेशक आपको पढऩा, सुनना और वो सब करना पड़ेगा जो आपको पालते हुए बिल्कुल नहीं किया गया था। पर पता नहीं, पेरेंटिंग टिप्स, क्वालिटी टाइम, ट्रस्ट योर किड्स और सबसे ऊपर स्पेस नामक शब्दों में, बस एक ज़रूरी शब्द कार में पीछे कहीं स्टेपनी के पास रखा नज़र आता है जिसे कहा करते थे संस्कार। जिसे हमारे माता-पिता अक्सर रोज धो-पोंछकर सबसे ऊपर रखते थे। देखिए इन सब में बुरा जो देखन चलेंगे तो कबीर साहब खुद आपको ही शर्मिंदा कर देंगे। सो बस दुनिया है, चलन है, आपका खुद का बच्चा है और खुद की जवाबदेही है, दिखावे पर मत जाओ...
और हां, मां पर कहावतों में आखिरी बात, हमारे वक्त में अमिताभ यूं आंखें भरकर और धर्मेंद्र कुछ यूं नाक फुलाकर मां...कहते थे कि इमोशनस बह-बहकर बाहर आती थी। आजकल की फिल्मों में दीपिका पादुकोणे यूं घनघनाती कह कर बाहर निकल जाती है-आयशा, खाने पर वेट मत करना। आज शाम पार्टी में दोस्तों के साथ लेट हो जाऊंगी। जैसे आयशा को कुछ साल के लिए मां के काम पर रखा हो। बहरहाल, अपने कीमती समय में से कुछ क्वालिटी टाइम मुझे और मेरे आर्टिकल को देने का शुक्रिया।
-डॉ. पूनम परिणिता