“और मैं कविता तलाशती ही रह गई”

मेरे शहर में नंवम्बर का मौसम ;
मद्धम चलती हवा और गुनगुनी धूप का होता है ,
और मेरे घर में हर मौसम खुशगवार ।
आज फिर अपना टोस्ट और कॉफी मग ले कर ;
ऊपर छत पर आ गई ;
इक नई कविता की तलाश में ,
आसमान को ताका बस चुप-2 सा था ,
पेङों को, पत्तों को देखा, थोङे सुस्त से थे ,
नीचे सङक की तरफ झांका ,
सूनी, उदास, खाली, अकेले चले जा रही थी ,
सच, कहीं किसी चीज मे आज कविता नहीं मिल पा रही थी।
सामने वाले घर की रेंलिग पर एक कौवा बैठा हैं ,
जाने हल्की हवा का असर है कि मीठी धूप का ;
अपने पंजो को छिपाये और पखों को फुलाये बस बैठा है ;
ना उसे मेरी बात समझ में आती है ;
ना मुझें उसका मौन ,
फिर भी मैने उससे पूछ ही लिया ;
कैसे हो महाशय…….?
उसने दो बार इधर उधर देखा,
और चोंच से पंख सवांरने लगा ;
जैसे कह रहा हो ;
बिल्कूल ठीक हूँ , मजे ले रहा हूँ ;
जैसे तुम मेरे ले रही हो, मैं तुम्हारे ले रहा हूँ ,
अच्छा……, मैं हँस पडी ;
मुझे तो कुछ फिक्रमंद नजर आते हो, मेरा अगला सवाल था ;
वो उचक कर छत पर लगी डिश की तरफ देखने लगा ,
क्या .. आजकल के समाचारो से परेशान हो ;
पर क्या तुम्हें भी फर्क पडता हैं ,
सेनसेक्स का ग्राफ गिरता है ;
तो क्या तुम्हारा भी दिल उछलता है ,
उसने गरदन हिलाई ….
ना…।
तुमने वो प्यासे कौवे वाली कहानी नहीं सुनी ,
अपना तो ये उसुल है ,
इंतजार करते है, संयम ऱखते है ,
देखते रहते है, कंकङ दर कंकङ ;
चोंच से पानी कितनी दूर है ,
ज्यों ही जग में पानी ऊपर आया ;
पैसा बनाया, माने पानी पिया ;
और उङ गया ,
अच्छा… तो फिर क्या जमीन के बढते भावों की चिंता में हो ,
मैनें संवाद को आगे बढाने के लिए नया सवाल उछाला ,
उसनें एक लम्बी सांस ली ,
और जैसे अपनी तेज नजर से ;
दूर तक की सारी धरती नाप ली ,
इस बारे में ना पूछो ,
जानती तो हो ;
आजकल अपना खुद का पेङ ढूढना कितना मुश्किल हो गया है ,
एक जीवन लग जाता है ;
बढिया सोसाइटी में एक हरा भरा पेङ पाने में ,
कितना कुछ देना पङता है डीलरों को ;
एक कोयल का घौंसला रेन्ट पर हथियाने में ,
वो कुछ उदास सा हो चला था ।
सो मूड बदलने की गरज से ;
मैनें हल्का फुल्का सवाल किया ,
और आजकल खाने-वाने का क्या चल रहा है ;
तभी अचानक नीचे मोबाइल की घंटी बजी ;
कौवा बोला नीचे जाओ तुम्हारा फोन बज रहा है ,
मैं थोङी देर में जब फोन देख कर ऊपर आई ;
देखा कौवा मेरा टोस्ट मजे़ से खा रहा था ,
और साथ ही पंजे में पैन पकङ, कागज पर चला रहा था ,
मैंनें देखा कागज पर उसने लिखा था ;
खाने पीने को मिल ही जाता है ;
आप जैसों की दूआ है ,
माफ करना तुम्हारे टोस्ट पर मेरा नाम लिखा है ,
कैसे छोङुँ, इतना बढिया ब्रेकफास्ट है ,
अच्छा परसों फिर छत पर आना, यहीं मिलूँगा ;
कल मंगलवार है मेरा तो फास्ट है ,
और उङते-2 कौवा बोला ;
क्यों क्या कोई मिस्ड कॉल आई थी ;
एक दोस्त को कह कर मैंनें ही करवाई थी !
यूँ टोस्ट कौवा ले उङा, कॉफी ठंडी हो गई ;
और मैं कविता तलाशती ही रह गई ।