‘‘आखिर हैं तो वो हमारे अपने’’

हम बच्चे थे। दो, चार, पाँच या फिर दस, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जन्म देने की और पालने की जिमेदारी हमारे जन्मदाताओं पर थी, और उन्होनें अपनी इस जिम्मेदारी को तमाम मुश्किलों को झेलते हुआ निभाया। और अब हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए उनकी पालना करें। और अपने फ़र्ज़ का निर्वहन करें अन्यथा समाज कहेगा कि देखो माँ-बाप ने किन मुश्किल परिस्थियों मे भी इतने बच्चो को पाला और बच्चे हैं कि दो माँ-बाप को नहीं पाल सकते।
आज सुबह महिम का फ़ोन आया तो वो कुछ परेशान सा लगा। उसने मुझे शाम चार बजे कैफ़े में मिलने की बात कही और फ़ोन रख दिया। महिम, मानवी, तान्या और मैं बचपन के साथी हैं। तीन लङकियों में एक लड़का नाक कटाने आया। पर फिर उसी कटी नाक के साथ वो हमारा दोस्त बना और आज तक है। तान्या और मानवी यूरोप जा चुकी हैं। सो अब सिर्फ मैं और महिम बचे जो अपने सुख दुःख साझा करते हैं और बचपन की यादें भी। महिम की आदत है की कॉफ़ी पीने तक कुछ नहीं बोलता, बस उसके चेहरे पर आते भावों से ही अन्दाज़ा लगाना पड़ता है कि क्या हुआ होगा। आज कुछ ज़यादा ही तनावग्रस्त लग रहा है। शायद कॉफ़ी की आखिरी घूँट के बाद ही फूटेगा। 
"मैं बहुत परेशान हूँ..., आज फिर पापा से झगडा हुआ..., कोई नई बात नही..., बस उन्हें मेरी आदते पसंद नही है, लकिन मैं उन्हें बदल नही सकता। उन्हें अपनी ही पसंद से लाई हुई बहू के सलीके पसंद नही..., मैं उन्हें बदल नही सकता। उन्हें आज कल के बच्चों के चाल-चलन पसंद नही..., मैं उन्हें बदल नही सकता। और मैं पापा भी बदल नही सकता । तुम जानती हो की मैं अपने पापा से कितना प्यार करता हूँ, चाहता हूँ की वे सदा मेरे साथ रहे ..., उनका अनुभव मेरे बिजनेस में मेरी मदद करे..., उनकी उम्रदराजी से घर में एक अनुशासित माहोल रहे..., उनकी बुज़ुर्गियत से मेरे बच्चों को संस्कार मिले...।  
पर मुझे समझ नहीं आता कि भूल कहाँ हो रही है । वो मेरे साथ रहना नहीं चाहते और इस रोज़-2 की चिक-2 की वजह से में भी चाहता हूँ, घर में शान्ति रहे, वो फिर उनके साथ रहने से हो या ना रहने से।
लेकिन मुझ पर चाचा, ताऊओं और समाज के दबाव इस कदर हैं कि – तुम इस उम्र में अपने माता-पिता को अपने साथ नहीं रख सकते। मैं अपनी नौकरी, परिवार, बच्चों और माँ-पिता के बीच घुन की तरह पिस रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि कोई हल नहीं निकलने वाला..., पर फिर भी तुम से बात करके अपना तनाव धोना चाहता हूँ।"
पता है महिम,‘‘बागबाँ फिल्म को एक कमरे में एक ही टीवी पर बैठ कर, सब अपनी-2 नज़र से देखते हैं, और अपनी-2 आखों में, अपनी-2 भावनाओं के हिसाब से रोते हैं।’’ मैं और महिम जब भी किसी समस्या का समाधान करने बैठते हैं तो कॉफ़ी के तीसरे कप के बाद समस्या का पहला सिरा पकङते हैं, उसे किसी सिचुयेशन से जोङते हैं।
मैं और महिम पङोसी हैं और बचपन से जानती हूँ। शायद उससे बङी हूँ इसलिए बातों को उससे ज़्यादा समझने का दावा करती हूँ। महिम के पापा से बात करूँगी तो वो इसे ज़बान लङाना कहेगें। एक चिट्ठी लिख रही हूँ उनके नाम और उन तमाम अभिभावको के नाम, जो समझते हैं कि आज की जनरेशन को अपनें अभिभावकों की भावनाओं की कद्र नहीं है।    
जब महिम छोटा था, वो चार बहन भाई थे। महिम के पापा की छोटी सी नौकरी थी। पर वो इसी से छः सदस्यी परिवार का पेट पालते थे। बिल्कूल सही। आज महिम की नौकरी कुछ बडी है। उसे दो बच्चों, पत्नी और माँ-बाप सहित छः सदस्यी परिवार को पालना है। और कुछ यही हाल और भाई-बहनों का भी है।    
