‘‘अवतार हैं या……..’’

तुने कही इक कथा , बन गई जो सनातन
बिना दिए जन्म पैदा किये ऐसे अवतार जो रहेंगें युगान्तर ,
जिन्होने प्रस्तुत किये ऐसे आदर्श , कि बन गए खुद भगवान
उन्हे निभा न पाऐगें साधारण पुरूष ।
उस पर विडंबना ये कि ऐसे पुरूष एक या दो नही , हैं तैतीस करोङ
एक ओर है एक पत्नी का धर्म पालन
तो दुसरी ओर है महारास ।
एक ओर जला देने की बनाई परम्परा रावण को सीता के हरण
पर साल दर साल
दुसरी ओर संयुक्ता के अपहरण को दिया वीररूप अहसास ।
एक ओर दिया भाई ने त्याग का संदेश , और रखा चरण पादुका
को सिहांसन पर
वहीं भाईयों ने किया भाईयों का संहार , रखा स्त्रियों की भी लज्जा
को ताक पर
एक भाई ने किया भाई का चौदह बरस इन्तज़ार
वहीं दुसरी ओर एक भाई ने किया सुंई की नोक के राज पर भी एतराज़ ।
एक स्त्री ने पति से लिए वचन और दिया पुत्रसम को
चौदह बरस का बनवास ;
एक स्त्री ने बिना देखे बटँवा दिया एक स्त्री को पाँच भाईयों में जैसे कि
कोई वस्तु हो निःश्वास ।
मैं क्यूँ करुँ , मैं कैसे करुँ , मैं किस पर करुँ विश्वास ,
कि भगवान हैं , अवतार हैं, या पुरूष हैं बस थोङे खास ।

"मुस्कान–एक महिने की !"

तुम्हारे छोटे-छोटे बन्द होठों पे,
ये लम्बी सी मुस्कान आई!
जाने क्या देखा होगा ख्वाब तुमने,
चाहो भी तो बता न पाओगी,
बस समझ ही लेना होगा हमें खुद से,
अपनी ही खुशी से कि तुम खुश हो,
प्रकृति की इस दुनिया में आकर!
बस युं ही मुस्कुराते रहना और,
बिखेरना खुशियाँ उन सब में,
जो तुम्हे चाहे, तुम्हे अपनाऐ,
और लेना चाहे, तुम्हे अपने
थोङा, थोङा और पास ।

‘‘माँ और माँ जी’’

