ज़िंदगी इक सफ़र...

हालांकि ये पहली बार नहीं है, जब मेरा बेटा स्कूल टूर पर गया है और घर खाली-खाली लग रहा है, पर इस बार जाने क्यूं ज्यादा ही शांति पसर गई है घर में और वो मुझे भा नहीं रही। ऐसे में ही मुझे ये ख्याल भी आया कि जब वो बड़ा हो जाएगा और हम बूढ़े, और वो अपने परिवार के साथ चला जाएगा, तब इतनी ही शांति के साथ कैसे बसर हो पाएगा। इसीलिए शायद अनुपातिक शोर, थोड़ा कोलाहल जरूरी है ज़िंदगी में।
कोई हो, जो उठे तो पूरी चद्दर बिगड़ जाए, बैठे तो उस पर सॉस गिरा दे। वो खुद भले ही तीसरे कमरे में गेम खेल रहा हो, पर पहले कमरे से डोरेमोन की तीखी आवाजें आती रहें। जिसे पास बुलाने के लिए आपको कम से कम तीन आवाजें लगानी पड़ें। और जो आपके दूसरी आवाज पर ही हां जी, बेटा कहने के बावजूद तीन बार फिर भी मम्मा, मम्मा, मम्मा...बताओ क्या...करता रहे। कम से कम इतना शोर, इस तरह का शोर हर घर में होना चाहिए। गीले कपड़ों, बिखरे खिलौनों, बेतरतीब फैली किताबों और अनगिनत डिमांड्ज का थोड़ा तनाव हर किसी की ज़िंदगी में रहे।
वो भी मजेदार दृश्य था, जब हम उसे टूर बस तक छोडऩे उसके स्कूल गए। बच्चों के खिले चेहरे और पेरेंट्स के थोड़े बुझे चेहरे। ज्यादातर बच्चे चाहते हैं कि उनके फ्रेंडस और टीचर्स के सामने पेरेंट्स ज्यादा देर तक न खड़े रहें। पर पेरेंट्स का बस चले तो अपनी गाड़ी से साथ-साथ चले जाएं बच्चों के टूर पर। पेरेंट्स की वो हिदायती आवाजें, चार्जर रख लिया ना, खिड़की के साथ वाली सीट पर बैठ जा, सैंडविच रास्ते में ही खा लेना, हाय शॉल लेना भूल आया, चल सिद्धार्थ से शेयर कर लेना, मोबाइल पर अभी से गेम मत खेलना शुरू कर दियो, इसकी बैटरी खत्म हो जाएगी। पापा अपेक्षाकृत शांत रहते हैं और कहते हैं, वो अपने आप एडजस्ट कर लेगा। बच्चे बस एक ही बात कह रहे होते हैं, हां ठीक है, बॉय।
बस ज़िंदगी का ये सुहाना सफर यूं ही चलता रहे, खिड़की के साथ वाली सीट हो, बैटरी चार्जेबल हो, साथ में गर्म सैंडविच हो, शॉल अगर भूल भी गए हों तो ऐसे दोस्त आसपास हों जो शेयर कर लें। अगर भगवान की इतनी कृपा है तो वो काफी है। इससे अधिक कृपा के चक्कर में अगर काला पर्स या दस-दस की गड्डियां तिजोरी में रखेंगे तो वो जो सहज कृपा थी ना भगवान की, उससे वंचित हो जाएंगे।
जब भी बेटा कहीं घूमने जाता है, मुझे मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ जरूर याद आती है। जब हमीद मेले से अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदकर लाता है। अपने आप से बच्चे ऐसा सोच पाते हैं क्या? मैंने अपने बेटे को कहा था, दादी के लिए जयपुरी चुन्नी लेकर आना और उसका फोन भी आ चुका है कि उसने खरीद ली है। पता नहीं, ये संस्कार जैसी चीजें ऊपर से नमक की तरह छिड़कने पर वही स्वाद दे सकती हैं क्या? पर हमें कोशिश जरूर करते रहना चाहिए।
-डॉ. पूनम परिणिता

लिख लूँ, मन की...

