ज़िंदगी इक सफ़र...

हालांकि ये पहली बार नहीं है, जब मेरा बेटा स्कूल टूर पर गया है और घर खाली-खाली लग रहा है, पर इस बार जाने क्यूं ज्यादा ही शांति पसर गई है घर में और वो मुझे भा नहीं रही। ऐसे में ही मुझे ये ख्याल भी आया कि जब वो बड़ा हो जाएगा और हम बूढ़े, और वो अपने परिवार के साथ चला जाएगा, तब इतनी ही शांति के साथ कैसे बसर हो पाएगा। इसीलिए शायद अनुपातिक शोर, थोड़ा कोलाहल जरूरी है ज़िंदगी में।
कोई हो, जो उठे तो पूरी चद्दर बिगड़ जाए, बैठे तो उस पर सॉस गिरा दे। वो खुद भले ही तीसरे कमरे में गेम खेल रहा हो, पर पहले कमरे से डोरेमोन की तीखी आवाजें आती रहें। जिसे पास बुलाने के लिए आपको कम से कम तीन आवाजें लगानी पड़ें। और जो आपके दूसरी आवाज पर ही हां जी, बेटा कहने के बावजूद तीन बार फिर भी मम्मा, मम्मा, मम्मा...बताओ क्या...करता रहे। कम से कम इतना शोर, इस तरह का शोर हर घर में होना चाहिए। गीले कपड़ों, बिखरे खिलौनों, बेतरतीब फैली किताबों और अनगिनत डिमांड्ज का थोड़ा तनाव हर किसी की ज़िंदगी में रहे।
वो भी मजेदार दृश्य था, जब हम उसे टूर बस तक छोडऩे उसके स्कूल गए। बच्चों के खिले चेहरे और पेरेंट्स के थोड़े बुझे चेहरे। ज्यादातर बच्चे चाहते हैं कि उनके फ्रेंडस और टीचर्स के सामने पेरेंट्स ज्यादा देर तक न खड़े रहें। पर पेरेंट्स का बस चले तो अपनी गाड़ी से साथ-साथ चले जाएं बच्चों के टूर पर। पेरेंट्स की वो हिदायती आवाजें, चार्जर रख लिया ना, खिड़की के साथ वाली सीट पर बैठ जा, सैंडविच रास्ते में ही खा लेना, हाय शॉल लेना भूल आया, चल सिद्धार्थ से शेयर कर लेना, मोबाइल पर अभी से गेम मत खेलना शुरू कर दियो, इसकी बैटरी खत्म हो जाएगी। पापा अपेक्षाकृत शांत रहते हैं और कहते हैं, वो अपने आप एडजस्ट कर लेगा। बच्चे बस एक ही बात कह रहे होते हैं, हां ठीक है, बॉय।
बस ज़िंदगी का ये सुहाना सफर यूं ही चलता रहे, खिड़की के साथ वाली सीट हो, बैटरी चार्जेबल हो, साथ में गर्म सैंडविच हो, शॉल अगर भूल भी गए हों तो ऐसे दोस्त आसपास हों जो शेयर कर लें। अगर भगवान की इतनी कृपा है तो वो काफी है। इससे अधिक कृपा के चक्कर में अगर काला पर्स या दस-दस की गड्डियां तिजोरी में रखेंगे तो वो जो सहज कृपा थी ना भगवान की, उससे वंचित हो जाएंगे।
जब भी बेटा कहीं घूमने जाता है, मुझे मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ जरूर याद आती है। जब हमीद मेले से अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदकर लाता है। अपने आप से बच्चे ऐसा सोच पाते हैं क्या? मैंने अपने बेटे को कहा था, दादी के लिए जयपुरी चुन्नी लेकर आना और उसका फोन भी आ चुका है कि उसने खरीद ली है। पता नहीं, ये संस्कार जैसी चीजें ऊपर से नमक की तरह छिड़कने पर वही स्वाद दे सकती हैं क्या? पर हमें कोशिश जरूर करते रहना चाहिए।
-डॉ. पूनम परिणिता