याद है माँ, जब अपन सब थे,
हम सब भाई बहन, पापा और आप,
तब आपका चेहरा जाने कैसे तेज से चमकता था,
आँखो में काजल, बडी सी बिंदिया, माथे पर सिन्दूर दमकता था,
कैसे भागती दौडती तुम सारे काम निपटाती थी,
कितने प्यार से हम सब बच्चों को कहानी सुना कर सुलाती थी,
हमारी हर सुबह, हमारे माथे पर तुम्हारे चुबंन से शुरु होती,
हमारी हर रात आपकी लोरियों से सपनों में खो जाती,
तब हमारी हर समस्या का समाधान तुम हुआ करती थी,
मौजे खो जाते या पेन्सिल टुट जाती;
जाने कौन सी जादू की छडी से तुम सब ढूढँ लाती,
आपके बनाये आलु के परांठे, राजमा चावल, वो मिष्ठी दही,
जाने क्या डालती थी खाने में;
पेट हमेशा भरता, नीयत कभी ना भरी,
तुलसी के सामने रोज़ दिया लगाती,
कितने नेह से हम सबको पूजा पाठ सिखाती,
कैसे जबरदस्ती आँखे मीँचे हम आरती में बैठे रहते,
उस थोडे से प्रसाद के लिए पूरी आरती सहते रहते,
जैसे हम भाई बहनो के झगडे निपटाती;
कोई दरोगा भी कहाँ कर सकता था,
हमें आपकी पिटाई से सच कहूँ बहुत डर लगता था,
पहले पिटाई कर के फिर जब सीने से लगाती थी,
ऐसे करके तो आप हमें और भी ज्यादा रुलाती थी,
कभी कही घूमने जाने का प्रोग्राम बनाती;
याद है हमारे साथ मिलकर आप भी पापा को कितना मस्का लगाती,
हमारे पढ़ाई के दिनों में कैसे साथ-साथ जागती थी,
बीच-2 में आपकी कोफी हममें नया दम भर जाती थी,
हमारी दोस्त बनकर आप हमसे हमारे दोस्तों के बारे में जानती,
कभी-2 फिर आरथोडोक्स सी बनकर हमें बिना बात कितना डाँटती,
हमारे करियर की कितनी चिन्ता करती,
हमारे एडमिशन के समय कैसे चहकती फिरती,
होस्टल में जाने को जाने क्या-2 बनाकर भेजती,
आपका बस चलता तो अपना एक क्लोन बनाकर साथ बाँध देती,
हम भी आपका फोटो रूम के टेबल पर सजाते,
सुबह आँखें बंद किए-2 आपको गुडमोर्निगँ बोलते;
फिर बिना ही आपके प्यार के बस उठ जाते,
आप हमारी कितनी चिन्ता करती,
पापा से छुपाकर थोड़े ज्यादा पैसे जेब में रख देती,
जब हम सैटल हो गए आपने कितनी खुशियाँ मनाई,
अपनी तरफ से आपने बढ़िया सब बच्चों की शादी करवाई
फिर अचानक आप माँ से माँ जी हो गई…………… !

हमारे कमरों में बङी-2 हमारी फ्रेम्ड फोटो लग गई,
आपकी ब्लैक एन्ड वाईट फोटो जाने कहाँ खो गई,
आपके आलु के पराठें, राजमा चावल सब हवा हो गए हैं,
हम भी अपनी स्टाईल बीवीयों के साथ पिज़्ज़ा नूडल्स में खो गए हैं,
अपनें मोज़े, अपनी टाई खुद ढूंढकर पहन लेते हैं,
आपकी जादू की छङी को याद ज़रूर कर लेते हैं,
आपके बिल्कुल पास आने में जाने कौनसे डर से घबराते हैं,
शायद बीवीयों द्वारा मम्माज़ ब्वाय कहे जाने से डर जाते हैं,
अब तो ज्यादातर वक्त बस अपने कमरे में बैठी रहती हो,
कभी बी0 पी0 कभी शुगर की गोलियों में उलझी सी रहती हो ।

आज मेरी बेटी आपकी एक पुरानी फोटो उठा लाई,
पहले देर तक खुद ही उलझी रही फिर मुझे दिखाई,
पापा ये कौन हैं ?
बेटा ये आपकी दादी हैं,
सच…, दादी ही हैं ?
दादी पहले ऐसी थी ?
बडी बडी आखो में भरा भरा काजल,
माथे पर सिन्दूर, बडी सी बिंदिया,
फिर अब दादी ऐसी कैसे हो गई ?
मैं उसे तो कुछ ना कह पाया,
पर मन में जाने कहाँ से आया,
बेटा….,
आखोँ का काजल चश्में में खो गया,
बडी सी बिंदिया अब छोटी हो गई,
घर में सारा दिन माँ जी–माँ जी सुनाई देता है,
हमारी वो वाली माँ जाने कहाँ खो गई !

‘‘वो पीला वाला गुब्बारा...’’

नहीं वो नहीं भईया
वो नीले वाले के पीछे
वो, हाँ वो, बङा सा पीला वाला गुब्बारा
वो ही चाहिए मुझे
नहीं, नया फुला कर नहीं देना
बस वही वाला चाहिए
वो बङा सा पीला वाला गुब्बारा
ना, रंग बिरंगा नहीं
बस वही, हाँ बस वही....

