मेरे हिस्से के अन्ना

मेरी ठोढी से बिलात भर नीचे, बांयी ओर दिल है मेरा, आम हिन्दूस्तानियों की तरह काफी बड़ा और खुला है। ऊपर दो एटरियम और नीचे दो वैन्टरीकल मिला कर फोर रूम सेट है। बड़े वाले रूम को ड्रॉइंग कम डाईनिंग बना रखा है, एक बैडरूम है। एक को लिविंग रूम और एक को गेस्टरूम बना छोड़ा है। जहाँ तमाम तरह के लोग आते जाते रहते हैं। कुछ स्थायी हैं, कुछ किरायेदार और कुछ पेईंग गेस्ट।
तो बात उन दिनों की है जब पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद मेरी नई-नई नौकरी लगी, दिल बड़ा खुश था मेरा तब। उस दिन मैडिकल और ज्वाईनिंग दोनों साथ ही थे। तो मैडिकल जल्दी कराने के लिए कुछ सिफारिश करवाई गई, फिर ज्वाइनिंग पर दफ्तर के बाबु ने मिठाई की डिमांड की, पर ये सब खुशी-खुशी में निपट गया। शाम को कोई सिपाही आया था घर, वो पासपोर्ट की पुलिस वैरीफिकेशन के लिए, तो चाय पानी के अलावा उसे निपटाने में कुछ सौ रुपये देने पड़े। पर उस दिन मुझे कुछ तकलीफ नहीं हुई, बल्कि नौकरी लगने का नशा इतना था कि कुछ सौ रुपये तुच्छ भेंट लग रहे थे। बस उसी दिन शाम को जरा गर्दन झुका नीचे देखा, दिल में गेस्ट रूम पर नजर गई, कोई था अन्दर, पूछा, आप कौन , थोड़ा अजीब किस्म का था। मतलब जो बिना पूछे ही अन्दर चला आया हो। पूछने पर हंसते हुए इतनी जल्दी से बोला ‘भ्रष्टाचार कहते हैं जी मुझे’। मुझे समझ में नहीं आया या समझना नहीं चाहा पता नहीं। दोबारा पूछ लिया, क्या कहा आपने? तो बोला- हे हे भाई साहब कह सकती हो जी आप मुझे। मतलब जान ना पहचान रिश्ता भी बना लिया। फिर बोला पेइंग गेस्ट हूं जी मैं और आपके छोटे मोटे काम भी निपटा दिया करूँगा। अजीब तो था पर बहुत बुरा नहीं लगा मुझे वो, बल्कि थोड़ा काम का लगा। तो मुस्कुरा कर गर्दन हिलाते हुए रहने की इजाजत दे दी। हालांकि उसने मांगी ही कब थी। मुस्कुराते हुए एक अच्छी फीलिंग आई थी मुझे।
अब ये दिल में रहने वालों की अच्छी या बुरी फीलिंग्स ही होती हैं, जो आदमी को कहीं का नहीं रहने देती, वरना इतनी बुरी भी नहीं है जिंदगी।
तो उसके बाद मैंने पाया कि काफी हेल्पफुल हैं, भाईसाहब। अब देखिये ड्राईविंग लाइसेंस बनवाना था, तो एक से जान-पहचान करवा दी। माने तीन सौ वाला काम दो सौ में बनवा दिया। घर में गैस की किल्लत थी तो, ब्लैक में सिलेंडर दिलवा दिए वो भी दो-दो। मतलब कुछ चमत्कारी से थे। दफ्तर में अब कोई एरियर, लोन, जीपीएफ वगैरह का काम रुकता ही नहीं था। इनकी जान पहचान हर जगह निकल आती, बस फिर कुछ तय होता दोनों के बीच और फटाफट काम बन जाता। मैंने देखा बड़ा ध्यान रखते हैं सबका, किसी को बच्चों की मिठाई के लिए दे देते हैं, किसी को चाय पानी के लिए, किसी को तेल का खर्चा, कई बार तो किसी की जेब में जबरदस्ती ही डाल देते हैं, गांधी बाबा को मोड़ कर। बड़े हंसमुख है, लोग खुश होते हैं इनसे मिलकर। नैगोशिएशन में तो माहिर हैं। मुझे भी आदत सी हो गई है, इनसे हर मामला डिस्कस करके ही, कोई निर्णय लेती हूं। और कमाल ये कि हर बार पपलु फिट हो ही जाता है।
अब हुआ यूं कि 25 अगस्त को शाम यूं ही टहल रही थी, पैर के नीचे कुछ चुभता सा महसूस हुआ। देखने को झुकी थी। तभी दिल के बाहर वाले गेट पर कोई बैठा दिखा। थोड़ा कमजोर सा, कोई बुजुर्ग लग रहा था। पैर की चुभन भूल गई मैं। पूछा- जी किससे मिलना है? आवाज अलबत्ता बुलंद थी उनकी। बोले- आप ही के पास आया हूं। मैं हैरान थी उनका चेहरा देख कर। अन्ना थे! जहां पूरा देश उनकी झलक पाने को दिन रात टीवी से चिपका था, लोग बेतहाशा दिल्ली की ओर भाग रहे थे, हर कोई टोपी लगा खुद वही बनने की कोशिश कर रहे थे। वो यहाँ खुद। बड़े शांत थे वो, बोले, अंदर आने को कहोगी या यूं ही बाहर से...। नहीं, नहीं प्लीज आईये और मैंने मुड़ कर सरसरी नजर डाली दिल पे। कहाँ बैठाउं, फिर