दो जिस्म मगर एक जान हैं...

यह कहानी स्तुति और आराधना से शुरू होती है। मध्य प्रदेश के बैतुल जिले के सरकारी अस्पताल में जब एक मजदूर महिला ने दो बच्चियों को जन्म दिया जो जन्म से एक दूसरे से जुड़ी थीं। दंपति ने उन बच्चियों को घर ले जाने और उनका लालन-पालन में असमर्थतता जताते हुए उन्हें अस्पताल में ही छोड़ दिया। उस सरकारी अस्पताल में जो खुद मुश्किल से जी पाता है। पर अस्पताल ने, स्टाफ ने, उन प्यारी बेटियों नो न सिर्फ पाला बल्नि डॉ. राजीव चौधरी ने उन्हें अलग कर उनकी खुद नी पहचान दी। दुनिया भर के लोग भले ही पानी पी-पी कर सरकारी अस्पतालों को, सरकारी डॉक्टरों को कोसें पर सिर्फ स्तुति और आराधना हमेशा-हमेशा इन्हें याद रखेंगी। एक स्व के लिए, एक अपनी अनुभूति के हमेशा आभारी रहेंगी।
सत्यमेव जयते ने भले ही डॉक्टरों की, डॉक्टरी पेशे की जो भी तस्वीर पेश की है पर मैं जिन डॉक्टरों को निजी तौर पर जानती हूं, उनमें से एक तो बेहद ही भले मानुष हैं और बाकी भी भले हैं, हां मानुष भी हैं ही। बहुत सी लेडी डॉक्टर्स भी मेरे संपर्क में हैं उनमें से कुछ तो अपने पेशे से इतर समाजसेवा में या व्यक्तिगत तौर पर इतनी मजबूत हैं कि उनकी ज़िंदगी अपने आप एक मिसाल है। दरअसल पहले तो इतनी सारी पढ़ाई ही ज़िंदगी का एक अहम और सुहावना पहलू निगल लेती है, तिस पर गांव की कुछ पहली पोस्टिंग्स। अपने लिए जीने की फु़र्स़त थोड़ी देर से ही मिल पाती है, लगभग तब जब बच्चे बोलने लायक हो जाते हैं। तभी बच्चों के पढ़ाई के बारे में सोचते ही शहर की पोस्टिंग के बारे में सोचा जाता है लेकिन यहां भी मरीज, बीमारियां, नाइट शिफ्ट, एमरजेंसी कॉल, पेंशन ड्यूटी, ब्लट डोनेशन कैंप, वीआईपी ड्यूटी, फिर घर परिवार आम जीवन की टेंशन ने साथ-साथ आमिर खान और कीर्तन भजन मंडली को भी झेलना होता है।
प्राइवेट, डॉक्टरों से मेरा ज्यादा वास्ता नहीं पड़ा। सो कह नहीं सकती। हां, खुद बीमार पडऩे पर जरूर बिल्कुल आम आदमियों की तरह ही सारे टेस्ट और हाई फीस संकटों से गुजरती हूं। कई बार नोट किया है कि प्रोफेशनल भाईचारा प्राइवेट फीस के आड़े कम ही आता है। इस बीच मैं उनका भी जिक्र करना चाहूंगी जो सरकारी अस्पताल में कार्यरत थे, बेहद काबिल डॉक्टर। बड़े ध्यान से मरीज की बात सुनते, बड़ी कैफियत से दवाई लिखते, मरीजों को आराम होता। बिना बात एक बार उनका ट्रांसफर मेवात़ कर दिया गया। शरीफ डॉक्टर थे, बदली रुकवा नहीं पाए, नौकरी छोड़ दी। प्राइवेट अस्पतालों के साथ काम करने लगे।
काबिल थे, काबिलियत पैसा बरसाने लगी फिर छोटा सा अपना अस्पताल खोल लिया। वह अब तक भी शरीफ ही थे। पर पिछले कुछ समय से देखा है कि उस छोटे से अस्पताल ने शहर में बड़े मौके की जगह पर एक बहुत बड़े अस्पताल का रूप अख्तियार कर लिया है। फिर उसमें बड़ी-बड़ी मशीने लगेंगी, दवाइयों की दुनाने, टेस्ट लैब। अस्पताल की मंजि़लें जैसे-जैसे बढ़ती जा रहीं हैं, मुझे डर सा लगता जा रहा है। वह डॉक्टर कब तक शरीफ बने रहेंगे? आखिर लोन तो उतारना ही पड़ेगा, फिर क्या होगा? आखिर इस सब में भुगतेगा कौन? पर बात तो यह भी है कि शुरुआत किसने की।
पिछले दिनों डॉक्टरों नो सुधारने के लिए काफी अभियान चले हैं। पता नहीं क्या किसी ने सिविल अस्पताल में खंडहर बन चुके डॉक्टरों के रिहायशी आवासों को ठीक करने के बारे में लिखा है। ये एक अहम कदम हो सकता है। परिसर में रहने से डॉक्टर मरीजों के करीब रहते हैं। बहरहाल, बस एक बात अब तक जरूर जान पाई हूं कि डॉक्टर मरीज को मारते नहीं हैं। हां, जान बचाने के हजारों केस रोज सामने आते हैं। पैसे की एक अलग दुनिया है उसके सामने सब नतमस्तक हैं। जीवन भी, मौत भी।
-डॉ.पूनम परिणिता