नहीं, मैं नहीं देख सकता तुझे...

आम बोलचाल की भाषा में एक कहावत सुनी थी कि ‘और लड़कियां क्या रात को उठ·र खाती हैं।’ जब कभी किसी लड़की के उत्पीडऩ की बात चलती है, तो यह बात अक्सर कही जाती है। तब मुझे इसका मतलब समझ नहीं आता था। पर अब आरूषि के बारे में अक्सर सोचती हूं। तलवार दंपति के बारे में सोच कर परेशान हो जाती हूं। डॉक्टर लोग और लोगों की अपेक्षा थोड़ा लेट शादी करते हैं, अपनी शिक्षा पूरी करने के चलते। तो बड़ी उम्र में शादी हुई होगी और फिर प्यारी सी बेटी आरूषि। आरूषि की आंखें बड़ी-बड़ी, गोल, खूबसूरत थीं। चूंकि दोनों वर्किंग थे, फिर भी उसके लिए पूरा वक्त निकाला होगा। कभी मिल कर मालिश करते होंगे, कभी नहलाते होंगे।
शुरू के दो महीने तो किसी दंपति को नहीं भूलते, जब दिन और रात बराबर हो जाते हैं। रात को एक हाथों में झुलाता है, नींद आंखों में भरे उसके सोने का इंतजार करता है। फिर रातों को दूध बनाकर लाने की बारी भी आई होगी। आरूषि के बाल, पता नहीं शुरू से ही लंबे रखे थे क्या तलवार दंपति ने। बालों की दो चोटियां बनाकर आगे दोनों तरफ हेयर पिन लगाकर खुश होते होंगे। फिर पहला बर्थ डे, कितने प्लान बनते-बिगड़ते हैं, सबको बुलाकर बड़ी पार्टी रखें या फिर बस पड़ोस के सारे बच्चे बुलाकर घर में ही केक काट लें। वर्किंग लोगों के बच्चे बॉय कहना बड़ी जल्दी सीख लेते हैं। दूसरे और तीसरे बर्थ डे के बीतते ही प्ले स्कूल शुरू कर दिया होगा। घर में ऐशो आराम, खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। और होती भी तो, बच्ची के लिए कोई कमी कभी न होने दी होगी। नौकर-चाकर, माली, ड्राइवर ध्यान रखते थे आरूषि का। इसीलिए कभी उनके भरोसे छोड़ दिया जाता होगा उसे। आरूषि थोड़ी कमजोर थी, सो बचपन में बीमार भी ज्यादा होती होगी, तब डॉ. तलवार अपने हर तरह के जरूरी काम छोड़कर सिर्फ उसे संभालते होंगे। दूसरी-तीसरी क्लास के अच्छे मार्कस देखकर दोनों ने सोचा होगा, आरूषि भी डॉक्टर बनेगी बड़ी होकर।
कभी आरूषि को किसी फ्रेंड के बर्थ डे पर जाना होता तो डॉ. तलवार खुद छोड़कर आते। बड़े डरते-डरते स्कूल टूर पर भेजते और जब तक वापस न आ जाती, बड़े बेचैन से रहते। कभी काम से फुर्सत ले फैमिली टूर पर जाते होंगे। आरूषि के लिए उसकी पसंद की ढेरों ड्रेसस लाते, आरूषि को जींस-टॉप के साथ कैप लगाना भी पसंद था। जब आरूषि थोड़ी बड़ी होने लगी, मम्मी ने अच्छे-बुरे बारे समझाया होगा, लेकिन काम में व्यस्तता के चलते, शायद खुद नहीं समझ पाईं। वर्किंग पेरेंटस के बच्चों को धीरे-धीरे मम्मी-पापा का काम पर जाना भाने लगता है, उस वक्त वो पहले देर तक टीवी, फिर कंप्यूटर, फिर इंटरनेट देखकर बिताने लगते हैं। या कभी-कभी फ्रेंड्स को घर पर बुलाते हैं। थोड़ी अकेलेपन की छूट जरूर लेते हैं। घर के नौकर, घर के हर शख्स पर अपनी पैनी नजर रखते हैं। उनकी पसंद-नापसंद को बारीकी से परखते रहते हैं। फिर घर पर ज्यादातर अकेली रहती आरूषि का भी नौकर के साथ ही ज्यादा वक्त बीतता होगा। यूं कभी कांच का टुकड़ा आरूषि के पैर में लगा होगा या कभी साइकिल से गिरकर घर आई होगी तो पापा ने प्यार से सहलाते, उसकी चोट को साफ कर पट्टी बांध दी होगी। उसके आंसू पोछते कहा होगा-मेरी बहादुर बेटी है। यूं छोटी सी चोट पर थोड़ी ना रोते हैं।
फिर एक दिन अचानक जब आरूषि अपने कमरे में पढ़ रही थी, कुछ आवाजें सुनकर दोनों उसके कमरे की तरफ गए और वहां जो देखा, बर्दाश्त नहीं हुआ। शायद किसी भी मां-बाप से ना हो, कभी ना हो। बच्ची की वो हालत, नौकर की वो हिमाकत। कोई नहीं समझ सकता, उस भावना के तूफान को। समझ, बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया होगा। अपने प्यार का ये सिला, नमकहरामी नहीं सहन कर पाए होंगे। पता नहीं, अभी तो केस की सुनवाई बाकी है। दलीलें और तहरीरें बाकी हैं। पर कोई सब कुछ जानता है। पर अगर किसी की ज़िंदगी को किसी गलत काम करने पर माफ नहीं किया जा सकता तो अपनी ज़िंदगी बचाने की इतनी जद्दोजहद क्यूं।
डॉ. पूनम परिणिता