स्त्री पत्र

सीमा बिस्वास द्वारा अभिनीत, एक उम्दा प्रस्तुति रही, स्त्री पत्र। टैगोर द्वारा लिखित यह नाटक स्त्री के अस्तित्व और उसकी भूमिका पर कई प्रश्न चिन्ह लगाता है। यूं प्रश्न चिन्ह तो लगे हैं, पर स्त्री की भूमिका तय कौन कर रहा है? मर्द या खुद स्त्री। फिर अगर स्त्री खुद ही तय कर रही है, तो शिकायत क्यूं? शायद कभी, जब आदिम काल में, यूं घूमते-घूमते थक गए होंगे आदम और हव्वा, तो कहीं बसेरा करने की सोची होगी। पुरुष ने इकट्ठा किए होंगे घास-फूस, लकड़ी और एक छोटी पर्णकुटी बनाई होगी। तब स्त्री ने खुद ही खुशी-खुशी कहा-मैं कुछ बनाती हूं तुम्हारे लिए, थक गए होंगे ना तुम। फिर अपने हाथ से बनाया, प्यार से परोसा और मिल कर खाया। अंग्रेज़ी की एक कहावत है, मैन आर फोर हंट, वुमन आर फॉर हर्थ। यानि आदमी शिकार करेगा और स्त्री रसोई संभालेगी। पर आज भूमिका बदल रही है।
पहला सवाल तो मकसद का है कि जरूरत क्यूं पड़ी। आदमी जब घर से बाहर निकला, आमदनी के लिए, तब बच्चों को पत्नी के सुपुर्द कर के गया था, लेकिन अब जब नारी भी पुरुष के साथ बाहर निकलती है, तो बच्चों को किस के सहारे छोड़ कर गई। और अब ये जिम्मा आया, नौकर-चाकरों को दे दिया है तो संस्कारों की, मर्यादाओं की उम्मीद बच्चों से कैसे कर रही हैं। आरूषि अगर हेमचंद के हाथों पली-बढ़ी, तो ऐसे किस्से होने लाजमी हैं। जिस भूमिका का जन्म लालच से हो रहा है, थोड़े ज्यादा पैसे, थोड़ा ज्यादा ऐशो-आराम, थोड़ी ज्यादा आजादी, उसके बाद में विवाद ही जन्मेगा, सौहार्द की उम्मीद कम ही है। फिर हर बात को लेकर पुरुषों को निशाना बनाना तो बिल्कुल अजीब है। कहीं जरूरत तो खुद में झांकने की भी है।
ये महत्वाकांक्षाओं के भंवर में डूबी भंवरी, ये उडऩे को बेकरार फ़िजा, ये आसमां में उड़ती गीत गाती गीतिका। ये जब, खुद को, जिस्म को, स्त्री को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ती हैं, जब खुद को वस्तु बना देती हैं, तब क्यूं तनिक नहीं सोचती कि हर वस्तु की एक एक्सपायरी डेट भी होती है। स्त्रियों में एक इन्सटिंक्ट जन्म से होती है, खतरे को भांपने की, अपने शरीर पर हुई हर छुअन के पीछे का भाव समझने की। उसे भाव को अनदेखा करना या फिर उसका इस्तेमाल करना, उसकी पहली और आखिरी गलती होती है। उसके बाद सब नरक है, भले ही वो एकबारगी स्वर्ग जैसा दिखता हो। मेरा मकसद इन कांडों से पुरुषों को पाक साफ निकालना कतई नहीं है, पर थोड़ा ध्यान तो हमें अपनी बच्चियों पर देना ही होगा। बेटियां आजकल आधुनिक कपड़े पहन रही हैं। जींस पहन रही हैं, अच्छी लग रही हैं।
अच्छा है, पर एक बार जब वो बाहर जा रही है,किसी के पीछे स्कूटर पर बैठ रही है,तो मां होने के नाते पीछे से देखे जरूर कि छोटे टॉप और लो वेस्ट जींस के बीच की जगह,यूं सबके देखने के लिए चीज नहीं है। उसे प्यार से समझाएं जरूर कि बेटी, हर एक फ्रेंड जरूरी नहीं होता। मां-बाबा से आजादी के नाम पर लिए स्कूटर, मोबाइल और पैसों का उपयोग कम से कम उन्हीं को धोखे में रखने के लिए ना करें। बिल्कुल ये ही सब बातें बेटों पर भी उतनी ही शिद्दत से लागू हैं। पर शालीनता की अपेक्षा बेटियों से ज्यादा है। बेशक सदन में बैठकर फिल्म देखने वाले मंत्री बड़े गुनाहगार हैं, पर इससे यूं फिल्म बनकर उपलब्ध उस स्त्री का अपराध क्या कम हो सकता है। अपने चरित्र की रक्षा की पहली जिम्मेदारी तो हमारी खुद की है।
ये मेरी सोच है कि आजकल यूं नौकरी के पीछे भागती इस फेयर जेंडर में वो बेहतर है जो नौकरी के काबिल तो है, पर अपने बच्चों को संस्कार,प्यार और घर को एक प्यारे से घर जैसा माहौल देने के लिए घर पर ही है। वो जो ये जानती है कि थोड़े से ज्यादा पैसों से वो ये सब चीजें कभी नहीं खरीद पाएगी। ये भी कुछ-कुछ स्त्री पत्र ही हो गया। चलिए पुरुषों की बात फिर कभी करेंगे। जरूरत तो उन्हें भी रहती है कि कोई पुरुष पत्र भी लिखे।
-डॉ.पूनम परिणिता