स्टेशनरी की दुकान पर यूं ही मेरी और बेटे की नकार इक_े ही एक व्हाईट बोर्ड पर पड़ गई। हालांकि उसके लिए नहीं आए थे हम दुकान पर, लेकिन दोनों में एक इशारा हुआ, पति से कुछ मनुहार हुई, पूछा था उन्होंने, ‘करोगे क्या इसका’। कोई वाजिब जवाब नहीं था हमारे पास। बोल दिया बेटा कुछ भी लिख क रिवाइका कर लिया करेगा और वो बोर्ड आ गया घर पर।
दो हफ्ते पड़ा रहा एक कोने में क्योंकि उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था लगाने को। फिर घर की कॉमन जगह में लगाया। बेटे ने कुछ अक्षर कुछ चित्र बनाए उस पर। एक दिन पति ने फिर से क्लास ले ली। क्या यूका हो रहा है ये बोर्ड? सिर्फ फिजूलखर्ची से मतलब है आप दोनों को। ‘अरे ये बोर्ड, कुछ भी लिखते हैं, तो मिटा भी देते हैं। यूका हो रहा है’- मैंने बचाव के लिए कह दिया।
उस दिन शनिवार था। सुबह ही बोलकर गये थे कि 4:40 का शो है तैयार रहना और आये रात 8:30 बजे और फोन की लेट की किया था साढे छह बजे कि लेट हो जाउंगा। गुस्सा बहुत आ रहा था, पर उनके बाहर से आते ही सीधा लडऩे की आदत नहीं है मेरी, सफाई देने का पूरा मौका देती हूँ। पर ये क्या जवाब हुआ, कि बस दोस्त आ गये थे और बैठ गये। मूंह अपने आप फूल गया मेरा। दनदनाती रसोई में जा रही थी। रास्ते में बोर्ड दिख गया, पेन उठाया और लिख दिया। वादा निभाना नहीं आता तो करते क्यूं हैं लोग? और रसोई में चली गई। खाना लगाया और प्लेट लेकर वापिस उसी रास्ते आ रही थी। बोर्ड फिर दिख गया। मेरी वाली लाइन के नीचे कुछ लिखा था, जो अब कुछ यूं बन गया था:
वादा निभाना नहीं आता, तो करते क्यूं हैं लोग,
एक पिक्चर के लिए इतना मरते क्यूं हैं लोग,
9:20 का शो बाकी है, टिकट बैड पर रखी है। 10 मिनट में तैयार हो जाओ। मैं तब तक खाना खा लेता हूँ।
ये बात अगर आमने सामने हुई होती तो कायदे से मेरा और रूठ जाना और नाइट शो में जाने से मना करना बनता था। पर उस लिखी हुई बात में कुछ ऐसी बेतुकी रिदम थी कि मुझे हंसी आ गई और ठीक उसी वक्त उन्होंने मुझे हंसते हुए पकड़ लिया। सो आप समझ सकते हैं कि एक तुफान आने से पहले रुक गया, जिससे उस रात की पिक्चर, खाना और यहां तक की अगला रविवार भी तबाह हो सकता था। बस उसी दिन से बोर्ड हमारे घर का सदस्य बन गया, जो बिना बोले ही सब कुछ कहता, सबके दिल की कहता, सबसे ज्यादा कहता। हम ब्यां कर देते और लगे हाथ ही फीड बैक भी मिल जाता।
यूं ही बहुत कुछ अनकहा सा रहा है जिंदगी में। किस से कहें, कब कहें और कैसे कहें। चारो तरफ इतनी आपा-धापी मची है, वक्त किसके पास है सुनने का। फिर एक और दिक्कत है कहने में, कभी कहने से पहले आँखें बोल पड़ती है, कभी होंठ मुस्कुरा उठते हैं। सो बहुत बार मन की बात रह जाती है मन में हीं।
इस बार नयी शुरुआत करके देखिए। लिखें, वो हर बात जो बहुत दिनों से कई तहों में लपेट कर रखी हैं, दिल के सबसे अंदर वाले छोटे कमरे में। बस उतार दें कागका पर, वो खुद कविता बना जाएगी। यकीन मानिये बड़ी राहत मिलेगी।
-डा. पूनम परिणिता

ऐसा लगा तुम से मिल के...

