क्या बने बात, जो बात...

यूं कायदे से अब तक मौसम बदल जाना चाहिए था, लेकिन अभी भी सुबह और शाम ठंड हल्की से कुछ ज्यादा ही है। और चूंकि हम इसे हल्के में ले रहे हैं तो यह गाहे-बगाहे शरीर पर अपनी जकड़ बना ले रही है। इस बार इस आर्टिकल में कुछ ढूंढना चाहेंगे तो नहीं मिलेगा। क्योंकि जो बात मैं लिखना चाहती हूं, वह साफ-साफ लिख नहीं पाऊंगी। और यूं भी मौसम की, कभी बच्चों के एग्ज़ाम की, हिसार में हो रही इतनी शादियों की बात करूंगी तो आप समझ नहीं पाएंगे। दरअसल, बात तो वही है जो इतने दिनों से सबसे हलक में फांस की तरह अटकी है।
अपना हिसार कमोबेश शांत शहर, समझदार शहर है। जब सिख विरोधी दंगे उत्तर भारत को, पड़ोसी राज्यों को दहला रहे थे, तब अपनी समझदारी से ही, हिसार ने बहुत मेच्योरली बिहेव करते हुए अपनी व्यवस्था को बेदाग़ बनाए रखा। और वो आज भी इस कोशिश में है। वो चुप है, बिल्कुल एक सीनियर सिटीजन सा जो अपने जवान बच्चों के व्यवहार को संयम से, बस अब तक देखता रहा है, जब तक मुंह खोलना मजबूरी न हो जाए। वक्त नाज़ुक ज़रूर है, पर बीत जाएगा। बस वार ऐसे न हों, जो दाग छोड़ जाएं।
कभी-कभी बड़े तूफान आसानी से झेले जाते हैं और मामूली अंधड़ बड़े नुकसान कर जाया करते हैं। संयम हर हाल में बेहतर है।
यूं हिसार पढ़ा-लिखा शहर है, पर कभी-कभी पढ़ाई कंफ्यूज़ कर देती है। अब यूं तो ट्रैक पर आने का मतलब होता है, व्यवस्था ठीक होना। और ट्रैक से हट जाने का अर्थ होता है कि व्यवस्था खराब हो जाना। सो पूरी तरह कंफ्यूज़न में है हिसार कि सबको ट्रैक पर रहने दे या हटा दे।
सब खामोश हैं, बस बंद-बंद है, बस एक इंतज़ार है, सब कुशल मंगल होने का, सब दुरुस्त होने का। फिर इक नई सुबह होगी, फिर इक नया कारवां होगा।
-डॉ. पूनम परिणिता