आज इस उम्र में भी
मेरे अन्दर इक बच्चा
यूँ ही ज़िद करता है
बस मचल-2 उठता है
ना वक़्त देखता है
ना मेरी उम्र
ना हालात
वो तो ये भी नहीं देखता कि
कहीं कोई गुब्बारे वाला नहीं है
और ना ही कहीं कोई पीला वाला गुब्बारा.....!

“और मैं कविता तलाशती ही रह गई”

मेरे शहर में नंवम्बर का मौसम ;
मद्धम चलती हवा और गुनगुनी धूप का होता है ,
और मेरे घर में हर मौसम खुशगवार ।
आज फिर अपना टोस्ट और कॉफी मग ले कर ;
ऊपर छत पर आ गई ;
इक नई कविता की तलाश में ,
आसमान को ताका बस चुप-2 सा था ,
पेङों को, पत्तों को देखा, थोङे सुस्त से थे ,
नीचे सङक की तरफ झांका ,
सूनी, उदास, खाली, अकेले चले जा रही थी ,
सच, कहीं किसी चीज मे आज कविता नहीं मिल पा रही थी।
सामने वाले घर की रेंलिग पर एक कौवा बैठा हैं ,
जाने हल्की हवा का असर है कि मीठी धूप का ;
अपने पंजो को छिपाये और पखों को फुलाये बस बैठा है ;
ना उसे मेरी बात समझ में आती है ;
ना मुझें उसका मौन ,
फिर भी मैने उससे पूछ ही लिया ;
कैसे हो महाशय…….?
उसने दो बार इधर उधर देखा,
और चोंच से पंख सवांरने लगा ;
जैसे कह रहा हो ;
बिल्कूल ठीक हूँ , मजे ले रहा हूँ ;
जैसे तुम मेरे ले रही हो, मैं तुम्हारे ले रहा हूँ ,
अच्छा……, मैं हँस पडी ;
मुझे तो कुछ फिक्रमंद नजर आते हो, मेरा अगला सवाल था ;
वो उचक कर छत पर लगी डिश की तरफ देखने लगा ,
क्या .. आजकल के समाचारो से परेशान हो ;
पर क्या तुम्हें भी फर्क पडता हैं ,
सेनसेक्स का ग्राफ गिरता है ;
तो क्या तुम्हारा भी दिल उछलता है ,
उसने गरदन हिलाई ….
ना…।
तुमने वो प्यासे कौवे वाली कहानी नहीं सुनी ,
अपना तो ये उसुल है ,
इंतजार करते है, संयम ऱखते है ,
देखते रहते है, कंकङ दर कंकङ ;
चोंच से पानी कितनी दूर है ,
ज्यों ही जग में पानी ऊपर आया ;
पैसा बनाया, माने पानी पिया ;
और उङ गया ,
अच्छा… तो फिर क्या जमीन के बढते भावों की चिंता में हो ,
मैनें संवाद को आगे बढाने के लिए नया सवाल उछाला ,
उसनें एक लम्बी सांस ली ,
और जैसे अपनी तेज नजर से ;
दूर तक की सारी धरती नाप ली ,
इस बारे में ना पूछो ,
जानती तो हो ;
आजकल अपना खुद का पेङ ढूढना कितना मुश्किल हो गया है ,
एक जीवन लग जाता है ;
बढिया सोसाइटी में एक हरा भरा पेङ पाने में ,
कितना कुछ देना पङता है डीलरों को ;
एक कोयल का घौंसला रेन्ट पर हथियाने में ,
वो कुछ उदास सा हो चला था ।
सो मूड बदलने की गरज से ;
मैनें हल्का फुल्का सवाल किया ,
और आजकल खाने-वाने का क्या चल रहा है ;
तभी अचानक नीचे मोबाइल की घंटी बजी ;
कौवा बोला नीचे जाओ तुम्हारा फोन बज रहा है ,
मैं थोङी देर में जब फोन देख कर ऊपर आई ;
देखा कौवा मेरा टोस्ट मजे़ से खा रहा था ,
और साथ ही पंजे में पैन पकङ, कागज पर चला रहा था ,
मैंनें देखा कागज पर उसने लिखा था ;
खाने पीने को मिल ही जाता है ;
आप जैसों की दूआ है ,
माफ करना तुम्हारे टोस्ट पर मेरा नाम लिखा है ,
कैसे छोङुँ, इतना बढिया ब्रेकफास्ट है ,
अच्छा परसों फिर छत पर आना, यहीं मिलूँगा ;
कल मंगलवार है मेरा तो फास्ट है ,
और उङते-2 कौवा बोला ;
क्यों क्या कोई मिस्ड कॉल आई थी ;
एक दोस्त को कह कर मैंनें ही करवाई थी !
यूँ टोस्ट कौवा ले उङा, कॉफी ठंडी हो गई ;
और मैं कविता तलाशती ही रह गई ।