गया हफ्ता बेहद मसरूफियत और रूमानियत भरा रहा। साथ ही थोड़ा रूहानी भी लिख दूं। कई बड़े लोगों से मुलाकात हुई, नजदीक से। बड़े का मतलब सिर्फ ओहदे से नहीं कह रही। गुणों से और न सिर्फ गुण, बल्कि सद्गुणों से। अपने पहले काव्य संग्रह ‘अजन्मी, द अनबॉर्न डॉटर’ के विमोचन के अवसर पर लोकसभा स्पीकर श्रीमती मीरा कुमार को करीब से जाना। जिनके इर्द-गिर्द सुरक्षा का घेरा होता है, हमारा मन हमेशा उनके ‘इन्टीमेट जोन’ में जाने को करता है। हम, उनके साधारण मनुष्यों के तौर पर बिहेव करने पर बेहद अचंभित रहते हैं।
एक बेहद शालीन मुस्कान हमेशा उनके चेहरे पर चस्पा है, वो धीरे से जब बोलती हैं तो मन सुनता है। अपनी स्वरचित कविता में मीरा कुमार ने बताया कि कैसे उन्होंने, कभी दिल को, कभी दुनिया को, कभी नौकरी को, कभी राज को मंजिल समझा, पर जब उन्होंने अंदर झांका तो पाया कि मंजिल तो भीतर है। मुझे ये समझ में आया कि जिनके बाह्य आवरण से हम अभिभूत हुए रहते हैं, जिन्हें हम पाना चाहते हैं, जिन्हें हम छू सकना चाहते हैं, जो हम हो जाना चाहते हैं, वास्तव में वो मंजिल कभी नहीं है। चाह जहां खत्म होती है, मंजिल वहां है।
इसी हफ्ते एक दिगंबर जैन मुनि मंदिर में हुई मुलाकात के बारे में भी बताना चाहूंगी। बहुत सारे प्रश्न धर्म के बारे, आस्था के बारे, ध्यान के बारे, जीवन, मृत्यु और मोक्ष के बारे, मेरे मन में अक्सर घूमते रहते हैं जिनका जवाब मैं इसी जीवन में, मरने से पहले पाना चाहती हूं। मर कर मौत को जाना तो क्या जाना कि फिर ब्लॉग पर आपको बता भी न पाऊं कि मुझे कैसा लगा मृत्यु से मिलकर। सो, सारे प्रश्न किए उन जैन मुनि महाराज जी से तो एक सबसे मोहक बात तो ये लगी कि उन्हें मेरे इतने सारे और इतने अटपटे सवालों पर जरा भी गुस्सा नहीं आया, वरन बड़े ही सरल और मुस्कुराते स्वभाव से उन्होंने उत्तर दिए।
हालांकि मेरे सवालों और उनके जवाबों का अलग से एक लेख लिखा जा सकता है, पर फिर कभी। सबसे बेहतर एक जवाब था कि जाना तो सबको एक ही मंजिल पर है, पर मैंने योगी का मार्ग चुना है जो ‘हाईवे’ है। और फिर अंत में उनका ये कहना कि मैंने सिर्फ अपने खुद के ज्ञान के आधार पर ये उत्तर दिए हैं, जितना कि मैं जानता था। आप हमारे आचार्य से और अधिक जान सकती हैं। मतलब, मैंने ये जाना कि खुद को छोटा बताकर भी आप किसी के मन पर बड़ी छाप छोड़ सकते हैं।
तीसरी जो महिला हैं, उन्हें आप सब जानते हैं, अक्सर देखते हैं। साधारण सूती साड़ी पहनती हैं, कोई लकदक आभूषण नहीं, कोई डिजाइनदार सैंडिल नहीं, साड़ी का पल्लू सिर से थोड़ा भी नीचे होने से पहले, हाथों की मशीनी मुद्रा में वापस सर पर आ जाता है। आपके हाथ जुडऩे से पहले, वो झुक कर, मुस्कुराकर आपको अभिवादन कर देती हैं। दिखने में इतनी साधारण हैं कि यदि इन्हें इनके मन की करने दी जाए तो संभवत: वे किसी समारोह में आएं तो पीछे की किसी सीट पर धीरे से जा बैठें और पूरा कार्यक्रम देखकर चुपचाप निकल जाएं। परंतु भाग्य ने उन्हें सबसे अमीर महिला बनाया है और लोगों ने इन्हें विधायक।
मैंने ये जाना कि जहां दूसरे नेता, पहनावे में, लोगों से मिलकर मुस्कुराने में, मदद और आश्वासन देने में बनावटी होते हैं और जोर-जोर से भाषण देने और दिखावा करने में असल होते हैं। वहीं हमारे हिसार की विधायक पहनावे में, लोगों से बात व मदद करने में खालिस हैं। बाकी सब काम वो करती हैं, क्योंकि भाग्य ने और आप लोगों ने उन्हें ये काम सौंपा है। मैं सोचती हूं चार व्यक्तियों से मिलने के बाद भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हो गया था। तीन लोगों का खुद पर असर मैंने आपको बताया। क्या मैं ज्ञान प्राप्ति के करीब हूं...बुद्धं शरणं गच्छामि...।
-डॉ. पूनम परिणिता

