दिल कहे रुक जा रे, रुक जा...

पिछले कुछ वक्त से मैं अपने एक खास एजेंडे पर काम कर रही हूं। सो पूरी दुनिया में से, अपने लिए चुनी हुई दुनिया को ज्यादा समय नहीं दे पा रही थी। अपनी सारी सामाजिक व्यस्तताओं को एक समय तक के लिए टाल रखा था। हर चीज़ को अपनी पहली फुर्सत के लिए स्थगित कर दिया था। पर मैंने पाया कि बीतता वक्त आपकी फुर्सत का इंतजार नहीं करता।
‘एक दिन, बस यूं ही
वक्त से कहा
रुक तो सही
बस यहीं कहीं
हां यहीं, बस, बस, यहीं
ना रुका, ना पलटा
बोला चलते-चलते यही
ना रुका हूं, ना रुकूंगा
और हां, सुनो, चलती रहो
मेरे संग-संग तुम भी
यूं ही, हां, बस यूं ही।’
वक्त पर न की गई चीज़ अपने होने की गरमाहट खो देती है। अब जिस फ्रेंड ने मुझे फोन कर कहा था कि मुझसे मिलना चाहती है, कुछ देर बैठकर बात करना चाहती है। उसे मैंने अपनी फुर्सत के लिए टाल दिया। और अब जब मैंने उससे कहा-हां, अब मैं अविलेबल हूं तो उसने फीकी सी हंसी के साथ कहा कि उस बात में अब वो बात नहीं रही।
इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि मेरी कविताओं का एक संग्रह लगभग छपने को है। मेरी फुर्सत के चलते ही देरी हो रही है। उसमें मेरी वो कविताएं हैं जो मैंने इंटरनेट पर अपने लिए लिखी थीं। उसके कवर पेज के लिए मुझे एक अच्छी सी पेंटिंग की दरकार है।
दरअसल, मेरी पर्सनालटी कविताओं, कहानियों और लेखन से एकदम अलायदा है। मैं खुद, जब अपनी ही इस एक अलग शख्सियत से रूबरू होती हूं, तब लगता है ‘रहता है कहीं, मुझमें ही, मुझसा कोई।’ कभी मुझे अपने इस तरह का होने पर हैरानी होती है तो कभी एक अलग, अजीब अनुभूति होती है।
पर एक दिन जब मुझसे किसी ने कहा कि आप ऐसा लिखती हैं, जैसा मैं हमेशा लिखना चाहती हूं। पर लिख नहीं पाती हूं, क्योंकि मैं, आप नहीं हूं। बस अलग तरह का कांपलीमेंट था यह, मुझे अच्छा लगा। आत्ममुग्ध तरीके की प्राणी हूं। औरों की खुशी से भी खुश रहती हूं। अपनी खुशी से औरों को भी खुश करती हूं। और जब खुश होती हूं तो वक्त से कहती हूं-
सुन तो सही
रुक जा ज़रा
बस यहीं कहीं
पर वो है कि बस भागता जाता है, अपनी पहली फुर्सत
के इंतज़ार में।
-डॉ. पूनम परिणिता