तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे...

मेरे हिसार में भी, एक हिसार है
बस मुझे ही न पता था।
कल वो अचानक वहां नम्बूदार हुआ
कुछ लफ्ज़ थे, दो सितारे थे, आधा चांद था।
तब मुझे उस हिसार का दीदार हुआ।
ये महज कोई अफसाना नहीं है, बल्कि, मेरी ही नहीं ये सबकी हकीकत है। कल जिस हिसार से हम रूबरू हुए, वो उससे बिल्कुल जुदा था, जिसे हम रोज लोगों के समन्दर में सरसरी निगाह से देखते भर हैं। शायद ये उसी का असर है कि मैं भी थोड़ी सुफियाना हो चली हूं। बहरहाल ये जि़क्र 17 मार्च की उस मखमली शाम का है जो हमने पद्मश्री पूर्ण चंद और प्यारे लाल वडाली के सान्निध्य में गुजारी। बेहतरीन। ये वही अनुभव था, जब कभी यूं ही जीते-जीते, कोई पता लग जाता है, कि हां सचमुच जी रहे हैं।
हम आप हजारों बार गुजरे हैं उस राह से, बस, कोशिश ये होती है, कि इस भीड़-भाड़ को किसी तरह जल्दी पार कर लें। गुजरी महल की दीवार के साथ चलते-चलते, इस ऐतिहासिक धरोहर का हमारे पास कभी एहसास तक नहीं हुआ। पर कल शाम इस दुर्ग में बड़े-बड़े पत्थरों से होकर भीतर जाते, इसे निहारते एक गुमान सा हो आया अपने शहर पर। तो पहला सलाम तो उस सोच को जिन्होंने ऐसी कल्पना की और दूसरा उन तमाम शख्यितों को जिन्होंने इस सोच को अमलीजामा पहनाया। ये आर्टिकल उनके लिए तो है ही जिन्होंने ये शाम मेरे साथ होकर गुजारी, पर उनके लिए ज्यादा जो वहां हो न सके। तो आप भी चलें मेरे साथ इस बड़ी-बड़ी दीवारों की रहगुजर से। गेट से थोड़ा अन्दर जाते बाएं हाथ को कुछ सीढिय़ां नीचे की ओर जाती हैं, जहां लिखा है तहखाने। पढ़ते ही इसकी तहों में बेसाख्ता जाने को मन करेगा, पर अभी वक्त नहीं है, थोड़ा सीधा चलकर हल्का सा दाएं मुड़ फिर ऊपर की ओर जाना है। पत्थरों पर बिछे हरे कारपेट सुविधाजनक तरीके से ऊपर महल की छत तक ले गए। अब यहां उजली सी शाम और धुंधली सी रात दोनों बेताब, अगर मौका मिले तो दोनों हाथ खोलकर, आंखें मूंदर कर, एक लम्बी सांस लें, फिर उसे जिंदगी भर के लिए सहेज ले अपनी भीतर। थोड़ी देर में जब लोग इकट्ठा हो स्टेज की तरफ जाने लगे तो पता चला कि वडाली बंधु पहुंच गए हैं। और कुछ ही देर में उन्हें अपने सामने पाया। सुना है बड़े भाई पूर्णचंद पहले अखाड़े में कुश्ती लड़ा करते थे। शायद इसीलिए उनके व्यक्तित्व में कहीं खालिस मिट्टी का कोई कतरा है, बिल्कुल अनगढ़ सा कोरा। आजकल की सेलीब्रेटीज से इतर बिल्कुल शांत, सरल स्वभाव, दो अन्तर्मन सूफी कलाकार हमारे बीच थे। ‘एक पल में हजारों हज हो गए जब तेरी दीद हो गई। तुझे तकया तो लगा मुझे ऐसा कि जैसे मेरी ईद हो गई।’ और ये भी कि ‘रात उनको भी यूं महसूस हुआ जैसे ये रात फिर नहीं होगी।’ खुद प्यारे लाल वडाली ने शुरू में कहा कि उन्हें गाना नहीं आता, सीख रहे हैं, आप सबके आशीर्वाद से गुनगुना लेंगे। और ये भी कि हमारी हिन्दी में पंजाबी मिक्स है, शायद समझने में दिक्कत आए। पर बिल्कुल नहीं आई क्योंकि दरअसल लफ्जों का इस्तेमाल हुआ ही नहीं, उन्होंने जो रुह से गाया, हमारी रुह को साफ-साफ समझ आया, कहीं बीच में भाषा की दीवार न हुई। हम बस सुनते रहे शब्दों की दरकार न हुई। एक के बाद एक नायाब शेर, सीधे फलक को जाते अलाप और तान, हारमोनियम, तबले और ढोलक की सीधी सरल थाप, शागिर्दों की तालियां, सब कुछ हमेशा शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। जमीं से थोड़ा ऊपर, खुले आकाश तले, वो गा रहे थे और सब सुन रहे थे, कल ही लगा कि आरती, पूजा, नमाज से इतर कभी-कभी सज़दा यूं भी किया जा सकता है। मैंने महसूस किया, जब वो सुना रहे थे, तब आसमां में आधा चांद, वो उसके पास वाला सितारा, कुछ फरिश्ते और वो खुदा, बस आंखें मूंदे सुन रहे थे, बोल थे ‘खुसरो रैन सुहाग की जो जागी पी के संग, तन मोरा, मन मोरे प्रीतम का, दोनों एक ही रंग।’ मैंने महसूस किया जब वो गा रहे थे ऊंची डयोढ़ी मेरे ख्वाजा की, तब, निजामुद्दीन औलिया, गुरु फरीद, आमिर खुसरो, बुल्ले शाह और शाहबाज कलन्दर सब एक-दूसरे की बांह पकड़े, सहारा देते एक-दूसरे को सीढिय़ों से ऊपर छत पर ला रहे थे। मैंने महसूस किया जब दमादम मस्त कलन्दर पर धमक तेज होने लगी थी। नीचे महल में गुजरी और तमाम रक्कासाएं नाच रही थी, दरबारी मुग्ध हो रहे थे। और सुल्तान फिरोजशाह तुगलक खुश थे कि फलक पर खुदा, जमीं पर दरबारी और वहां महल की छत पर उनकी रियाया सब खुश हैं।
-पूनम परिणिता 9468322525