बचपन में एक गाना सुनते थे, चूं-चूं करती आई चिडिय़ा, दाल का दाना लाई चिडिय़ा, कौवा भी आया, मोर भी आया, बंदर भी आया, खौं-खौं। और फिर से, फिर चूं-चूं करती आई चिडिय़ा। अब इस गाने में लॉजिकल कुछ भी नहीं है। चिडिय़ा है, दाल का दाना लाई है, अपना काम कर रही है। अब बाकी जानवर क्यूं बिना काम इकट्ठा हो रहे हैं। और इससे बढ़कर हम जाने क्यूं इस कहानी में दाल का दाना, की बात सुनते ही खिचड़ी पकने की उम्मीद लगा लेते हैं। इतना ही नहीं, खिचड़ी के ख्याली पुलाव भी बना लेते हैं कि गर्म-गर्म भाप और स्वाद की लपटें उठ रही हैं, बस अभी इसे थोड़ा सा फैलाकर, किनारे की ठंडी होती खिचड़ी को, झट से गोल बनाकर मुंह में डाल लेंगे।
बस ऐसा ही एक गीत बचपन से आज तक सुनते आ रहे हैं। हमारा बजट, चूं-चूं करती आती है चिडिय़ा, दाल का दाना लाती है। सब जानवर इकट्ठा होते हैं, खौं-खौं। और अगले साल फिर से वही। अब उपरोक्त गाने का मकसद बच्चों को महज जानवरों की हरकतों से बावस्ता कराने का होता है। सो ही मकसद बजट का है कि सब जान लें कि सरकार बकायदा, सरकारी तौर-तरीके, कायदे-कानून से चल रही है। और कहीं भी कोई वायदे से, कायदे से बाहर जाकर अपनी रेल चलाने की बात करेगा तो फिर, खौं-खौं।
इस बजट की बस एक बात मुझे पर्सनली अच्छी लगी। वो ये कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर कर दिया गया। महज दस हजार की पिछली आयकर छूट जिससे कि पूरे आयकर में सिर्फ एक हजार रुपए का फर्क आता था। इसके चलते जो दोयम दर्जा हमें प्राप्त था, उससे मुक्ति मिल गई। मतलब कि अब आयकर स्टेटमेंट में अलग से कॉलम बनाने की जरूरत नहीं कि महिलाओं के लिए विशेष छूट। अब हम भी बाखुदा उतनी ही तनख्वाह पाएंगे, उतनी ही छूट पाएंगे जितना की बाहक बनता है।
एक रोचक खबर बजट के बाद आई है कि पूरे देश की विकास दर सात प्रतिशत है और देश के नेताओं की 100 प्रतिशत। अब यहां भी देखिए सिर्फ बताने का फर्क है। अब यूं देखा जाए तो देश की विकास दर 107 प्रतिशत हुई। भई ये नेता देश के ही तो हैं, इनकी उन्नति देश की ही उन्नति तो है। तो हुई ना देश में 107 प्रतिशत तरक्की। बल्कि अभी इस विकास दर में बाबाओं की आय शामिल नहीं है। अगर वो भी मिला दी जाए तो शुद्ध विकास दर 207 प्रतिशत बनती है।
बस यूं ही बनती है साल दर साल दाल के दाने की खिचड़ी, यूं ही उठती हैं गर्म-गर्म स्वाद की लपटें, बस यूं ही दिल करता है, साइड से थोड़ी ठंडी हुई खिचड़ी को गोल कर मुंह में डाल जाने का। पर जाने क्यूं हमारे बांटे तो हर बार गीत के आखिरी शब्द ही आते हैं। खौं-खौं। लेकिन हम बेहद आशावादी हैं, हर साल फिर इंतज़ार करते हैं, चिडिय़ा का। वो फिर आएगी मुंह में दाल का दाना दबाए।
-डॉ. पूनम परिणिता
बस ऐसा ही एक गीत बचपन से आज तक सुनते आ रहे हैं। हमारा बजट, चूं-चूं करती आती है चिडिय़ा, दाल का दाना लाती है। सब जानवर इकट्ठा होते हैं, खौं-खौं। और अगले साल फिर से वही। अब उपरोक्त गाने का मकसद बच्चों को महज जानवरों की हरकतों से बावस्ता कराने का होता है। सो ही मकसद बजट का है कि सब जान लें कि सरकार बकायदा, सरकारी तौर-तरीके, कायदे-कानून से चल रही है। और कहीं भी कोई वायदे से, कायदे से बाहर जाकर अपनी रेल चलाने की बात करेगा तो फिर, खौं-खौं।
इस बजट की बस एक बात मुझे पर्सनली अच्छी लगी। वो ये कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर कर दिया गया। महज दस हजार की पिछली आयकर छूट जिससे कि पूरे आयकर में सिर्फ एक हजार रुपए का फर्क आता था। इसके चलते जो दोयम दर्जा हमें प्राप्त था, उससे मुक्ति मिल गई। मतलब कि अब आयकर स्टेटमेंट में अलग से कॉलम बनाने की जरूरत नहीं कि महिलाओं के लिए विशेष छूट। अब हम भी बाखुदा उतनी ही तनख्वाह पाएंगे, उतनी ही छूट पाएंगे जितना की बाहक बनता है।
एक रोचक खबर बजट के बाद आई है कि पूरे देश की विकास दर सात प्रतिशत है और देश के नेताओं की 100 प्रतिशत। अब यहां भी देखिए सिर्फ बताने का फर्क है। अब यूं देखा जाए तो देश की विकास दर 107 प्रतिशत हुई। भई ये नेता देश के ही तो हैं, इनकी उन्नति देश की ही उन्नति तो है। तो हुई ना देश में 107 प्रतिशत तरक्की। बल्कि अभी इस विकास दर में बाबाओं की आय शामिल नहीं है। अगर वो भी मिला दी जाए तो शुद्ध विकास दर 207 प्रतिशत बनती है।
बस यूं ही बनती है साल दर साल दाल के दाने की खिचड़ी, यूं ही उठती हैं गर्म-गर्म स्वाद की लपटें, बस यूं ही दिल करता है, साइड से थोड़ी ठंडी हुई खिचड़ी को गोल कर मुंह में डाल जाने का। पर जाने क्यूं हमारे बांटे तो हर बार गीत के आखिरी शब्द ही आते हैं। खौं-खौं। लेकिन हम बेहद आशावादी हैं, हर साल फिर इंतज़ार करते हैं, चिडिय़ा का। वो फिर आएगी मुंह में दाल का दाना दबाए।
-डॉ. पूनम परिणिता