लिख लूँ, मन की...

स्टेशनरी की दुकान पर यूं ही मेरी और बेटे की नकार इक_े ही एक व्हाईट बोर्ड पर पड़ गई। हालांकि उसके लिए नहीं आए थे हम दुकान पर, लेकिन दोनों में एक इशारा हुआ, पति से कुछ मनुहार हुई, पूछा था उन्होंने, ‘करोगे क्या इसका’। कोई वाजिब जवाब नहीं था हमारे पास। बोल दिया बेटा कुछ भी लिख क रिवाइका कर लिया करेगा और वो बोर्ड आ गया घर पर।
दो हफ्ते पड़ा रहा एक कोने में क्योंकि उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था लगाने को। फिर घर की कॉमन जगह में लगाया। बेटे ने कुछ अक्षर कुछ चित्र बनाए उस पर। एक दिन पति ने फिर से क्लास ले ली। क्या यूका हो रहा है ये बोर्ड? सिर्फ फिजूलखर्ची से मतलब है आप दोनों को। ‘अरे ये बोर्ड, कुछ भी लिखते हैं, तो मिटा भी देते हैं। यूका हो रहा है’- मैंने बचाव के लिए कह दिया।
उस दिन शनिवार था। सुबह ही बोलकर गये थे कि 4:40 का शो है तैयार रहना और आये रात 8:30 बजे और फोन की लेट की किया था साढे छह बजे कि लेट हो जाउंगा। गुस्सा बहुत आ रहा था, पर उनके बाहर से आते ही सीधा लडऩे की आदत नहीं है मेरी, सफाई देने का पूरा मौका देती हूँ। पर ये क्या जवाब हुआ, कि बस दोस्त आ गये थे और बैठ गये। मूंह अपने आप फूल गया मेरा। दनदनाती रसोई में जा रही थी। रास्ते में बोर्ड दिख गया, पेन उठाया और लिख दिया। वादा निभाना नहीं आता तो करते क्यूं हैं लोग? और रसोई में चली गई। खाना लगाया और प्लेट लेकर वापिस उसी रास्ते आ रही थी। बोर्ड फिर दिख गया। मेरी वाली लाइन के नीचे कुछ लिखा था, जो अब कुछ यूं बन गया था:
वादा निभाना नहीं आता, तो करते क्यूं हैं लोग,
एक पिक्चर के लिए इतना मरते क्यूं हैं लोग,
9:20 का शो बाकी है, टिकट बैड पर रखी है। 10 मिनट में तैयार हो जाओ। मैं तब तक खाना खा लेता हूँ।
ये बात अगर आमने सामने हुई होती तो कायदे से मेरा और रूठ जाना और नाइट शो में जाने से मना करना बनता था। पर उस लिखी हुई बात में कुछ ऐसी बेतुकी रिदम थी कि मुझे हंसी आ गई और ठीक उसी वक्त उन्होंने मुझे हंसते हुए पकड़ लिया। सो आप समझ सकते हैं कि एक तुफान आने से पहले रुक गया, जिससे उस रात की पिक्चर, खाना और यहां तक की अगला रविवार भी तबाह हो सकता था। बस उसी दिन से बोर्ड हमारे घर का सदस्य बन गया, जो बिना बोले ही सब कुछ कहता, सबके दिल की कहता, सबसे ज्यादा कहता। हम ब्यां कर देते और लगे हाथ ही फीड बैक भी मिल जाता।
यूं ही बहुत कुछ अनकहा सा रहा है जिंदगी में। किस से कहें, कब कहें और कैसे कहें। चारो तरफ इतनी आपा-धापी मची है, वक्त किसके पास है सुनने का। फिर एक और दिक्कत है कहने में, कभी कहने से पहले आँखें बोल पड़ती है, कभी होंठ मुस्कुरा उठते हैं। सो बहुत बार मन की बात रह जाती है मन में हीं।
इस बार नयी शुरुआत करके देखिए। लिखें, वो हर बात जो बहुत दिनों से कई तहों में लपेट कर रखी हैं, दिल के सबसे अंदर वाले छोटे कमरे में। बस उतार दें कागका पर, वो खुद कविता बना जाएगी। यकीन मानिये बड़ी राहत मिलेगी।
-डा. पूनम परिणिता