यूं ही बरस कर चूक गया मेरे मन का सावन

पिछले हफ्ते हुई इस मानसून की पहली बारिश। और कहीं का नहीं कह सकती पर हिसार मौसम की सारी भविष्यवाणियां फेल करने में लगभग अव्वल है। तो पहली बारिश में कुर्सी बाहर निकलवा ली। इतनी बाहर कि पैर भीगते रहें, बाकी सब बचा रहे। पर कुछ बूंदे पैर पर पड़ते ही सबसे पहले मन भीग गया। क्यूंकि मन बैठा ही कहां था कुर्सी पर, वो तो निकल चला था बारिश में पैरों से भी कहीं पहले। और मन के हाथों में थी रस्सी और झूलने वाली पटरी। झूला डालना चाहता था कहीं, किसी बड़े नीम के पेड़ पर।ये तो अच्छा है कि मन के पैर नहीं हैं, पर हैं, वरना जितना ये उड़ता-फिरता है, इससे तो बचपन में आर्थराईटिस हो जाए। पता है कहां पहुंच गया है सीधे मायके। पता नहीं कैसा रिश्ता है, सावन, बूंदे, तीज, मायका, सिंघारा, घेवर। एक दूसरे में गुथे-मुथे सब। मन अब भी ढूंढ रहा है, घर के आस-पास का कोई पेड़। पर नाकाम है। वो जो मंदिर के पास वाला नुक्कड़ था और वहां जो बड़ा नीम का पेड़ था, वहां आजकल लाइन से तीन हस्पताल बन चुके हैं। और वो पेड़ कब का पार्किंग की बलि चढ़ चुका है। जाने घर-घर किसे देख रहा है।
सीमा, कविता, बबली, पिंकी, पायल और सोनिया कब की ब्याही जा चुकी हैं। सीमा कितनी ऊंची पींग चढ़ाती थी। नीम की आखिरी टहनी के पत्ते तोड़ कर लाती तो उसकी दादी कहती छोरी ज्यादा न उड़े। लड़कियों के पैर धरती पर लगे रहने बहुत जरूरी है। और सीमा वही पत्ते दादी पर उड़ा देती और दादी की नसीहत को हवा में। मुझे जोर से नहीं, हौले-हौले देर तक झुलाना पसंद था। सो मैं अपनी बारी आराम से किसी को भी दे देती, ताकि आखिरी में देर तक झूल सकूं। ना मन को मिला यहां कोई, ना कोई पुरानी सहेली, ना कोई पुराना पेड़। मैंने अभी-अभी कुछ चिडिय़ों को बारिश में पंख फैला कर नहाते देखा है। कहते हैं अगर चिडिय़ा यूं नहाये तो बारिश अच्छी होती है। मन फिर उड़ चला, अब पहुंचा है ससुराल। ढूंढ रहा है मेहंदी भर-भर हाथ, लाल जोड़े की बहुएं, पुराने लोकगीत, मीठे गुलगुले, सुहाली, बड़े वाले बताशे और एक अदद पेड़, झूला डालने के लिए।
कहां मिलना था, कुछ पुरानी बहुएं सब बच्चों और नौकरियों के साथ दूसरे शहरों में चली गईं और अब की जो हैं, उनके हाल अजब हैं। मेहंदी भी है, चूड़ा भी पर लाल जोड़े की जगह जींस और टॉप है। बालों के ऊपर चश्मा फंसा है, झूलने के लिए अपना स्कूटर है, गाड़ी है। बेचारा मन रस्सी कंधे पर लटकाये, पटरी ऊंगलियों में फंसाये लौट आया है, मेरे पास। मैंने थोड़ा प्यार से सहलाया इसे, तो फिर लगा ढूंढने यहीं आसपास ही, मिल जाए कोई पेड़ (इसी वर्तमान कालोनी में) पर यहां तो आसपास ट्री गार्ड में भिंचे-भिंचे से कुछ पेड़ हैं। हाय! यूं ही बरस कर चूक गया मेरे मन का सावन, यूं ही बिन झूले बीत गई मेरे मन की तीज।
मोबाइल की धुन में मन को वापिस अपने कोटर में ला बैठाया। मिसेज तायल का फोन था, कह रही थीं, तीज महोत्सव में तीज क्वीन चुनने के लिए मुझे जज बनाना चाहती हैं। खूब धमाल होगा। इस बार तीज पर तंबोला, एक मिनट गेम शो, डीजे, स्टॉल्स। मैंने हां कह दी है। तभी बाई ने आकर कहा, कल की छुट्टी दे देंगे, मैडम जी तीज है। बच्चों को पास वाले पेड़ में झूला डाल देंगे, सभी झूल लेंगे मिलकर। मनाई लेंगे तीज। मुझ से कहीं पहले मन बोल पड़ा-कर लेना छुट्टी, हां-हां ठीक है।
-डा. पूनम परिणिता