हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते.....

बस, जिन लोगों ने इन अल्फाज़ को रूह से महसूस किया है, उनके लिए सुरों का ये रिश्ता हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहेगा। वो तो बस एक बुज़ुर्ग, बीमार, गमों से आहत शरीर था जो चला गया, रूह को तो हम जब चाहें, उस असीम आवाज़ की बदौलत महसूस कर लें। याद करें वो वाक्या जब आप अपने हमसफर के साथ गाड़ी में किसी दूर की मंज़िल को तय कर रहे होते, यह शख्स चुपचाप पीछे लगे स्पीकर में गुनगुनाता हुआ आपके साथ चलता। तुमको देखा तो ये ख्याल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया।
जब तक जगजीत सिंह यह लाइन दूसरी बार गाते, आपकी हमसफर हौले से खिसक कर अपना सर आपके कंधे पर रख चुकी होती। और फिर मंज़िल तक पहुंचने की कोई जल्दी ना होती। गज़लें और मील पत्थर साथ-साथ चलते रहते और इनके अल्फाज़ और मखमली आवाज़ हमें किसी और ही जहां में ले जाती। ग़ज़लों के शौकीनों पर अक्सर गमज़दा, देवदास या गंभीर किस्म का होने के आरोप लगते हैं, लेकिन जगजीत सिंह की ग़ज़लों, गीतों के दीवाने उम्र और हर स्वभाव के लोग हैं। मुझे याद है कि घर की सफाई के समय गर साथ-साथ ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’ चल रहा होता तो सफाई ज्यादा आत्मीयता से होती।
और कहीं खुद की या बच्चों की कोई पुरानी चीज़ मिल जाती और उस वक्त पीछे बज रहा होता, ‘वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ तब यकीनन सफाई कहीं पीछे छूट जाती और बचपन सामने खड़ा खिलखिलाता रहता। ये इस आवाज़ की खूबसूरती थी कि ये हरफ अमर हो गए हैं। ये इस संसार में कभी-कभार आने वाली रूहानी शख्सियतें होती हैं जो खुद अपने गमों से भी दूसरों के लिए दवा बनाने का काम करती हैं।
बेटे के दुख से गमज़दा जगजीत सिंह ने ऐसी सूफियाना ग़ज़लें दीं, आदमी आदमी को क्या देगा, जो भी देगा बस खुदा देगा। और मेरे दु:ख की कोई दवा न करो। इन्हें कोई भी अपने गम में साझा कर सकता है। दरअसल आज के शोर भरे गीतों से दूर वो गए दशकों का माहौल भी शायद माकूल था, इन ग़ज़लों के लिए, जब सीधे-सीधे पूछने की बजाए किसी शांत वीराने में इन ग़ज़लों से ही पूछा जा सकता था कि झुकी-झुकी सी नज़र बेकरार है कि नहीं या तुम इतना जो मुस्करा रहे हो। आज कहां ढूंढे उस आवाज़ को, उस माहौल को, कहने की बात और है, दर्शन अपनी जगह है कि रूह महसूस करें, आवाज़ में डूब जाएं।
पर हकीकत यही है कि वो नहीं रहे हमारे बीच...इस सूनेपन पर भी उन्हीं की ग़ज़लें सवाल बन कर उठ रही हैं, ‘तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा।’ ‘शाम से आंख में नमी सी है।’ ‘ये बता दे मुझे ज़िंदगी।’ आखिर में ढेर सारी श्रद्धांजलि ग़ज़ल के उस बादशाह को और फिर उन्हीं का कलाम...हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते।
-डॉ. पूनम परिणिता