सुहावनी ब्यार सा था ‘चाणक्य’

अपने मौसम जैसा ही है हिसार। कभी इतनी तपती दोपहरियां तो कभी ऐसी सर्द सुबहें। सुहावने मौसम के बस दो-एक महीने हैं। बस यूं ही जर्द से हिसार में कभी-कभी कोई सुहावनी ब्यार आती है। ऐसी ही एक ब्यार थी नाटक ‘चाणक्य’ का कामयाब और यादगार मंचन। चूंकि कला, कलाकार कमोबेश हर धड़कते दिल में हैं पर उसे जगाने का, झकझोरने का श्रेय उसी को जाता है जो इसे पकड़ कर ज़ोर से हिलाने की हिमाकत रखता है। बस तभी कहीं कोई तारतम्य पैदा होता है, जीवन की बेहोशी और जीने के होश के बीच। वरना तो बस जीये तो हम जा ही रहे हैं।
यकीनन, इस नाटक के मंचन का साक्षी होना एक उपलब्धि जैसा रहा। ये जो इस लेख में थोड़ी गूढ़ता दिख रही है, ये भी इसी का नतीजा है। इतनी शुद्ध हिंदी में इतना शुद्ध उच्चारण किया सभी कलाकारों ने कि गर्व सा हुआ अपनी भाषा की विद्वता पर। यह हर मायने में सफल आयोजन था। समसामयिक मंच सज्जा, एकबारगी सिर्फ मंच देखकर ही हम सिकंदर महान के काल में पहुंच गए। पूरू से धनानंद और पर्वतक के महलों के अंतपुर तक की सैर बस आंखों से ही कर ली। बेहतरीन परिधान में शालीन मेकअप से सजे सभी कलाकार अत्यंत संजीदा लग रहे थे।
मनोज जोशी और अशोक बांठिया जैसे व्यावसायिक फिल्मी कलाकारों को समीप से देखना हर एक के लिए रोमांचित कर देने जैसा था। पहली झलक से ही उनकी अभिनीत तमाम फिल्में याद हो आईं, पर कलाकारों को नाटक में बस कुछ दूरी से, सजीव भूमिकाओं में देखना अपने आप में कुछ घड़ी खो जाने जैसा हुआ करता है। बेशक, कथानक तो ऐतिहासिक और प्रमाणिक था ही, निर्देशन भी मंजा हुआ था। कहीं गति में कोई अवरोध न था। तीन घंटे का समय कैसे दृश्य-दर-दृश्य निकला, पता ही नहीं चला। संवाद अदायगी बेहतरीन रही, इसका परिचय दर्शकों ने बार-बार तालियां बजाकर दिया।
नाटक के अंत में सभी ने कलाकारों की प्रशंसा की और निर्देशक व कलाकारों ने हिसार के दर्शकों की। ये माना कि हिसार के दर्शक अभी नाटक देखने को लेकर अपनी प्रथम ही अवस्था में हैं, परंतु दर्शक होना भी एक विधा है और इसकी पहली ही कक्षा में यह तो सीख ही लेना चाहिए कि नाटक देखने की पहली शर्त है मूक हो जाना। न केवल स्वयं, बल्कि अपने यांत्रिक उपकरणों को भी मूक अवस्था में कर लेना जिसका भारी अभाव दिखा, इतना कि चाणक्य को अपनी कूटनीति छोड़कर विनम्र निवेदन करना पड़ा। कोई बात नहीं, इस उम्मीद के साथ कि अगली बार ऐसा नहीं होगा। हम आयोजकों से ऐसे ही विरले आयोजनों की उम्मीद बनाए रखेंगे।
इसी आयोजन के अंत में एक चीज़ मुझे छू गई। मनोज जोशी को सम्मानित करते हुए सावित्री जिंदल ने काफी झुककर उनका सम्मान किया। मनोज उनसे भी ज्यादा झुके। अचानक पांचवीं में पढ़ा श्लोक याद आया-फल वाले वृक्ष झुक जाते हैं। निश्चिंत ही यह सब अनुकरणीय था। चाणक्य ने अनेक बातें कहीं, राजा के आचरण के बारे में। सावित्री जिंदल भी खो गई होंगी चाणक्य की बातों में, आखिर नगर की ‘राजा’ हैं। पर दिनभर चलने वाले दुनिया के नाटक, तीन घंटे के नाटक पर यकीनन भारी पड़ते होंगे।
डॉ. पूनम परिणिता

प्रभु ! आप यहां कैसे...