‘श्री भोजनम् महात्मय’

शुभ नवरात्रे खत्म हुए और जिस दिन खत्म हुए, उस शाम राजगुरु मार्केट स्थित चाट भंडार पर जबरदस्त भीड़ थी। आठ दिन का सात्विक व्रत, फिर नौवें दिन हलवा, पूरी और चने का भोग। दिल अचानक कुछ चटपटा सा मांगने लगता है। कुछ खट्टा, गोल गप्पों के पानी जैसा। बस ऐसा ही है इंसान। कभी तो खुद को साधने में, योग को भी हठ की तरह करता है। फिर कभी इमली के खट्टे पानी को पी, एक आंख भींचकर, एक हाथ कान पर रखकर, जीभ से चटकारे की आवाज निकालता है, मानो देवताओं ने अमृत पाने को असुरों से व्यर्थ ही युद्ध किया, असली स्वाद तो यही है।
आजकल सब उत्सव है, भूखे रहना भी, व्रत भी और उधापन भी। व्रत रखने के मायने जहां इंद्रियों को वश में कर भूखा रहने के हैं, वहीं आजकल व्रत के भोज्य पदार्थों का एक अलग ही बाजार पनप रहा है। तरह-तरह के चिप्स, लड्डु, बर्फी और नवरात्रे स्पेशल थाली। इस बार मैंने नवरात्रे नहीं रखे, पर एक होटल में पास ही बैठे परिवार पर नज़र चली गई। बच्चे जहां पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन में से चयन नहीं कर पा रहे थे, वहीं महिला ने धीरे से कहा-मेरे लिए तो व्रत वाली थाली मंगा लो। और जब खाना आया तो देखा कि व्रत वाली थाली सब पर भारी पड़ रही थी। कुटु के आटे की चार पूरी, आलू की तरीदार और पेठे की सूखी सब्जी, सामक की खीर, रसगुल्ले की मिठाई। कोल्ड कॉफी का ऑर्डर अलग से दिया गया था। व्रत से बेबस उस महिला के शीघ्र ही खुद को तृप्त किया और बच्चों से कहा कि जल्दी करो, उसे मंदिर भी जाना है।
जानते हैं धर्म, नियम, संयम के कोई लिखित कायदे-कानून नहीं हैं। सब अपने हिसाब से, अपने दिल के हिसाब से तय किया जाता है। सब कुछ तय करो और ऊपर से टैग लगा दो कि हमारे में तो ऐसा करते हैं। जाने कब किसने तय किया होगा कि बजरंग बली को मंगलवार को बूंदी का प्रसाद चढ़ाना है या माता को छोले, पूरी, हलवा पसंद है। सालासर पर सवामणि, शुक्रवार को गुड़-चना, अमावस पर खीर। मुझे लगता है कि सबका काम आपसी भाईचारे और प्रीतिभोज से चलता होगा। बजरंग बली मंगलवार को प्रसाद सबके यहां भिजवा देते होंगे और खुद शुक्रवार को गुड़-चना शेयर करने माता के यहां पहुंच जाते होंगे। अमावस के दिन सभी देवता मिलकर ट्यूब लाइट की रोशनी में खाते होंगे। क्या चंद्र देवता इनवाइटिड नहीं होते होंगे। क्योंकि चांद आ गया तो अमावस के मायने बदल जाएंगे।
दरअसल सब रस पर, स्वाद पर टिका है। व्रत भी। व्रत खुलने की आस के साथ ही किया जा सकता है। जब दो दिन बाद भी कुछ खाने को मिलने की आस नहीं होती, उसे भूखे मरना कहते हैं और देश में लाखों ऐसे बिना नवरात्रों के बरती हैं। जब मैं बहुत छोटी थी, करीब पांच या छह बरस की तो एक बार किसी बात पर जोर-जोर से रो रही थी कि खाना लग गया। मम्मी ने जैसे ही चावल के डोंगे से प्लेट हटाई, मैं ताली बजाकर जोर से खुशी से चिल्लाई-आ हा चावल। मुझे चावल आज भी उतने ही पसंद हैं। कढ़ी चावल, राजमा चावल, छोले चावल। आज ताली बजाकर जोर से चिल्लाती नहीं हूं, पर मेरे दिल से आवाज आती है-आ हा चावल। अथ श्री भोजनम् महात्मय।
-डॉ. पूनम परिणिता

