ना तुम हमें जानो...

आज भारत भूषण अग्रवाल की एक कविता पढ़ी। ‘मैं और मेरा पिट्ठू।’ फिर मुझे अपनी उस अलिखी, माने जो लिखी नहीं गई, कविता की याद आ गई। ये रिश्तों और आपसी समझ के बारे में है। कि-जानती हूं, तुम उसे जानते हो, जो सुबह पांच बजे अलार्म के साथ उठ जाती है, बिखरे बालों को, उंगलियों से साधती पीछे को बांधती, सीधे रसोई में चली जाती है, बच्चे और तुम्हारे टिफिन में, फिर कुछ नया, कुछ जादुई, कुछ सेहतमंद सा डालने। पर क्या तुम उसे जानते हो, जो चाहती है, सोना देर तक, तुम्हारी बगल में, यूं ही बिखरे बालों के साथ।
हां जानती हूं, उसे तो, तुम, अच्छे से जानते हो, जो तुम्हें देकर तुम्हारे कपड़े, टॉवेल, हो जाती है तुम से पहले तैयार, और देखती है तुम्हारे मूड की बाट, कि क्या बिना कोई मुंह बनाए, छोड़ दोगे ऑफिस तक। पर, क्या तुम उसे जानते हो, जो, बस रहना चाहती है घर पर, हमेशा, ताकि रख सके, अपने, नए लाए फ्लॉवर पॉट में, अपने चुने हुए ताजे फूल।
हां, हां, तुम उसे तो भले ही जानते हो, जो, सर से ढलते, सरकते, पल्लु को वापिस सर पर रखने की नाकाम कोशिश करती, रखती है खुश, तुम्हारे तमाम छोटे-बड़े रिश्तों को, पर उसे जानते हो क्या, जो ढीली टी-शर्ट और लोअर पहने, चाहती है बस, घंटों बतियाना, अपनी मां से फोन पर।
और, उसे तो अब जान ही गए हो, जो स्कूटर, कार उठाए, कर देती है, तुम्हारे, बच्चों के, घर के, हर अंदर-बाहर के काम, और तुम्हें इतिला हो जाती है कि-ठीक किया, पीटीएम जा आईं। पर उसे जानते हो क्या, जो चाहती है दिन भर में याद आई चीजों की लिस्ट बनाना और तुम्हें थमाना, ना चाहते हुए भी, ऑफिस से आते ही। और उसे तो तुम जानकर थक चुके हो, जो बैठ जाती है, रात देर तक के लिए, हाथ में कोई किताब लेकर, जब तुम चाहते हो, चैन से सोना, लाइट बंद कर। पर उसे कब जाना। जो चाहती है, ये कहानी, ये कविता पढऩा तुम्हारे साथ-साथ, ताकि जान सके कि, कितना जाना तुमने मुझे, और कितना तुम जान सके।
अब ये तो हुई कविता, इसके बाद इसकी नारियों पर दो तरह से प्रतिक्रिया हो सकती है। एक तो कि ‘अच्छी है’ और फिर अपनी पहली सी भूमिका में मशगूल। और दूसरी कि किसी तरह उन्हें (जिनसे ये कविता बावस्ता है) ये कविता पढ़वाई जाए और लगातार उनके एक्सप्रेशन नोटिस किए जाएं। और फिर उनकी क्रिया पर जोरदार जवाबी प्रतिक्रिया की जाए (ऐसी कि न्यूटन भी थर्रा उठे और कहे, मैंने ऐसा तो नहीं कहा था)।
अब उनकी भी प्रतिक्रिया दो तरह की हो सकती है। एक तो ये कि-हां जी, पढ़वाओ और फिर पढ़कर वही हल्की सी-हां, ठीक है, मतलब अच्छी है। या फिर ये कि-भागवान, दरअसल मैं तो जानता ही कविता की दूसरी वाली पात्र को हूं। और दो, जिसका जिक्र पहले है, जिसे कि कहा गया है, उसे तो तुम जानते हो। मेरा भगवान जानता है कि ऐसी एक पत्नी मैंने चाही जरूर थी, पर वो जिसे मैं सचमुच जानता हूं। जिसे भगवान ने मुझे बख्शा है, वो बाखुदा वो वाली है जिसका जिक्र बार-बार ये कह कर किया है कि-पर, क्या तुम उसे जानते हो? भई, जानता हूं, खूब जानता हूं, ना सिर्फ जानता हूं, बल्कि भुगत भी रहा हूं।
देखिए, वास्तव में, मेरा इरादा तो बस, कविता का ही था। आप लोगों की पर्सनल जान-पहचान में दखलंदाज़ी करने का तो बिल्कुल नहीं था। बहरहाल, यूं ही मीठी नोक-झोंक के साथ खुश रहें।
-डॉ. पूनम परिणिता