‘‘आखिर हैं तो वो हमारे अपने’’

हम बच्चे थे। दो, चार, पाँच या फिर दस, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जन्म देने की और पालने की जिमेदारी हमारे जन्मदाताओं पर थी, और उन्होनें अपनी इस जिम्मेदारी को तमाम मुश्किलों को झेलते हुआ निभाया। और अब हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए उनकी पालना करें। और अपने फ़र्ज़ का निर्वहन करें अन्यथा समाज कहेगा कि देखो माँ-बाप ने किन मुश्किल परिस्थियों मे भी इतने बच्चो को पाला और बच्चे हैं कि दो माँ-बाप को नहीं पाल सकते।
आज सुबह महिम का फ़ोन आया तो वो कुछ परेशान सा लगा। उसने मुझे शाम चार बजे कैफ़े में मिलने की बात कही और फ़ोन रख दिया। महिम, मानवी, तान्या और मैं बचपन के साथी हैं। तीन लङकियों में एक लड़का नाक कटाने आया। पर फिर उसी कटी नाक के साथ वो हमारा दोस्त बना और आज तक है। तान्या और मानवी यूरोप जा चुकी हैं। सो अब सिर्फ मैं और महिम बचे जो अपने सुख दुःख साझा करते हैं और बचपन की यादें भी। महिम की आदत है की कॉफ़ी पीने तक कुछ नहीं बोलता, बस उसके चेहरे पर आते भावों से ही अन्दाज़ा लगाना पड़ता है कि क्या हुआ होगा। आज कुछ ज़यादा ही तनावग्रस्त लग रहा है। शायद कॉफ़ी की आखिरी घूँट के बाद ही फूटेगा। 
"मैं बहुत परेशान हूँ..., आज फिर पापा से झगडा हुआ..., कोई नई बात नही..., बस उन्हें मेरी आदते पसंद नही है, लकिन मैं उन्हें बदल नही सकता। उन्हें अपनी ही पसंद से लाई हुई बहू के सलीके पसंद नही..., मैं उन्हें बदल नही सकता। उन्हें आज कल के बच्चों के चाल-चलन पसंद नही..., मैं उन्हें बदल नही सकता। और मैं पापा भी बदल नही सकता । तुम जानती हो की मैं अपने पापा से कितना प्यार करता हूँ, चाहता हूँ की वे सदा मेरे साथ रहे ..., उनका अनुभव मेरे बिजनेस में मेरी मदद करे..., उनकी उम्रदराजी से घर में एक अनुशासित माहोल रहे..., उनकी बुज़ुर्गियत से मेरे बच्चों को संस्कार मिले...।  
पर मुझे समझ नहीं आता कि भूल कहाँ हो रही है । वो मेरे साथ रहना नहीं चाहते और इस रोज़-2 की चिक-2 की वजह से में भी चाहता हूँ, घर में शान्ति रहे, वो फिर उनके साथ रहने से हो या ना रहने से।
लेकिन मुझ पर चाचा, ताऊओं और समाज के दबाव इस कदर हैं कि – तुम इस उम्र में अपने माता-पिता को अपने साथ नहीं रख सकते। मैं अपनी नौकरी, परिवार, बच्चों और माँ-पिता के बीच घुन की तरह पिस रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि कोई हल नहीं निकलने वाला..., पर फिर भी तुम से बात करके अपना तनाव धोना चाहता हूँ।"
