प्यारा इक बंगला हो...

शुरू तो दरअसल यहीं से होता है ये गाना, पर इसकी हकीकत में जाने लगेंगे तो, बंगले से, पहले तो, एक प्रोपर्टी डीलर हो, जो इस प्यारे बंगले का मोल भाव करा सके। ये बड़ा पुराना हसीन ख्वाब है, सब देखते हैं आपकी हैसियत के हिसाब से। पर भगवान पूरा करते हैं अपने हिसाब से। और अक्सर दोनों के हिसाब-किताब में काफी फर्क आ जाता है, क्योंकि प्रोपर्टी डीलर जो बीच में होते है। बहुत दिनों से एक कहानी लिखना याद रही थी ‘अपना घर’ बनाने पर। जिसमें मिसेज गुप्ता की पुरानी चाह है कि किसी तरह वो अपने पांच सौ गज वाले प्लॉट में बढिय़ा कोठी बना सकें। वहीं बिहार से आई सुगवा अपने मजदूर पति के साथ छत की तलाश में है। जिस दिन मिसेज गुप्ता के मकान की नींव पड़ी, सुगवा और उसके पति को मजदूरी मिल गई।
फिर सबसे पहले एक कच्चा ईंटों का कमरा बना, वो सुगवा और मुरली को दे दिया गया, ताकि सामान की रखवाली भी हो सके और साथ ही मजूदरी भी सुनिश्चित रहे और यूं सुगवा की तो भगवान ने सुन ली, उसे छत मिल गई। धीरे-धीरे नींव भरी, ईंटों का ढांचा उठना शुरू हुआ, मिसेज गुप्ता दिन-दिन भर खड़ी रह कर मकान का काम देखतीं। चौखाटे लग चुकी थी, फिर लेंटर पड़ा, लडडू बंटे, इधर सुगवा की भी गोद हरी होने की खुशी मिली। मिसेज गुप्ता देख-देख कर खुश होती कि मकान रूप लेने लगा है। एक ही बेटा था मिसेज गुप्ता का, दिल्ली में इंजीनियरिंग कर रहा था।
फाइनल ईयर था और प्लेसमेंट हो चुकी थी। गुप्ता जी चाहते थे कि डिग्री करके उनके कारोबार में हाथ बंटाये। मकान का नीचे का ढांचा तो तैयार था, पर मिसेज गुप्ता ने जिद की दो मंजि़ला बनाने की। एक साल के लगभग हो गया मकान बनते। बेटे ने नौकरी ज्वाइन कर ली थी बेंगलुरु में। बिजली, पानी की फिटिंग हो चुकी थी, पर लकड़ी और फर्श वालों ने जैसे घर से ना निकलने की कसम खा ली थी। दस महीने से टाइलों, ग्लास वर्क का काम चल रहा है।
अचानक बेटे ने सूचना दी की उसने साथ काम करने वाली लड़की पंसद कर ली है, शादी करना चाहता है तुरंत। तब तक सुगवा मकान में बने सर्वेंट रूम में शिफ्ट हो चुकी है। उसने इसे अपनी इच्छा से संवार लिया है, गणेश लक्ष्मी के बड़े पोस्टरों के साथ ही ऐश्वर्य और सलमान का फोटो भी चिपका दिया है, वो अभिषेक के बारे में जानती ही नहीं। मकान का काम बीच में रोककर शादी की रस्में शुरू हो गईं। महीने भर में बेटा बहु वापिस चले गये, मकान फिर शुरू हो गया। शुरू में खुला खर्च हो गया, अब पेंट के टाइम हाथ थोड़ा टाइट हो रहा है।
सुगवा को जुड़वां बच्चे हुए हैं। उसने दो पालने रख लिए है, अपने कमरे में वो खुश है। बच्चों को नहला-धुला खुले संगमरमर के आंगन मे सुला देती है। घर लगभग पूरा हो चुका है, मिसेज गुप्ता का सपना भी। उन्होंने सजाने के चीजों की खरीदारी शुरू कर दी है। पर बेटे ने संदेश भिजवा दिया कि पत्नी बीमार है और पास आ जाओ। एक महीना बेंगलुरु रह कर आई है, मकान पूरी तरह तैयार है। सुगवा को उसने नौकरानी रख लिया है। बहु फिर बीमार है फिर जाना होगा।
यूं बार-बार जाने से चार महीने निकल गए। गुप्ता जी पीछे परेशान होते हैं। निर्णय हुआ कि वहीं बेंगलुरु जाकर ही रहेंगे। दोनों बच्चों के पास। मकान को किराये पर दे दिया, डॉक्टर नयना ऐसा ही घर चाहती थीं रहने के लिए। मिसेज गुप्ता बेंगलुरु में है। डॉक्टर नयना, सुगवा मकान में सुखी से रह रही हैं। सुगवा कहती है मिसेज गुप्ता बड़ी अच्छी हैं। मिसेज गुप्ता को अब भी सपना आता है अपने घर में रहने का। मेरा ये स्टोरी लिखने का साइनोपसीस पूरा हुआ।
-डॉ. पूनम परिणिता