दिल कहे रुक जा रे, रुक जा...

पिछले कुछ वक्त से मैं अपने एक खास एजेंडे पर काम कर रही हूं। सो पूरी दुनिया में से, अपने लिए चुनी हुई दुनिया को ज्यादा समय नहीं दे पा रही थी। अपनी सारी सामाजिक व्यस्तताओं को एक समय तक के लिए टाल रखा था। हर चीज़ को अपनी पहली फुर्सत के लिए स्थगित कर दिया था। पर मैंने पाया कि बीतता वक्त आपकी फुर्सत का इंतजार नहीं करता।
‘एक दिन, बस यूं ही
वक्त से कहा
रुक तो सही
बस यहीं कहीं
हां यहीं, बस, बस, यहीं
ना रुका, ना पलटा
बोला चलते-चलते यही
ना रुका हूं, ना रुकूंगा
और हां, सुनो, चलती रहो
मेरे संग-संग तुम भी
यूं ही, हां, बस यूं ही।’
वक्त पर न की गई चीज़ अपने होने की गरमाहट खो देती है। अब जिस फ्रेंड ने मुझे फोन कर कहा था कि मुझसे मिलना चाहती है, कुछ देर बैठकर बात करना चाहती है। उसे मैंने अपनी फुर्सत के लिए टाल दिया। और अब जब मैंने उससे कहा-हां, अब मैं अविलेबल हूं तो उसने फीकी सी हंसी के साथ कहा कि उस बात में अब वो बात नहीं रही।
इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि मेरी कविताओं का एक संग्रह लगभग छपने को है। मेरी फुर्सत के चलते ही देरी हो रही है। उसमें मेरी वो कविताएं हैं जो मैंने इंटरनेट पर अपने लिए लिखी थीं। उसके कवर पेज के लिए मुझे एक अच्छी सी पेंटिंग की दरकार है।
दरअसल, मेरी पर्सनालटी कविताओं, कहानियों और लेखन से एकदम अलायदा है। मैं खुद, जब अपनी ही इस एक अलग शख्सियत से रूबरू होती हूं, तब लगता है ‘रहता है कहीं, मुझमें ही, मुझसा कोई।’ कभी मुझे अपने इस तरह का होने पर हैरानी होती है तो कभी एक अलग, अजीब अनुभूति होती है।
पर एक दिन जब मुझसे किसी ने कहा कि आप ऐसा लिखती हैं, जैसा मैं हमेशा लिखना चाहती हूं। पर लिख नहीं पाती हूं, क्योंकि मैं, आप नहीं हूं। बस अलग तरह का कांपलीमेंट था यह, मुझे अच्छा लगा। आत्ममुग्ध तरीके की प्राणी हूं। औरों की खुशी से भी खुश रहती हूं। अपनी खुशी से औरों को भी खुश करती हूं। और जब खुश होती हूं तो वक्त से कहती हूं-
सुन तो सही
रुक जा ज़रा
बस यहीं कहीं
पर वो है कि बस भागता जाता है, अपनी पहली फुर्सत
के इंतज़ार में।
-डॉ. पूनम परिणिता

ना खोना ही है, पाना...