पता है महिम,‘‘बागबाँ फिल्म को एक कमरे में एक ही टीवी पर बैठ कर, सब अपनी-2 नज़र से देखते हैं, और अपनी-2 आखों में, अपनी-2 भावनाओं के हिसाब से रोते हैं।’’ मैं और महिम जब भी किसी समस्या का समाधान करने बैठते हैं तो कॉफ़ी के तीसरे कप के बाद समस्या का पहला सिरा पकङते हैं, उसे किसी सिचुयेशन से जोङते हैं।
मैं और महिम पङोसी हैं और बचपन से जानती हूँ। शायद उससे बङी हूँ इसलिए बातों को उससे ज़्यादा समझने का दावा करती हूँ। महिम के पापा से बात करूँगी तो वो इसे ज़बान लङाना कहेगें। एक चिट्ठी लिख रही हूँ उनके नाम और उन तमाम अभिभावको के नाम, जो समझते हैं कि आज की जनरेशन को अपनें अभिभावकों की भावनाओं की कद्र नहीं है।    
जब महिम छोटा था, वो चार बहन भाई थे। महिम के पापा की छोटी सी नौकरी थी। पर वो इसी से छः सदस्यी परिवार का पेट पालते थे। बिल्कूल सही। आज महिम की नौकरी कुछ बडी है। उसे दो बच्चों, पत्नी और माँ-बाप सहित छः सदस्यी परिवार को पालना है। और कुछ यही हाल और भाई-बहनों का भी है।    
माँ-पापा खुद किसी बच्चे के साथ रहना चाहें तो सही। लेकिन बच्चे अपनी सुविधा से उन्हे एक दूसरे के पास भेज दें तो ग़लत। जबकि बचपन में खर्चे की वजह से महिम की छोटी बहन को बुआ के पास पढने भेजा गया। सब बच्चे उसके जाने से बहुत रोए थे और वो खुद बुआ के पास बडी मुश्किल से एडजस्ट कर पाई और जब नहीं कर पाई और बिमार हो गई तो वापिस बुलाना पडा। लेकिन बच्चो ने कोई विरोध नहीं किया या नहीं कर पाये या किया तो किसी ने सुना नहीं। लेकिन माँ बाप को एक दूसरे (अपने ही बच्चों) के पास भेजना..., माने भावनाओं की कद्र नहीं।               
बचपन में कभी जब महिम के पापा के बॉस को या किसी दोस्त को घर आना होता तो बच्चों को साफ-सुथरा कर, अपनी सुविधानुसार कपङे पहना घर बैठाया जाता, फिर उनके सामने उनकी पढ़ाई का जिक्र, तारीफ, रिवीश़न और प्रदर्शन अपनी बङाई के लिए किया जाता, सही। लेकिन यदि महिम के दोस्तों या पत्नि की सहेलियों के सामने ठीक तरह के कपङे पहनने या तरीके का व्यवहार करने को कहा जाए तो भावनाओं की कद्र नहीं। बचपन में महिम को माँ के कपङे पहनने का तरीका और पापा का कुर्ता कभी पसन्द नही था, पर दोस्तों के सामने कभी इसका ध्यान नहीं रखा गया। बचपन में महिम और उसके भाई-बहन सब काम करने के बाद स्कूल जाते, घर के काम में हाथ बँटाते, बाज़ार से सामान लाने में मदद करते। एक बार जब आर्थिक मदद के लिए भैंस लाई गई तो, उसका भी सब काम बच्चों ने खुशी-2 बाँट लिया। अपना स्कूल का काम करके, खेलने के समय में कटौती कर के भी सब काम निपटाया जाता था। आज अगर माँ पिता काम में हाथ बँटाये तो, या तो बहू बेकार है या फिर देखो उम्र का भी लिहाज़ नहीं।    