जानती हूं, एक बार फिर इंडोनेशिया का नाम लेते ही आप में से ज्यादातर कहेंगे, बस बहुत हो गया। पर मैं भी क्या करूं? पहली बार गई थी विदेश, फिर खर्च भी काफी हो गया। वहां से कुल जमा हासिल है तो बस कुछ जोड़ी विदेशी स्टैंप कपड़े, कुछ फोटो या फिर यादों और अनुभव का खजाना। बस यही खजाना आपस में बांटना चाह रही थी। चलिए, ये इंडोनेशिया के बारे में लास्ट है। 
उस दिन और कोई कार्यक्रम नहीं था। सो, घूमने निकले। पहले बोरोबदूर गए, वो एक बुद्धा मंदिर था, बेहद सुंदर स्तूपों वाला। फिर तमन्नसारी देखा जो एक मुसलिम शासक का महल और इबादतगाह थी। तब तक शाम ढल चुकी थी। तब जाकर पहुंचे, ‘परेम्बनन।’ उस समय वहां के साढ़े चार बज रहे थे। ड्राइवर ने बताया कि साढ़े पांच बजे बंद हो जाएगा। जल्दी से टिकट लेकर भागे।
अंदर का नज़ारा अद्वितीय था। दूर तक फैले बाग-बगीचे जिन्हें पार कर पहुंचे मंदिर के पास। वहां सैकड़ों बड़े-बड़े स्लैबनुमा पत्थर थे। यह एक अधूरा बना मंदिर है जिसके बारे में अपनी कहानी ‘प्यार की अधूरी आस का मंदिर’ में लिखूंगी। पत्थरों की छोटी चारदीवारी के बाद अंदर बड़े-बड़े कई मंदिर थे जिनमें सबसे बड़ा शिव, पार्वती और गणेश का मंदिर था। उसके सामने नंदी बैल का, फिर ब्रह्मा और विष्णु के मंदिर।अपने भारत से इतनी दूर विदेश में अपने भगवानों को देख मुझे अजीब से आनंद का अनुभव हुआ। मैंने जूते उतारे, सिर पर कपड़ा किया, श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़े, आंखें बंद की और उनके वहां होने को बड़ी शिद्दत से महसूस किया। पर आंखें खोलते ही तमाम लोगों को अपनी तरफ घूरते पाया। दरअसल, वहां मंदिरों में न जूते उतारे जाते हैं, न सिर ढकने का रिवाज़, न कोई धूपबत्ती, न पूजा अर्चना, न कोई श्रद्धा और न कोई विश्वास। 
मेरे साथ से गुज़र रहे प्रवासियों के एक समूह को गाइड इंगलिश में भगवान शिव, मां पार्वती और गणेश के बारे में बता रहा था। और ये भी कि, ‘इफ यू विल टच द फीट ऑफ लॉर्ड, यू विल गेट हिज़ ग्रेस।’ तभी उनमें से एक ने ओके कहते हुए भगवान शिव के पैरों को यूं ही चलते-चलते हाथ लगा दिया और आगे बढ़ गया। अरे...रे...यूं थोड़ी...आंखें बंद कर, मन में श्रद्धा, विश्वास ला, फिर झुककर सिर चरणों में रख। मैंने नहीं, मेरे मन ने कहा था ये, ज़ोर से हिंदी में। पर सुनता कौन और समझता कौन। 
ओह! मैंने अपने भगवान की विवशता को दिल की गहराइयों से महसूस किया। फिर उन्हें कुछ मंत्र खालिस संस्कृत में सुनाए। शुद्ध हिंदी में आरती गाई। और फिर पूछ ही लिया उनसे - प्रभु आप यहां...कब से, यूं बिना धूपबत्ती, आरती, पूजा, शंख, घंटी और हां, प्रसाद-चढ़ावा। पीछे से बोल रहा था कोई इंडोनेशियन भाषा में, मुझे सिर्फ 215 बीसी से, समझ आया। मैंने अपना पर्स टटोला, कुछ डॉलरों, इंडोनेशियन करंसी के बीच, अनमना सा गांधी बाबा वाला दस का नोट पड़ा था। मैंने माथे से लगाकर रख दिया, भगवान के चरणों में। मुझे कुछ अलग सी मुस्कान दिखाई दी, अब भगवान के चेहरे पर। जैसे बहुत दिनों बाद कोई अपना सा मिला हो। 
साढ़े पांच बज चुके थे। मंदिर बंद होने लगे थे, आखिरी मंदिर देखना बाकी था। गार्ड से रिक्वेस्ट की पर आश्चर्य, उसने अलग से पैसे मांगे। (अपने यहां इसे सर्विस चार्ज कहते हैं)। मैंने कहा-मान गए भगवान, तेरे बंदे सब जगह एक जैसे हैं।
डॉ. पूनम परिणिता

आज फिर मरने का इरादा है...


मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, वो और बात है कि ज़िंदगी ने मेरा साथ बस यहीं (88 वर्ष) तक दिया। फिर सौंप दिया सांसों का बैटन मौत के हाथ और खुद रुक कर वहीं, देखती रही मुझे जाते रेस के दूसरे हिस्से में। यहां सब धुआं-धुआं सा है, उड़ाने को फिक्र नहीं है। वाय दिस कोलावरी-कोलावरी पर झूमते बच्चों को चाहे फर्क पड़े, लेकिन पचास से सत्तर दशक का पड़ाव जिनके भी जीवन को छुआ है, उनके अंदर कहीं कुछ कारूर दरक गया है। एक अनोखी अदा, एक हिलती, थिरकती, बहती लहर जैसे अचानक थम सी गई है।
देवानंद की उम्दा फिल्में और उनके बेहतरीन गीत जैसे ज़िंदगी के फ़लसफे को खुद बयां करते हैं। अगर अभी प्यार को ढूंढ रहे हैं तो सुनिए...ये दिल होता बेचारा, हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ बोलिए, या फिर कभी कभी, कहीं नहीं और पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले! और अगर प्यार को पा लिया है तो सुनकर होश खोइये...तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं, एक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने या फिर दिल पुकारे रे- रे। और गाता रहे मेरा दिल, तू ही मेरी मंज़िल। और भगवान करे कहीं प्यार में दिल टूट चुका है तो धीमे-धीमे से बजाइए...जीवन के सफऱ में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को, तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं, सैया बेईमान मोह से छल किए जाए या फिर वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाता है कहां। लेकिन मुझे देवानंद के कुछ सदाबहार नगमें पसंद हैं। मसलन, तुम हमें जानों हम तुम्हें जाने, अभी जाओ छोड़कर के दिल अभी भरा नहीं, दम मारो दम, खोया-खोया चांद। और, दिन ढल जाए हाये रात जाए।
कभी-कभी मुझे लगता है, हम सब भी चाहे कोई भी हों मां-बाप, भाई-बहन, व्यवसायी, अधिकारी, नेता, अभिनेता, साधु-संत, हर वक्त अभिनय में रहते हैं। एक भूमिका से दूसरी भूमिका में जाते अक्सर अपने कौशल का प्रदर्शन करते रहते हैं। बस अपने अंदर बसा वोआदमी सादबे-छिपे कहीं अपना असली रूप दिखा जाता है। देवानंद ताउम्र नौजवान के अभिनय में रहे, बस कभी वो आदमी सा, चुपचाप सा आता, गले की झुर्रियों पर मफ़लर डाल जाता। कहते हैं देवानंद के पास कई सौ मफ़लर थे।
अभिनेताओं का जीवन ज्यादातर पेचीदा होता है। वो ज़िंदगी में अभिनय करते हैं और ज़िंदगी उनसे अभिनय करती है। फिल्मविद्याके गीतकिनारे-किनारे चलेकी शूटिंग के दौरान सुरैया अचानक, दरअसल डूबने लगीं तो अभिनय छोड़ देवानंद ने उन्हें बचा लिया। तभी कहीं किसी क्षण शायद सुरैया ने वो दोबारा मिली ज़िंदगी देवानंद के नाम कर दी।
करीब साल भर बाद फिल्मजीतके दौरान देवानंद ने हीरे की तीन हज़ार रुपए की अंगूठी  के साथ सुरैया को परपोज़ किया। परंतु सुरैया की नानी ने उनके सामने मुसलमान हो जाने की शर्त रखी जिसे ज़िद्दीधर्म देव आनंद पिशोरीने नहीं माना और हार गए। सुरैया ने इसका प्रायश्चित ताउम्र अविवाहित रहकर किया। और देवानंद ने इसका प्रायश्चित ताउम्र सुरैया को भूल जाने का अभिनय करके किया। यूं क्या भुला दिया जाता होगा प्यार को!
कहीं लंदन की धरती पर आखिरी क्षणों में हिंदूधर्म देव आनंदने भगवान से सुरैया के बगल वाली कब्र में दफन होना तो ना मांग लिया होगा?  बहरहाल, इस गीत के साथ इस सदाबहार अभिनेता को मेरी श्रद्धांजलि-
आसमां के नीचे, हम आज अपने पीछे
प्यार का जहां बसा के चले, कदम के निशां बना के चले।
-डॉ. पूनम परिणिता