पता नहीं क्या सोच कर गेस्ट रूम ही खोल दिया। वहाँ भाई साहब आराम से पैर फैलाये सो रहे थे। थोड़ा झिझोड़ा उनको सुनिये, उठिये, ये अपने अन्ना जी आये हैं। आश्चर्य, भाई साहब ने बस एक आंख खोल कर देखा, अपने कानों के स्पीकर फिर से एडजस्ट किए और,.... पलट कर फिर से सो गये। मैंने अन्ना से निवेदन किया कि देखिये आप दोनों यहीं रह लीजिए एक साथ। मैंने देखा ज्यादा डिमांडिंग नहीं थे अन्ना। अपना झोला साथ लाये थे, वहीं कुर्सी पर बैठ गए शांत भाव से। कुछ लेंगे आप, मैंने पूछा। नहीं मैं 16 अगस्त से अनशन पर हूं। कोई ज्यादा आवभगत नहीं कर पाई थी मैं उनकी, पर मैंने पाया कि फीलिंग अच्छी आ रही थी मुझे उनके आने से। और अब जाने क्यूं मुझे भाईसाहब का बिहेवियर थोड़ा खटकने लगा। आखिर बुजुर्ग हैं देश के लिए इतना कर रहे हैं, कुछ तो तमीज से पेश आना चाहिए था। खैर मुझे बाजार जाना था। रेलवे रोड़ के नुक्कड़ वाले मैदान में भीड़ लगी थी। लोग अन्ना हजारे के नारे लगा रहे थे, कुछ भाषण दे रहे थे, कुछ युवा युवतियां मस्ती में देश-भक्ति के गानों पर अपनी नृत्य प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे थे। पता नहीं आज मुझे भाईसाहब से सलाह लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई। सीधे जलसे में पहुंच गई। मुझे फील हुआ है कि, बुरा लग गया है भाईसाहब को, बड़बड़ा रहे हैं। देखो, सब लीडर बन रहे हैं। यूं नाचने गाने से, भूखे रहने से कहीं कानून बना करते हैं। देश में संसद है, लोकतंत्रीय प्रणाली है, सिस्टम है। पर नहीं लोगों को हुड़दंग मचाने से काम है। कुछ नहीं होने वाला इस देश का। वो जानकर अन्ना को सुनाने के लिए जोर से बोलने लगे थे। पर अन्ना शान्त भाव से ‘वैष्णव जन तो’ गुनगुना रहे हैं।
मैं सबके साथ हूं,,,,, भाई साहब के भी,,,, अन्ना के भी,,,, भीड़ के भी।
दरअसल समझ ही नहीं आ रहा है कि किस का साथ छोडूं और क्यों छोडू और किसके भरोसे पर छोडू। जानें क्यूं , मैंने भाईसाहब को कहा कि थोड़े दिन कहीं घूम आईए। अन्ना भी चैन से रह लेंगे तब तक, कौन हमेशा के लिए रहने आए हैं। पर नहीं,,, भाईसाहब जमे हैं। बोले, रेन्ट बढ़ाना चाहती हो, बढ़ा लो मैं पे कर दूंगा। मैं दोनों की झड़प देखती रहती हूं। कभी-कभी अन्ना सीधे सटीक जवाबों से चुप करवा देते हैं इनको,, बस यूं ही छीटे बोछारों के बीच 27 अगस्त आ गई और ऐतिहासिक फैसला हुआ, अन्ना के पक्ष में। मान ली गई सारी मांगे, कल सुबह अन्ना अपना अनशन तोड़ देंगे। मैं दंग हूं इनकी सहन शक्ति, निर्णय शक्ति और इच्छा शक्ति देख कर।
सुबह आठ बजे का वक्त है, दिल थोड़ा ज्यादा धडक़ रह है। टीवी से चिपकी हूं.. बेताब हूं वो मंजर देखने को, जब अन्ना अनशन तोड़ेंगे। देखा दिल के गेस्ट रूम में भी कुछ आवाजें आ रही हैं। मेरे वाले अन्ना, अपना सामान समेट रहे हैं। मैंने पूछा, आप? बोले बस जा रहा हूं। काम जो पूरा हो गया है, वैसे मुझे अच्छा लगा आपके यहां, आता रहुंगा, कभी दिल किया जब, कुछ आशीष सा देते हुए हाथ रख दिया मेरे सिर पर। जाने क्यूं चाहते हुए भी रोक नहीं पाई। तभी दूसरी तरफ देखा भाईसाहब भी बैग पकड़े खड़े हैं। मैंने पूछा आप, अन्ना के साथ जा रहे हैं। थोड़ा खिसिया गये, बोले नहीं बस यूं ही बोर सा हो गया हूं, इनके साथ रहते रहते थोड़े दिन पहाड़ों पर घूम कर आता हूं। टेबल पर मोबाईल नंबर रख दिया है कोई काम हो तो फोन कर लेना।
दोनों निकल गए अपनी-अपनी राह, मैंने गेस्टरूम में सफाई के लिए बोल दिया है। अलबत्ता मोबाईल नंबर उठाकर संभाल कर रख लिया है। बड़ा खाली-खाली सा लग रहा है।
अजीब फीलिंग आ रही है, कभी खुशी की, कभी दुख की... बताया था मैंने, ये दिल में रहने वालों की अच्छी या बुरी फीलिंग्स ही हैं, जो आदमी को कहीं का नहीं रहने देती। वरना इतनी बुरी भी नहीं है जिंदगी।
डॉ. पूनम परिणीता