प्रभु ! आप यहां कैसे...

जानती हूं, एक बार फिर इंडोनेशिया का नाम लेते ही आप में से ज्यादातर कहेंगे, बस बहुत हो गया। पर मैं भी क्या करूं? पहली बार गई थी विदेश, फिर खर्च भी काफी हो गया। वहां से कुल जमा हासिल है तो बस कुछ जोड़ी विदेशी स्टैंप कपड़े, कुछ फोटो या फिर यादों और अनुभव का खजाना। बस यही खजाना आपस में बांटना चाह रही थी। चलिए, ये इंडोनेशिया के बारे में लास्ट है। 
उस दिन और कोई कार्यक्रम नहीं था। सो, घूमने निकले। पहले बोरोबदूर गए, वो एक बुद्धा मंदिर था, बेहद सुंदर स्तूपों वाला। फिर तमन्नसारी देखा जो एक मुसलिम शासक का महल और इबादतगाह थी। तब तक शाम ढल चुकी थी। तब जाकर पहुंचे, ‘परेम्बनन।’ उस समय वहां के साढ़े चार बज रहे थे। ड्राइवर ने बताया कि साढ़े पांच बजे बंद हो जाएगा। जल्दी से टिकट लेकर भागे।
अंदर का नज़ारा अद्वितीय था। दूर तक फैले बाग-बगीचे जिन्हें पार कर पहुंचे मंदिर के पास। वहां सैकड़ों बड़े-बड़े स्लैबनुमा पत्थर थे। यह एक अधूरा बना मंदिर है जिसके बारे में अपनी कहानी ‘प्यार की अधूरी आस का मंदिर’ में लिखूंगी। पत्थरों की छोटी चारदीवारी के बाद अंदर बड़े-बड़े कई मंदिर थे जिनमें सबसे बड़ा शिव, पार्वती और गणेश का मंदिर था। उसके सामने नंदी बैल का, फिर ब्रह्मा और विष्णु के मंदिर।अपने भारत से इतनी दूर विदेश में अपने भगवानों को देख मुझे अजीब से आनंद का अनुभव हुआ। मैंने जूते उतारे, सिर पर कपड़ा किया, श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़े, आंखें बंद की और उनके वहां होने को बड़ी शिद्दत से महसूस किया। पर आंखें खोलते ही तमाम लोगों को अपनी तरफ घूरते पाया। दरअसल, वहां मंदिरों में न जूते उतारे जाते हैं, न सिर ढकने का रिवाज़, न कोई धूपबत्ती, न पूजा अर्चना, न कोई श्रद्धा और न कोई विश्वास। 
मेरे साथ से गुज़र रहे प्रवासियों के एक समूह को गाइड इंगलिश में भगवान शिव, मां पार्वती और गणेश के बारे में बता रहा था। और ये भी कि, ‘इफ यू विल टच द फीट ऑफ लॉर्ड, यू विल गेट हिज़ ग्रेस।’ तभी उनमें से एक ने ओके कहते हुए भगवान शिव के पैरों को यूं ही चलते-चलते हाथ लगा दिया और आगे बढ़ गया। अरे...रे...यूं थोड़ी...आंखें बंद कर, मन में श्रद्धा, विश्वास ला, फिर झुककर सिर चरणों में रख। मैंने नहीं, मेरे मन ने कहा था ये, ज़ोर से हिंदी में। पर सुनता कौन और समझता कौन। 
ओह! मैंने अपने भगवान की विवशता को दिल की गहराइयों से महसूस किया। फिर उन्हें कुछ मंत्र खालिस संस्कृत में सुनाए। शुद्ध हिंदी में आरती गाई। और फिर पूछ ही लिया उनसे - प्रभु आप यहां...कब से, यूं बिना धूपबत्ती, आरती, पूजा, शंख, घंटी और हां, प्रसाद-चढ़ावा। पीछे से बोल रहा था कोई इंडोनेशियन भाषा में, मुझे सिर्फ 215 बीसी से, समझ आया। मैंने अपना पर्स टटोला, कुछ डॉलरों, इंडोनेशियन करंसी के बीच, अनमना सा गांधी बाबा वाला दस का नोट पड़ा था। मैंने माथे से लगाकर रख दिया, भगवान के चरणों में। मुझे कुछ अलग सी मुस्कान दिखाई दी, अब भगवान के चेहरे पर। जैसे बहुत दिनों बाद कोई अपना सा मिला हो। 
साढ़े पांच बज चुके थे। मंदिर बंद होने लगे थे, आखिरी मंदिर देखना बाकी था। गार्ड से रिक्वेस्ट की पर आश्चर्य, उसने अलग से पैसे मांगे। (अपने यहां इसे सर्विस चार्ज कहते हैं)। मैंने कहा-मान गए भगवान, तेरे बंदे सब जगह एक जैसे हैं।
डॉ. पूनम परिणिता