स्त्री पत्र

सीमा बिस्वास द्वारा अभिनीत, एक उम्दा प्रस्तुति रही, स्त्री पत्र। टैगोर द्वारा लिखित यह नाटक स्त्री के अस्तित्व और उसकी भूमिका पर कई प्रश्न चिन्ह लगाता है। यूं प्रश्न चिन्ह तो लगे हैं, पर स्त्री की भूमिका तय कौन कर रहा है? मर्द या खुद स्त्री। फिर अगर स्त्री खुद ही तय कर रही है, तो शिकायत क्यूं? शायद कभी, जब आदिम काल में, यूं घूमते-घूमते थक गए होंगे आदम और हव्वा, तो कहीं बसेरा करने की सोची होगी। पुरुष ने इकट्ठा किए होंगे घास-फूस, लकड़ी और एक छोटी पर्णकुटी बनाई होगी। तब स्त्री ने खुद ही खुशी-खुशी कहा-मैं कुछ बनाती हूं तुम्हारे लिए, थक गए होंगे ना तुम। फिर अपने हाथ से बनाया, प्यार से परोसा और मिल कर खाया। अंग्रेज़ी की एक कहावत है, मैन आर फोर हंट, वुमन आर फॉर हर्थ। यानि आदमी शिकार करेगा और स्त्री रसोई संभालेगी। पर आज भूमिका बदल रही है।
पहला सवाल तो मकसद का है कि जरूरत क्यूं पड़ी। आदमी जब घर से बाहर निकला, आमदनी के लिए, तब बच्चों को पत्नी के सुपुर्द कर के गया था, लेकिन अब जब नारी भी पुरुष के साथ बाहर निकलती है, तो बच्चों को किस के सहारे छोड़ कर गई। और अब ये जिम्मा आया, नौकर-चाकरों को दे दिया है तो संस्कारों की, मर्यादाओं की उम्मीद बच्चों से कैसे कर रही हैं। आरूषि अगर हेमचंद के हाथों पली-बढ़ी, तो ऐसे किस्से होने लाजमी हैं। जिस भूमिका का जन्म लालच से हो रहा है, थोड़े ज्यादा पैसे, थोड़ा ज्यादा ऐशो-आराम, थोड़ी ज्यादा आजादी, उसके बाद में विवाद ही जन्मेगा, सौहार्द की उम्मीद कम ही है। फिर हर बात को लेकर पुरुषों को निशाना बनाना तो बिल्कुल अजीब है। कहीं जरूरत तो खुद में झांकने की भी है।
ये महत्वाकांक्षाओं के भंवर में डूबी भंवरी, ये उडऩे को बेकरार फ़िजा, ये आसमां में उड़ती गीत गाती गीतिका। ये जब, खुद को, जिस्म को, स्त्री को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ती हैं, जब खुद को वस्तु बना देती हैं, तब क्यूं तनिक नहीं सोचती कि हर वस्तु की एक एक्सपायरी डेट भी होती है। स्त्रियों में एक इन्सटिंक्ट जन्म से होती है, खतरे को भांपने की, अपने शरीर पर हुई हर छुअन के पीछे का भाव समझने की। उसे भाव को अनदेखा करना या फिर उसका इस्तेमाल करना, उसकी पहली और आखिरी गलती होती है। उसके बाद सब नरक है, भले ही वो एकबारगी स्वर्ग जैसा दिखता हो। मेरा मकसद इन कांडों से पुरुषों को पाक साफ निकालना कतई नहीं है, पर थोड़ा ध्यान तो हमें अपनी बच्चियों पर देना ही होगा। बेटियां आजकल आधुनिक कपड़े पहन रही हैं। जींस पहन रही हैं, अच्छी लग रही हैं।
अच्छा है, पर एक बार जब वो बाहर जा रही है,किसी के पीछे स्कूटर पर बैठ रही है,तो मां होने के नाते पीछे से देखे जरूर कि छोटे टॉप और लो वेस्ट जींस के बीच की जगह,यूं सबके देखने के लिए चीज नहीं है। उसे प्यार से समझाएं जरूर कि बेटी, हर एक फ्रेंड जरूरी नहीं होता। मां-बाबा से आजादी के नाम पर लिए स्कूटर, मोबाइल और पैसों का उपयोग कम से कम उन्हीं को धोखे में रखने के लिए ना करें। बिल्कुल ये ही सब बातें बेटों पर भी उतनी ही शिद्दत से लागू हैं। पर शालीनता की अपेक्षा बेटियों से ज्यादा है। बेशक सदन में बैठकर फिल्म देखने वाले मंत्री बड़े गुनाहगार हैं, पर इससे यूं फिल्म बनकर उपलब्ध उस स्त्री का अपराध क्या कम हो सकता है। अपने चरित्र की रक्षा की पहली जिम्मेदारी तो हमारी खुद की है।
ये मेरी सोच है कि आजकल यूं नौकरी के पीछे भागती इस फेयर जेंडर में वो बेहतर है जो नौकरी के काबिल तो है, पर अपने बच्चों को संस्कार,प्यार और घर को एक प्यारे से घर जैसा माहौल देने के लिए घर पर ही है। वो जो ये जानती है कि थोड़े से ज्यादा पैसों से वो ये सब चीजें कभी नहीं खरीद पाएगी। ये भी कुछ-कुछ स्त्री पत्र ही हो गया। चलिए पुरुषों की बात फिर कभी करेंगे। जरूरत तो उन्हें भी रहती है कि कोई पुरुष पत्र भी लिखे।
-डॉ.पूनम परिणिता

