तुझसे नाराज नहीं ज़िंदगी...

अच्छा गाना है, पर मायनों में जाते हैं तो जरूर उलझ जाते हैं। तुझ से नाराज नहीं ज़िंदगी हैरान हूं मैं। गोया कि गीतकार बी पॉजीटिव भले ही ना हो पाया,पर न्यूट्रल जरूर हो गया। बस इतना ही भला, ज़िंदगी से नाराज होने की बजाय हैरान हो जाइए। यूं बाकी घर दफ्तर, बाजार, सब कुछ है आपको हैरान-परेशान करने को। पर सबसे ज्यादा हैरान आप रिश्तों को लेकर हो सकते हैं।
कल एक पुरानी दोस्त का फोन आया था। तमाम सफरों से होते हुए बातें रिश्तों पर टिकी और फिर बातें रिश्तों से आंसुओं पर। कॉलेज टाइम में वह मेरी ऐसी देर रात डिस्कशन वाली सहेली नहीं थी पर जाने कौन-सी दुखती रग कब टच हो गई कि उसका सैलाब बह गया। मुझे रोते हुओं को चुप कराना नहीं आता। किसी के आंसुओं और दुख से मैं बस असहज हो जाती हूं। ये कह कर रिश्तों से नहीं छूटा जा सकता कि अब इनमें वह बात नहीं रही।
तमाम अनुभव, सारी खटास मिठास अपने स्वादानुसार पहले भी बकायदगी से मौजूद रही है, वह जब घर का कोई बड़ा भाई नौकरी करने शहर जाता है, फिर बाकी भाइयों को पढ़ाने की जिम्मेदारी उठाता, दो-तीन बहनों की शादी करता, भाइयों की नौकरी लगवाता, तब कहीं जाकर अपने बच्चे संभालने का वक्त आता और तभी कहीं वही भाई-बहन कहीं जाने-अनजाने उसे उसकी हैसियत बता देते।
बड़ा मुश्किल होता है तब खुद को संभालना, एकदम तो विश्वास ही नहीं होता कि छोटा ये कह सकता है कि मैं भी अफसर बन सकता था अगर टाइम पर मेरी सहायता कर दी होती कि छुटकी भी इतने सालों बाद ये उलाहना दे सकती है कि उसकी शादी में गहने कहां पर्याप्त थे। और वही वक्त होता जब पत्नी-बच्चे भी थोड़ी धीमी आवाज में कह देते कि पापा इन भाई-बहनों के चक्कर में आपने हम पर कभी पूरा ध्यान नहीं दिया।
तब उस जमाने में भी ढूंढ़ा जाता था रिश्तों की उलझन में से आखिरी सिरा। बात शायद आज भी वही है, वहीं है। बस थोड़ा दिखावा और बढ़ा है। आंसू तब भी या तो अकेले में, किसी के कंधे पर या फिर थोड़े दिखते, थोड़े छिपाते ही बहाये जाते थे। पता नहीं आंसुओं की फितरत ही ऐसी है, लाख छुपाए पर आखिरी आंसू तक उसकी बाट देखता है जिसके लिए बहाए जा रहे हैं या जिसकी वजह से बहाए गए।
यूं आजकल नए रिश्तों में खुलापन ज्यादा है, पर हम स्पेस की पूरी व्याख्या कहां कर पाते हैं? बस यही स्पेस कब दरार बन जाता है ये नहीं पता लगता। निबाहे जाना, एक और मजबूरी है, तिस पर मुस्कुराहट के साथ निबाहना, अंदर दर्द को इकट्ठा करता रहता है। वो फिर यूं ही किसी दिन किसी के सामने निकलता है।
बस रिश्तों को तो यूं ही देखते रहे ऊपर से, वैसे साफ सफेद कपड़े पर रेशमी धागों की कशीदाकारी, देखे और खुश रहें, कहीं पलट कर पीछे देख लिया तो उलझे मिलेंगे रेशमी धागे। कहीं-कहीं गांठ भी लाजमी है। दो बार, चार बार यूं ही उलट-पलट देखिए, कभी कशीदाकारी को, कभी उलझनों को और फिर लंबी सांस लीजिए। अब धीरे-धीरे गुनगुनाइए... हैरान हूं मैं, हो...हैरान हूं मैं।
-डॉ.पूनम परिणिता