ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी...

'मेरे पास से होकर, मेरी ज़िंदगी यूं निकल गई, जैसे कोई अजनबी हो पहचाना सा।’ ज़िंदगी यूं तेज़ कदम चलती पास से निकलती जा रही है, अब ये तो आप पर है ना, हौले से कभी जो कंधे पर हाथ रख कर रोकेंगे, पूछेंगे तो मुड़कर, रुक कर मुस्कुराएगी ज़रूर, आखिर तो आपकी ज़िंदगी है। तो फिर रोकिए, पूछिए, ‘सुनो...कैसी हो?’ जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा। फिर कहना, ‘कहां जा रही हो इतनी जल्दी में, बैठो कुछ देर मेरे पास, थोड़ी-थोड़ी चाय हो जाए।’ अगर उसके जवाब से पहले आपका मोबाइल बज उठा और आपने सिर्फ़ देखने भर के लिए भी उठा लिया तो वो बढ़ जाएगी आगे, बिना आपसे कुछ कहे। और फिर, जाने आपको ही दोबारा कब वक्त मिले अपनी ही ज़िंदगी से रू-ब-रू होने का। तो हर कॉल से पेशतर कभी ज़िंदगी का, दिल का, प्यार का राग भी सुनें।
टहलने जाएं दो घड़ी, अपनी ज़िंदगी के साथ। उस बचपन में जब, कभी कोई, यूं ही पूछ लिया करता था कि बड़े होकर क्या बनोगे? और आप भी जाने किसकी, किस चीज़ से प्रभावित हुए कह दिया करते थे फलां अफसर बनूंगा, लेकिन फिर तमाम हकीकतों से गुज़रते आज क्या बन पाए हैं? और क्या खुश हैं? जानती थी, बड़े घमंड से खुद को कह उठेंगे कि-हां, खुश हूं। आज मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है। पर ये सवाल को ज़िंदगी से था जो अभी चुप है, थोड़ी गुमसुम सी, क्योंकि पैसा कमाने से इतर और भी कुछ चाहा था ज़िंदगी ने आपसे। कभी दिल किया था, क्या, कि गिटार, हारमोनियम, तबला या बांसुरी बजाने आने चाहिए। कभी कोई बजाता दिखता है तो ज़िंदगी के तार बजते हैं क्या। या अपने बच्चे की एक मनुहार पर उसे खरीदकर ला दिया है, आपने ऐसा कोई वाद्य। तो यकीनन ज़िंदगी अभी तक लय में बह रही है।
कभी, यूं ही, रंगों से हाथ भरकर पेंटिंग के नाम पर घर की दीवारें, पुरानी सी शटर्स खराब कर मम्मी से डांट खायी थी क्या? या कभी आटर्स में मिला कोई सर्टिफिकेट आज तक किसी पुरानी फाइल में सहेज रखा है? और, क्या आज भी कभी अपने बच्चे के प्रोजेक्ट्स में, चाटर्स पर अपनी कला, अपने रंगों का असर छोड़ते हैं? तो इतमिनान रखें, आपकी ज़िंदगी बेनूर, बेरंग नहीं हुई है। क्या आज भी गाहे-बगाहे किसी महफिल में, पार्टी में, कभी सुर छेड़ देते हैं क्या? बस सिर्फ एक ही आग्रह पर, नृत्य कला का पूरा प्रदर्शन कर देते हैं? तो फिर बेफिक्र रहिए, ज़िंदगी में तरंग अभी बाकी है। ज़रा याद कीजिए, कभी डायरी में, हिस्ट्री की नोटबुक के पीछे, कुछ शेर नोट किए थे क्या? या कॉलेज मैगज़ीन में कोई कविता, आर्टिकल दिया करते थे क्या? बस फिर जो पैन रुका, क्या आज सिर्फ़ साइन करने के काम आता है।
पर फिर भी, क्या आज भी अखबार के साथ आई बच्चों की मैगज़ीन में कार्टून पढ़ लेते हैं। और हां, ज़िंदगी नाम से शुरू होने वाले आर्टिकल अपने ज़रूरी काम छोड़कर भी शौक से पढ़ते हैं क्या? फिर तो, जिस ज़िंदगी के साथ, अभी कुछ देर पहले, आप बस दो घड़ी टहलने निकले थे, वो कुछ देर थमकर आपसे खुद बतियाएगी। और फिर कुछ देर बाद कहेगी, सुनो...तुम्हारा मोबाइल बज रहा है। और हौले से मुस्कराते हुए कहेंगे, अरे, तुम बैठो ना थोड़ी देर और, वो मैं बाद में मिस कॉल चेक कर लूंगा। और फिर उसके जाने के बाद भी, आप देर तक खुद ही गुनगुनाते रहेंगे...ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है।
डॉ. पूनम परिणिता