‘श्री भोजनम् महात्मय’

शुभ नवरात्रे खत्म हुए और जिस दिन खत्म हुए, उस शाम राजगुरु मार्केट स्थित चाट भंडार पर जबरदस्त भीड़ थी। आठ दिन का सात्विक व्रत, फिर नौवें दिन हलवा, पूरी और चने का भोग। दिल अचानक कुछ चटपटा सा मांगने लगता है। कुछ खट्टा, गोल गप्पों के पानी जैसा। बस ऐसा ही है इंसान। कभी तो खुद को साधने में, योग को भी हठ की तरह करता है। फिर कभी इमली के खट्टे पानी को पी, एक आंख भींचकर, एक हाथ कान पर रखकर, जीभ से चटकारे की आवाज निकालता है, मानो देवताओं ने अमृत पाने को असुरों से व्यर्थ ही युद्ध किया, असली स्वाद तो यही है।
आजकल सब उत्सव है, भूखे रहना भी, व्रत भी और उधापन भी। व्रत रखने के मायने जहां इंद्रियों को वश में कर भूखा रहने के हैं, वहीं आजकल व्रत के भोज्य पदार्थों का एक अलग ही बाजार पनप रहा है। तरह-तरह के चिप्स, लड्डु, बर्फी और नवरात्रे स्पेशल थाली। इस बार मैंने नवरात्रे नहीं रखे, पर एक होटल में पास ही बैठे परिवार पर नज़र चली गई। बच्चे जहां पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन में से चयन नहीं कर पा रहे थे, वहीं महिला ने धीरे से कहा-मेरे लिए तो व्रत वाली थाली मंगा लो। और जब खाना आया तो देखा कि व्रत वाली थाली सब पर भारी पड़ रही थी। कुटु के आटे की चार पूरी, आलू की तरीदार और पेठे की सूखी सब्जी, सामक की खीर, रसगुल्ले की मिठाई। कोल्ड कॉफी का ऑर्डर अलग से दिया गया था। व्रत से बेबस उस महिला के शीघ्र ही खुद को तृप्त किया और बच्चों से कहा कि जल्दी करो, उसे मंदिर भी जाना है।
जानते हैं धर्म, नियम, संयम के कोई लिखित कायदे-कानून नहीं हैं। सब अपने हिसाब से, अपने दिल के हिसाब से तय किया जाता है। सब कुछ तय करो और ऊपर से टैग लगा दो कि हमारे में तो ऐसा करते हैं। जाने कब किसने तय किया होगा कि बजरंग बली को मंगलवार को बूंदी का प्रसाद चढ़ाना है या माता को छोले, पूरी, हलवा पसंद है। सालासर पर सवामणि, शुक्रवार को गुड़-चना, अमावस पर खीर। मुझे लगता है कि सबका काम आपसी भाईचारे और प्रीतिभोज से चलता होगा। बजरंग बली मंगलवार को प्रसाद सबके यहां भिजवा देते होंगे और खुद शुक्रवार को गुड़-चना शेयर करने माता के यहां पहुंच जाते होंगे। अमावस के दिन सभी देवता मिलकर ट्यूब लाइट की रोशनी में खाते होंगे। क्या चंद्र देवता इनवाइटिड नहीं होते होंगे। क्योंकि चांद आ गया तो अमावस के मायने बदल जाएंगे।
दरअसल सब रस पर, स्वाद पर टिका है। व्रत भी। व्रत खुलने की आस के साथ ही किया जा सकता है। जब दो दिन बाद भी कुछ खाने को मिलने की आस नहीं होती, उसे भूखे मरना कहते हैं और देश में लाखों ऐसे बिना नवरात्रों के बरती हैं। जब मैं बहुत छोटी थी, करीब पांच या छह बरस की तो एक बार किसी बात पर जोर-जोर से रो रही थी कि खाना लग गया। मम्मी ने जैसे ही चावल के डोंगे से प्लेट हटाई, मैं ताली बजाकर जोर से खुशी से चिल्लाई-आ हा चावल। मुझे चावल आज भी उतने ही पसंद हैं। कढ़ी चावल, राजमा चावल, छोले चावल। आज ताली बजाकर जोर से चिल्लाती नहीं हूं, पर मेरे दिल से आवाज आती है-आ हा चावल। अथ श्री भोजनम् महात्मय।
-डॉ. पूनम परिणिता