बचपन में एक गाना सुनते थे, चूं-चूं करती आई चिडिय़ा, दाल का दाना लाई चिडिय़ा, कौवा भी आया, मोर भी आया, बंदर भी आया, खौं-खौं। और फिर से, फिर चूं-चूं करती आई चिडिय़ा। अब इस गाने में लॉजिकल कुछ भी नहीं है। चिडिय़ा है, दाल का दाना लाई है, अपना काम कर रही है। अब बाकी जानवर क्यूं बिना काम इकट्ठा हो रहे हैं। और इससे बढ़कर हम जाने क्यूं इस कहानी में दाल का दाना, की बात सुनते ही खिचड़ी पकने की उम्मीद लगा लेते हैं। इतना ही नहीं, खिचड़ी के ख्याली पुलाव भी बना लेते हैं कि गर्म-गर्म भाप और स्वाद की लपटें उठ रही हैं, बस अभी इसे थोड़ा सा फैलाकर, किनारे की ठंडी होती खिचड़ी को, झट से गोल बनाकर मुंह में डाल लेंगे।
बस ऐसा ही एक गीत बचपन से आज तक सुनते आ रहे हैं। हमारा बजट, चूं-चूं करती आती है चिडिय़ा, दाल का दाना लाती है। सब जानवर इकट्ठा होते हैं, खौं-खौं। और अगले साल फिर से वही। अब उपरोक्त गाने का मकसद बच्चों को महज जानवरों की हरकतों से बावस्ता कराने का होता है। सो ही मकसद बजट का है कि सब जान लें कि सरकार बकायदा, सरकारी तौर-तरीके, कायदे-कानून से चल रही है। और कहीं भी कोई वायदे से, कायदे से बाहर जाकर अपनी रेल चलाने की बात करेगा तो फिर, खौं-खौं।
इस बजट की बस एक बात मुझे पर्सनली अच्छी लगी। वो ये कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर कर दिया गया। महज दस हजार की पिछली आयकर छूट जिससे कि पूरे आयकर में सिर्फ एक हजार रुपए का फर्क आता था। इसके चलते जो दोयम दर्जा हमें प्राप्त था, उससे मुक्ति मिल गई। मतलब कि अब आयकर स्टेटमेंट में अलग से कॉलम बनाने की जरूरत नहीं कि महिलाओं के लिए विशेष छूट। अब हम भी बाखुदा उतनी ही तनख्वाह पाएंगे, उतनी ही छूट पाएंगे जितना की बाहक बनता है।
एक रोचक खबर बजट के बाद आई है कि पूरे देश की विकास दर सात प्रतिशत है और देश के नेताओं की 100 प्रतिशत। अब यहां भी देखिए सिर्फ बताने का फर्क है। अब यूं देखा जाए तो देश की विकास दर 107 प्रतिशत हुई। भई ये नेता देश के ही तो हैं, इनकी उन्नति देश की ही उन्नति तो है। तो हुई ना देश में 107 प्रतिशत तरक्की। बल्कि अभी इस विकास दर में बाबाओं की आय शामिल नहीं है। अगर वो भी मिला दी जाए तो शुद्ध विकास दर 207 प्रतिशत बनती है।
बस यूं ही बनती है साल दर साल दाल के दाने की खिचड़ी, यूं ही उठती हैं गर्म-गर्म स्वाद की लपटें, बस यूं ही दिल करता है, साइड से थोड़ी ठंडी हुई खिचड़ी को गोल कर मुंह में डाल जाने का। पर जाने क्यूं हमारे बांटे तो हर बार गीत के आखिरी शब्द ही आते हैं। खौं-खौं। लेकिन हम बेहद आशावादी हैं, हर साल फिर इंतज़ार करते हैं, चिडिय़ा का। वो फिर आएगी मुंह में दाल का दाना दबाए।
-डॉ. पूनम परिणिता

क्या बने बात, जो बात...

