ज़िंदगी यूं ही चलती रहे

आज एक बड़ा सा फ्लैक्स बोर्ड देखा, अनाज की भरपूर पैदावार बारे था कि हरियाणा में गेहूं की बंपर पैदावार। पता नहीं क्यूं मन किया कि कोई इतने बड़े बोर्ड के दायीं ओर निचले कोने पर अखबार की वो कटिंग लगा दे जिसमें दिखाया गया कि बंपर पैदावार कैसे सिर्फ बोरियों में भरे जाने के अभाव में सड़ रही है। शहर में एक और बड़ा सा बोर्ड किसी कॉलेज की लड़कियों को दर्शाता हुआ लगा है। कोई इसके भी बायें कोने पर, अखबार में आयी ‘अपना घर’ से लापता युवतियों की तस्वीर लगा दे।
अब इसमें दो बातें गौर करने की हैं। पहली तो तस्वीर लगा दें और दूसरी कि कोई और लगा दे। मैं और मेरा मन तो जैसे निमित मात्र हो सकते हैं। बस अंदर ही अंदर आग जलती है, चिंगारियां सुलगती हैं, बस एक हाथ चाहिए जिस पर ये जलते शोले रख दें। और फिर हमारा काम खत्म। फिर देखें, कैसे वो हाथ पहले खुद को जलाते हैं, फिर दुनियां को रोशन करते हैं। पर इसमें भी कोई हमारे योगदान को न भूले। पता नहीं कब ये तलाश मुकम्मल होगी। हर किसी को कोई ऐसी आदिम सीढ़ी चाहिए कि उसकी गर्दन पर सवार हो देख पाए दूसरी ओर का शाइनिंग इंडिया।
फिर एक सवाल खुद से ही किया, क्यूं कभी मन ये नहीं करता कि पिछले स्टोर में बेकार पड़ी अनाज की खाली बोरियों में से ज्यादा नहीं तो दो-चार बोरियां वहां दे आऊं, अपने हिस्से का योगदान करूं, दो बोरी अनाज तो खराब होने से बचाऊं और अगर बस अपने हिस्से का काम सब कर दें तो फिर किसी को तलाश कर लाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्यूं राह चलती, रेड लाइट पर खड़ी, बीकानेर की दुकान के सामने घूमती, मॉल के रास्ते में कपड़े खींच कर भीख मांगती लड़कियों को देख सिर्फ खीज उठती है मन में। क्यूं? बस ये लगता है कि ये काम नहीं कर सकतीं। हमेशा एक काम वाली लड़की नजर आती है उनमें।
कभी मन ये क्यूं नहीं करता कि इनमें से किसी एक की जिम्मेवारी मेरी, उसे थोड़ा पढ़ाने-लिखाने की, बस पढ़ाई के मायने भर समझाने की, उसे इतनी समझ देने की, कि वो ज़िंदगी में कुछ और भी कर सकती है। इससे बेहतर। आखिर इसी तरह की लड़कियां तो पहुंचती हैं ‘अपना घर’, अपनों के अभाव के चलते। कुछ करना तो होगा। कुछ करना तो है। कब, कैसे की उहापोह में ही आधी ज़िंदगी निकल चुकी है। फिर भी शुरुआत के लिए कभी देर नहीं होती।
एक बात और, आजकल रिजल्ट का मौसम है। तमाम तरह के रिजल्ट आ रहे हैं, बच्चे उपलब्धियों से खुश हैं, पेरेंट्स के चेहरे खिले हैं। पर कुछ मायूस मन भी हैं जो इस बार वो मंजि़ल नहीं पा सके जिसकी दरकार थी। ये भी जानती हूं कि सांत्वना के बोल बड़े चुभते हैं मन को। पर उस हाथ की जरूरत हमेशा रहती है जो कंधे को थपथपा कर, मन को हल्का कर दे। सो पेरेंट्स और दोस्त, प्लीका बने रहे उस मायूस मन के पास। समझाएं उसे, ज़िंदगी अभी बस नहीं हुई है, कि ज़िंदगी कभी बस नहीं होती और बच्चे भी रैंक की दुनिया से इतर, कुछ और सोचें। कि ज़िंदगी बार-बार मौके देती है। आपको बस इतना करना है कि उसकी रवानगी को बरकरार रखें। यूं बहती रहते देंगे तो ही कहीं न कहीं, घनी छांव के, प्यारे छोर भी मिल ही जाएंगे।
डॉ. पूनम परिणिता