जाने क्या तूने कही...

'जाने क्या तूने कही...बात कुछ बन ही गई।' दरअसल ये गुरुदत्त और वहीदा रहमान पर फिल्माया शोखियों और नाज़ोअंदाज की अदावत वाला हिंदी गीत है। पर मेरे इंडोनेशिया प्रवास के दौरान ये बार-बार नए रूप में सामने रहा था। आपसी भाषा साधारण बातचीत में बार-बार आड़े रही थी। मैं कुछ कहती, वो कुछ और समझते। पर ज्यादातर और कुल मिलाकर बात बन ही जाती।
वहां ज्यादातर मांस परोसा जाता है। शाकाहारी भोजन मिलना वहां दुविधा रही, इसलिए कोई भी चीज खाने से पहले मैं उसके इनग्रेडिंटस के बारे में ज़रूर जान लेती। यूं ही एक रेस्टोरेंट में बैठे तो खाने के बाद कुछ ठंडा लेने की चाह में एक कोल्ड कॉफी ऑर्डर की। तब उसने पूछा, ‘यू वांट इट विद सु-सु।बेसाख्ता मेरे मुंह से नो-नो निकला। तभी साथ वाली इंडोनेशियन फ्रेंड ने कहा-आई थॉट यू लाइक सु-सु। यसटरडे यू एड सु-सु इन टी। मैंने कहा-दैट वाज़ मिल्क। वो मुस्कराई। वेटर जाने के लिए मुड़ चुका था, मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-एक्सयूज़ मी, डोंट फोरगेट टू एड सु-सु टू माई कॉफी।
वहां कुछ घंटे सेलाटीगा की यूनिवर्सिटी के इंगलिश डिपार्टमेंट की सीनियर लेक्चरर पूरवंती के घर बिताए।  उनकी छह वर्षीय बेटी एडन हमारी भाषा को समझ पाने से परेशान थी। मैंने उससे बातचीत की कोशिश में उसकी इंगलिश की बुक मंगवाई। उस किताब के शुरू में कुछ करक्टर बने थे। मैंने इशारों से पूछा तुम्हें इनमें से कौन पसंद है। उसने उंगली रखकर बताया कि मैक्स मंकी। फिर मैंने उसे कागज़ पर मैक्स की तस्वीर बनानी सिखाई। फिर तो वो इशारों-इशारों से मेरे पीछे ही पड़ गई और हमने उसकी किताब के सारे करेक्टरस के चित्र बना डाले।
बच्चों के लिए इतना अपनापन काफी होता है।  उसके बाद खाने के समय मेरे पीछे ही घूमती रही, कागज़ और पैन लिए। खाने के समय जब उसकी मम्मी ने उनकी भाषा में पूछा कि क्या खाएगी। उन्होंने मुझे बताया कि ये कह रही है कि मैं सिर्फ वह खाऊंगी जो पूनम आंटी खाएंगी और आज मैं इनके साथ ही सोऊंगी। मुझे बड़ा अच्छा लगा।
भाषाएं कब भावनाओं को बांध पाती हैं, जाने के वक्त वो काफी उदास हो गई। और बच्चों की तरह गली के नुक्कड़ तक हाथ हिला-हिलाकर मुझे अलविदा कहती रही। उसकी आंखें कुछ नम सी थीं। पता नहीं इंडोनेशियन भाषा में आंसुओं को क्या कहते हैं, लेकिन वो वहां भी खारे और गीले होते हैं। तेरी माकासी धन्यवाद को कहते हैं। अभी इतना ही। अगले कुछ लेखों में इंडोनेशिया की संस्कृति पर भारत के प्रभाव के बारे में बातचीत करेंगे।
डॉ. पूनम परिणिता