यूं कायदे से अब तक मौसम बदल जाना चाहिए था, लेकिन अभी भी सुबह और शाम ठंड हल्की से कुछ ज्यादा ही है। और चूंकि हम इसे हल्के में ले रहे हैं तो यह गाहे-बगाहे शरीर पर अपनी जकड़ बना ले रही है। इस बार इस आर्टिकल में कुछ ढूंढना चाहेंगे तो नहीं मिलेगा। क्योंकि जो बात मैं लिखना चाहती हूं, वह साफ-साफ लिख नहीं पाऊंगी। और यूं भी मौसम की, कभी बच्चों के एग्ज़ाम की, हिसार में हो रही इतनी शादियों की बात करूंगी तो आप समझ नहीं पाएंगे। दरअसल, बात तो वही है जो इतने दिनों से सबसे हलक में फांस की तरह अटकी है।
अपना हिसार कमोबेश शांत शहर, समझदार शहर है। जब सिख विरोधी दंगे उत्तर भारत को, पड़ोसी राज्यों को दहला रहे थे, तब अपनी समझदारी से ही, हिसार ने बहुत मेच्योरली बिहेव करते हुए अपनी व्यवस्था को बेदाग़ बनाए रखा। और वो आज भी इस कोशिश में है। वो चुप है, बिल्कुल एक सीनियर सिटीजन सा जो अपने जवान बच्चों के व्यवहार को संयम से, बस अब तक देखता रहा है, जब तक मुंह खोलना मजबूरी न हो जाए। वक्त नाज़ुक ज़रूर है, पर बीत जाएगा। बस वार ऐसे न हों, जो दाग छोड़ जाएं।
कभी-कभी बड़े तूफान आसानी से झेले जाते हैं और मामूली अंधड़ बड़े नुकसान कर जाया करते हैं। संयम हर हाल में बेहतर है।
यूं हिसार पढ़ा-लिखा शहर है, पर कभी-कभी पढ़ाई कंफ्यूज़ कर देती है। अब यूं तो ट्रैक पर आने का मतलब होता है, व्यवस्था ठीक होना। और ट्रैक से हट जाने का अर्थ होता है कि व्यवस्था खराब हो जाना। सो पूरी तरह कंफ्यूज़न में है हिसार कि सबको ट्रैक पर रहने दे या हटा दे।
सब खामोश हैं, बस बंद-बंद है, बस एक इंतज़ार है, सब कुशल मंगल होने का, सब दुरुस्त होने का। फिर इक नई सुबह होगी, फिर इक नया कारवां होगा।
-डॉ. पूनम परिणिता

तेरी इक नज़र की बात है...