बच्चों को अपनी हैसियत, आर्थिक व्यवस्था व पसंद के हिसाब से विष्यों का चुनाव करवाया जाता और उसी हिसाब नौकरियाँ दिलवाई गई। आज अगर पिताजी को कोई अपनी पसंद के काम में मदद के लिए कहा जाए या आर्थिक मदद कोई मांगी जाए तो ग़लत।    
महिम और उसके सब भाई-बहन या फिर कोई भी, बच्चों को माँ-बाप अपनें हिसाब से पालते हैं। गलत कामों (जिन्हे हम ठीक समझते हैं) के लिए पिटाई का प्रावधान रहता है । पैसों के नाजायज़ खर्चों की पाबन्दी रहती है । हर काम पर एक चैक होता है। और फिर इन सब पर नैतिक जिम्मेदारी के बावज़ूद एक अहसान रहता है हमें पाल-पोस कर बङा कर देने का।         
लेकिन बुज़ुर्गों को पालने के जोखिम देखिये। इन्हे इनके हिसाब से पालना होता है। ग़लत काम (जिन्हे ये ठीक समझते हैं) के लिए टोकने पर घर में लङाई का प्रावधान। अपने ही पैसों की, जायज़ या नाजायज़, दोनों ही खर्चों पर सख्त नज़र और इन्ही की पाबन्दी वरना लगातार बुरे भविष्य की चेतावनी।       
इनके अलावा हिन्दू बुज़ुर्गों की तो एक और खासियत है कि लगातार बच्चों को अपनी मौत का एहसास करवाते रहना और अधिक क्रोध आने पर उन्हें अपने अन्तिम कर्तव्य से विमुक्त कर देने की धमकी देना।    
कहते हैं कि बुज़ुर्ग और बच्चे एक जैसे होते हैं। क्यूँ नहीं हमारे बुज़ुर्ग कोशिश कर के देखते कि जिस प्रकार उन्होनें बच्चों को पाला था, वैसे ही बच्चे बन जाना, ताकि आज की पीढ़ी को उन्हे पालना एक तनाव न लग कर एक प्यार, एक मदद, एक सहारा लगे।    
छोटे-बङे कामों में हाथ बँटाना, नाती पोतो को अपने अच्छे संस्कार देना। बच्चों को उनके स्थायित्व के लिए आर्थिक मदद करना, उन्हें उनकी दुनियाँ, उनके परिवेश, उनके तनावों में एक प्यार भरा स्पर्श देना।    
क्यूँ नहीं वे समझने की कोशिश करते कि माँ-बाप हमेशा अज़ीज़ होते हैं। सारी समस्याओं, सारे तनावों के बावजू़द, क्यूँ ना एक सेतू ऐसा बनाया जाए, जिससे सब मिल कर रह पाये।  
वो अपना अनुभव बाँटे, हम अपनें सपनें,
आखिर हैं तो वो हमारे अपने !

‘‘सपना मेरा’’

बहुत दिनों से मेरी आखों ने कोई सपना नया नहीं बुना !
कुछ देर को बन्द हैं ये, जैसे कि लेती हैं सांस,
फिर देखेगीं नया सपना, बांधेगी नयी आस !
बनेगा या बिखरेगा वो सपना मेरा !
बस इसमें इक ही चीज जरुरी है साथ तेरा,
टूटॅगा तो दूंगी हथेली पर तेरी आंसु कुछ,
संवरेगा तो होऊगी तेरे होठों पे मै भी खुश !
रोंऊगी तो लग जाऊंगी गले से तेरे !
खुश होऊंगी तो लग जाऊंगी गले से तेरे !
गोया कि मेरा हर जश्न हैं बाजुऍ तेरी,
गोया कि मेरा हर अश्क हैं बाजुऍ तेरी !
मैनें तो देख अपने दिल का पूरा हाल लिखा,
अब तु इतना तो कर, इक सपना तो दिखा…… !