माँ-पापा खुद किसी बच्चे के साथ रहना चाहें तो सही। लेकिन बच्चे अपनी सुविधा से उन्हे एक दूसरे के पास भेज दें तो ग़लत। जबकि बचपन में खर्चे की वजह से महिम की छोटी बहन को बुआ के पास पढने भेजा गया। सब बच्चे उसके जाने से बहुत रोए थे और वो खुद बुआ के पास बडी मुश्किल से एडजस्ट कर पाई और जब नहीं कर पाई और बिमार हो गई तो वापिस बुलाना पडा। लेकिन बच्चो ने कोई विरोध नहीं किया या नहीं कर पाये या किया तो किसी ने सुना नहीं। लेकिन माँ बाप को एक दूसरे (अपने ही बच्चों) के पास भेजना..., माने भावनाओं की कद्र नहीं।               
बचपन में कभी जब महिम के पापा के बॉस को या किसी दोस्त को घर आना होता तो बच्चों को साफ-सुथरा कर, अपनी सुविधानुसार कपङे पहना घर बैठाया जाता, फिर उनके सामने उनकी पढ़ाई का जिक्र, तारीफ, रिवीश़न और प्रदर्शन अपनी बङाई के लिए किया जाता, सही। लेकिन यदि महिम के दोस्तों या पत्नि की सहेलियों के सामने ठीक तरह के कपङे पहनने या तरीके का व्यवहार करने को कहा जाए तो भावनाओं की कद्र नहीं। बचपन में महिम को माँ के कपङे पहनने का तरीका और पापा का कुर्ता कभी पसन्द नही था, पर दोस्तों के सामने कभी इसका ध्यान नहीं रखा गया। बचपन में महिम और उसके भाई-बहन सब काम करने के बाद स्कूल जाते, घर के काम में हाथ बँटाते, बाज़ार से सामान लाने में मदद करते। एक बार जब आर्थिक मदद के लिए भैंस लाई गई तो, उसका भी सब काम बच्चों ने खुशी-2 बाँट लिया। अपना स्कूल का काम करके, खेलने के समय में कटौती कर के भी सब काम निपटाया जाता था। आज अगर माँ पिता काम में हाथ बँटाये तो, या तो बहू बेकार है या फिर देखो उम्र का भी लिहाज़ नहीं।    
बच्चों को अपनी हैसियत, आर्थिक व्यवस्था व पसंद के हिसाब से विष्यों का चुनाव करवाया जाता और उसी हिसाब नौकरियाँ दिलवाई गई। आज अगर पिताजी को कोई अपनी पसंद के काम में मदद के लिए कहा जाए या आर्थिक मदद कोई मांगी जाए तो ग़लत।    
महिम और उसके सब भाई-बहन या फिर कोई भी, बच्चों को माँ-बाप अपनें हिसाब से पालते हैं। गलत कामों (जिन्हे हम ठीक समझते हैं) के लिए पिटाई का प्रावधान रहता है । पैसों के नाजायज़ खर्चों की पाबन्दी रहती है । हर काम पर एक चैक होता है। और फिर इन सब पर नैतिक जिम्मेदारी के बावज़ूद एक अहसान रहता है हमें पाल-पोस कर बङा कर देने का।         
लेकिन बुज़ुर्गों को पालने के जोखिम देखिये। इन्हे इनके हिसाब से पालना होता है। ग़लत काम (जिन्हे ये ठीक समझते हैं) के लिए टोकने पर घर में लङाई का प्रावधान। अपने ही पैसों की, जायज़ या नाजायज़, दोनों ही खर्चों पर सख्त नज़र और इन्ही की पाबन्दी वरना लगातार बुरे भविष्य की चेतावनी।       
इनके अलावा हिन्दू बुज़ुर्गों की तो एक और खासियत है कि लगातार बच्चों को अपनी मौत का एहसास करवाते रहना और अधिक क्रोध आने पर उन्हें अपने अन्तिम कर्तव्य से विमुक्त कर देने की धमकी देना।    
कहते हैं कि बुज़ुर्ग और बच्चे एक जैसे होते हैं। क्यूँ नहीं हमारे बुज़ुर्ग कोशिश कर के देखते कि जिस प्रकार उन्होनें बच्चों को पाला था, वैसे ही बच्चे बन जाना, ताकि आज की पीढ़ी को उन्हे पालना एक तनाव न लग कर एक प्यार, एक मदद, एक सहारा लगे।    
छोटे-बङे कामों में हाथ बँटाना, नाती पोतो को अपने अच्छे संस्कार देना। बच्चों को उनके स्थायित्व के लिए आर्थिक मदद करना, उन्हें उनकी दुनियाँ, उनके परिवेश, उनके तनावों में एक प्यार भरा स्पर्श देना।    
क्यूँ नहीं वे समझने की कोशिश करते कि माँ-बाप हमेशा अज़ीज़ होते हैं। सारी समस्याओं, सारे तनावों के बावजू़द, क्यूँ ना एक सेतू ऐसा बनाया जाए, जिससे सब मिल कर रह पाये।  
वो अपना अनुभव बाँटे, हम अपनें सपनें,
आखिर हैं तो वो हमारे अपने !