तुझसे नाराज नहीं ज़िंदगी...

अच्छा गाना है, पर मायनों में जाते हैं तो जरूर उलझ जाते हैं। तुझ से नाराज नहीं ज़िंदगी हैरान हूं मैं। गोया कि गीतकार बी पॉजीटिव भले ही ना हो पाया,पर न्यूट्रल जरूर हो गया। बस इतना ही भला, ज़िंदगी से नाराज होने की बजाय हैरान हो जाइए। यूं बाकी घर दफ्तर, बाजार, सब कुछ है आपको हैरान-परेशान करने को। पर सबसे ज्यादा हैरान आप रिश्तों को लेकर हो सकते हैं।
कल एक पुरानी दोस्त का फोन आया था। तमाम सफरों से होते हुए बातें रिश्तों पर टिकी और फिर बातें रिश्तों से आंसुओं पर। कॉलेज टाइम में वह मेरी ऐसी देर रात डिस्कशन वाली सहेली नहीं थी पर जाने कौन-सी दुखती रग कब टच हो गई कि उसका सैलाब बह गया। मुझे रोते हुओं को चुप कराना नहीं आता। किसी के आंसुओं और दुख से मैं बस असहज हो जाती हूं। ये कह कर रिश्तों से नहीं छूटा जा सकता कि अब इनमें वह बात नहीं रही।
तमाम अनुभव, सारी खटास मिठास अपने स्वादानुसार पहले भी बकायदगी से मौजूद रही है, वह जब घर का कोई बड़ा भाई नौकरी करने शहर जाता है, फिर बाकी भाइयों को पढ़ाने की जिम्मेदारी उठाता, दो-तीन बहनों की शादी करता, भाइयों की नौकरी लगवाता, तब कहीं जाकर अपने बच्चे संभालने का वक्त आता और तभी कहीं वही भाई-बहन कहीं जाने-अनजाने उसे उसकी हैसियत बता देते।
बड़ा मुश्किल होता है तब खुद को संभालना, एकदम तो विश्वास ही नहीं होता कि छोटा ये कह सकता है कि मैं भी अफसर बन सकता था अगर टाइम पर मेरी सहायता कर दी होती कि छुटकी भी इतने सालों बाद ये उलाहना दे सकती है कि उसकी शादी में गहने कहां पर्याप्त थे। और वही वक्त होता जब पत्नी-बच्चे भी थोड़ी धीमी आवाज में कह देते कि पापा इन भाई-बहनों के चक्कर में आपने हम पर कभी पूरा ध्यान नहीं दिया।
तब उस जमाने में भी ढूंढ़ा जाता था रिश्तों की उलझन में से आखिरी सिरा। बात शायद आज भी वही है, वहीं है। बस थोड़ा दिखावा और बढ़ा है। आंसू तब भी या तो अकेले में, किसी के कंधे पर या फिर थोड़े दिखते, थोड़े छिपाते ही बहाये जाते थे। पता नहीं आंसुओं की फितरत ही ऐसी है, लाख छुपाए पर आखिरी आंसू तक उसकी बाट देखता है जिसके लिए बहाए जा रहे हैं या जिसकी वजह से बहाए गए।
यूं आजकल नए रिश्तों में खुलापन ज्यादा है, पर हम स्पेस की पूरी व्याख्या कहां कर पाते हैं? बस यही स्पेस कब दरार बन जाता है ये नहीं पता लगता। निबाहे जाना, एक और मजबूरी है, तिस पर मुस्कुराहट के साथ निबाहना, अंदर दर्द को इकट्ठा करता रहता है। वो फिर यूं ही किसी दिन किसी के सामने निकलता है।
बस रिश्तों को तो यूं ही देखते रहे ऊपर से, वैसे साफ सफेद कपड़े पर रेशमी धागों की कशीदाकारी, देखे और खुश रहें, कहीं पलट कर पीछे देख लिया तो उलझे मिलेंगे रेशमी धागे। कहीं-कहीं गांठ भी लाजमी है। दो बार, चार बार यूं ही उलट-पलट देखिए, कभी कशीदाकारी को, कभी उलझनों को और फिर लंबी सांस लीजिए। अब धीरे-धीरे गुनगुनाइए... हैरान हूं मैं, हो...हैरान हूं मैं।
-डॉ.पूनम परिणिता