ज़िंदगी कैसी है पहेली...

वो भी बस आम दिनों जैसा ही दिन था। वही दुनियावी कार्य निपटाए जा रहे थे। सुबह बेटे को स्कूल बस तक छोड़कर वापस आए तो सामने वाले शर्मा जी घूमने के लिए निकल रहे थे। वो जल्दी में मुंह फेर कर निकल गए, सो दुआ सलाम न हो पाई जो सुबह के समय अमूमन हो जाया करती थी। सोमवती, मौनी अमावस थी उस दिन। घर के काम करके ऑफिस पहुंची, सब कुछ और दिनों की तरह सामान्य ही था, जब तक कि शर्मा जी के बेटे का फोन नहीं आया कि आप जल्दी घर पहुंच जाओ, पापा बाथरूम में गिर गए हैं। मैं शहर से बाहर हूं, एक घंटे तक पहुंच पाऊंगा। मैंने सांत्वना देते हुए कहा कि चिंता मत करो, मैं पहुंच जाती हूं। फिर जाने क्या सोचते मैंने एक सहकर्मी को साथ आने को कह दिया।
शर्मा जी के घर पहुंचे तो देखा कि उनकी पत्नी और पुत्रवधू बुरी तरह घबराई हुई थीं और रोए जा रही थीं। शर्मा जी फर्श पर गिरे हुए थे। जल्दी में उन्हें हाथ लगाकर देखा, कुछ समझ नहीं आ रहा था। सहकर्मी को उन्हें आगे से पकडऩे को कहा। हम सब ने बड़ी मुश्किल से पीछे से पकड़कर गाड़ी में लिटाया। घर से अस्पताल का सफर बामुश्किल चार मिनट का होगा। उस दिन इतना लंबा हो गया। वहां पहुंचकर स्ट्रेचर लेने भागे और शर्मा जी को स्ट्रेचर पर लिटाने के लिए दो लोगों से निवेदन करना पड़ा। जब तक आहत हमारा जानकार न हो, सहज मदद को कोई आगे नहीं आता। डॉक्टर ने जल्दी से प्राथमिक मुआयने में ही बता दिया कि अब कुछ शेष नहीं है। इस तरह के हालात से मैं पहली बार गुज़र रही थी। बस इससे बड़ा सच भी कोई नहीं है। इससे बड़ा झूठ भी कोई नहीं है। किसी का पिता, भाई, पति, ससुर, रिश्तेदार यहां विश्वास है कि जबकि, जब तक खबर न दी जाए, उनके लिए यह कि ज़िंदा है, बस इसी वहम में जीए जा रहे हैं हम सब। बस उसके बाद तो अन्य कर्म शुरू हो गए। खबर मिलते ही सब आ गए।
शर्मा आंटी का बुरा हाल था। सब उनसे पूछ रहे थे, बीपी, शुगर था क्या? पहले कभी अटैक हुआ था? वो मना किए जा रही थीं। कुछ नहीं था, बिल्कुल ठीक थे। बगीचे में काम कर रहे थे। हाथ-पैर धोने बाथरूम में गए थे कि...। कुछ कह भी नहीं पाए। सुबह कह रहे थे कि मौनी अमावस है, बड़ा अच्छा दिन होता है, इस दिन कम बोलना चाहिए या मौन रहना चाहिए। इसलिए खुद भी कम बोल रहे थे। पितरों को तर्पण भी किया था। गाय को रोटी भी दे आए थे। कोई कह रहा था कि आदमी बीमार होकर जाए तो इलाज वगैरह करवाए। कुछ दिल की कह जाए। मैं सोच रही थी, दिन भर के इतने झमेलों में क्या कभी हम सोच पाते हैं कि मृत्यु क्या है? कब होनी है? हम कितने करीब हैं? बस जब किसी का क्रिया-कर्म देखते हैं, तभी क्षण भर भले ही खुद को उसकी जगह धरती पर लिटा लें, परंतु तभी फर्श ठंडा लगने लगता है और अनायास ही हम खुद को वहां से उठा लेते हैं। कभी आपस में बात करते भी, मरने की बात आते ही एक-दूसरे के मुंह पर हाथ रख देते हैं। कैसी मनहुसियत की बातें लगती हैं ये। पर आखिरी सच तो है ये।
मैं चाहूंगी कि मेरे मरने पर मेरी आंखें दान कर दी जाएं। और मेरी देह भी मेडिकल कॉलेज को दे दी जाए। पर ये भी सच है कि कभी इन सबके लिए नामित कोई फार्म आज तक मैंने नहीं भरा है। बस कहा भर है। दरअसल, सोचा भी नहीं जाता मरने के बारे में, दिल ही नहीं करता। मन करता है बस, खेलते रहें ज़िंदगी की इस पहेली के साथ, सुलझे न सुलझे, पर साथ तो रहे। लड़ें, झगड़ें, रूठे, माने, हंसे, रोएं, जीते, हारें पर चलते रहें, भागते रहें। मिट्टी की इस देह में हवा से, पानी से ज़िंदगी की नमी बनी रहे।
डॉ. पूनम परिणिता