उसका नाम वंदना है, चूंकि अभी तक उससे मिली नहीं हूं, तो वो मेरी फोनफ्रेंड ही हुई। मेरी उससे कुल जमा चार बार ही फोन पर बात हुई है। वो भी कुत्ते को गोद लेने के बारे में। दरअसल नेट पर देखकर पता चला कि वंदना अपनी दो छोटी और प्यारी सी लेब्राडोर (कुत्ते की नस्ल) बच्चियों को किसी को गोद देना चाहती है। मैंने बात की तो उसने कहा नि मुझे आपसे थोड़ी ही देर बात करके अच्छा लगा, लेकिन मेरी ये शर्त है कि मैं इन बच्चियों को दिल्ली से बाहर नहीं दूंगी, क्योंकि मैं बार-बार ये देखना चाहूंगी कि इन्हें ठीक से रखा जा रहा है या नहीं। ठीक से रखने का मतलब बाद की बातों में समझ आया।
पहली बात तो यह कि इन्हें बांधकर नहीं रखना। इन्हें पूरे घर, यहां तक कि बिस्तर, पूजा घर, रसोई कहीं भी बेरोकटोक आने की पूरी आज़ादी। हो सके तो इनके लिए अलग कमरे की व्यवस्था जिसमें इनके लिए एक आरामदायक (महंगा और कुत्तों के लिए अलग से मिलने वाला) बिस्तर, खिलौने और इनके लिए खाने-पीने का सामान हो। जो भी इन्हें ले जाए, वो इनसे (बिना शर्त) बेइंतहा प्यार करे। घर में मम्मी, पापा, दादी, नौकर या कोई भी सदस्य ऐसा न हो, जिन्हें कुत्तों या उनकी किसी आदत से कोई परहेज़ हो। कुल मिलाकर ऐसा परिवार हो जिसमें कम से कम एक प्राणी कुत्तों के लिए पागल हो, बाकी दीवाने हों। अगली एक, दो बातों में उसने बताया कि वो पांच, छह घर देखकर आ चुकी है जिसमें से कोई भी उसे उसकी शर्तों के चलते पसंद नहीं आया। सो, अभी इन दो बच्चियों और तीन अन्य कुत्तों के साथ वंदना खुशी-खुशी रह रही है।
वंदना ने कत्थक में पीएचडी की है तथा सांस्कृतिक मंत्रालय के माध्यम से कई बार विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी है।
वहीं एक बार ऑस्ट्रेलिया दौरे के दौरान वहां कुत्तों के बेहतर रखरखाव पर ध्यान गया और वहां से वापस भारत आने पर यहां की गलियों में जब कुत्तों को बेसहारा, भूखे घूमते और वाहनों से टकराकर मरते देखा तो उनके प्रति समर्पित हो गई। तब से कहीं भी कोई घायल, बीमार कुत्ता देखती है तो उसका उपचार कराती हैं। कुत्ते को देखभाल की ज़रूरत हो तो अपने साथ रख लेती है। अन्यथा गोद दिलवाने का प्रबंध करती है। उसने एनजीओ या संस्था नहीं बनाई है। बस, हमारे ही एक जूनियर डॉक्टर दंपति और दोस्तों की मदद से ये नेक काम कर रही है। वो कश्मीरी पंडित है और अविवाहित है। अपनी मां के साथ रहती है। विवाह में शायद कहीं, उसके कुत्तों के प्रति इतना समर्पण आड़े आ रहा हो। पर उसे और मुझे विश्वास है कि समय रहते उसे कोई उसी की तरह समझने वाला जीवन साथी ज़रूर मिल जाएगा। जैसा कि उसने मजाक में कहा-आई नीड ए पार्टनर, हू मस्ट बी केयरिंग (फिर बीच में थोड़ा रुककर)...फॉर डोग्स।
उसकी बात का अंदाज, उसकी भावनाएं, उसका समर्पण मुझे भाता है, मैं काफी देर तक उसके बारे में सोचती हूं। वो कई साल से ये काम कर रही है। बस मेरी सोच, एक जगह आकर ठिठक जाती है कि कहीं ये काम वंदना ने किन्हीं आदमजात बच्चियों के लिए किया होता? दिल्ली में ही कहीं, अपने पड़ोस में ही कहीं निठारी कांड जैसे हादसे होते ही रहते हैं। कहीं उन बच्चियों को वंदना जैसी किसी सुह्रदय का साथ, हाथ मिल गया होता। उन पांच कुत्तों के बढिय़ा बिस्तर से इतर, एक छोटा सा झूला किसी अनाथ बच्ची के लिए भी लगा लिया होता। मेरा आशय वंदना के कुत्तों के प्रति सुव्यवहार की आलोचना बिल्कुल नहीं है और मैं मनुष्य और कुत्तों के व्यवहार की वफादारी को भी बखूबी समझती हूं। पर दिल में इतना प्यार, संवेदना, समर्पण हो तो एक प्यारी बेसहारा बच्ची की पालना कितनी उच्चकोटि की हो सकती है, बस ये कहना चाहती हूं। ऐसा काम हमारे ही शहर में एक सीनियर मेडिकल ऑफिसर कर रही हैं, कभी उनके बारे में अच्छे से बताऊंगी।
-डॉ. पूनम परिणिता