बचपन के दिन...

 जानते हैं दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य कौन सा होता है, वो जब आपका बच्चा स्टेज पर अपनी परफोरमेंस दे रहा होता है या किसी भी प्रतियोगिता में अपनी श्रेष्ठ उपलब्धि के लिए पुरस्कार ले रहा होता है। बस, तभी कहीं अनजाने ही हल्का सा गुरूर सा हो आता है अपने-आप पर। उसके अभिनय में, उत्कृष्टता में मन ढूंढने लगता है अपना बिंब, अपना श्रेष्ठ और पिछले मोड़ पर, कहीं दूर छूट गया अपना बचपन। आजकल, आम स्कूलों की बिल्डिंग भी इतनी बड़ी हैं कि लगभग हर माता-पिता का अपने बच्चे को बड़े स्कूल में पढ़ाने का सपना पूरा हो गया लगता है। फिर शहर के बड़े स्कूलों की तो बात सचमुच ही निराली है।
स्कूल के ऑडिटोरियम की तरफ जाते एक दंपति को अपने बुजुर्ग को स्कूल का वर्ग गज एरिया बताते सुना। ऐसा भी है ना कि हम अपने बच्चों को अगर अनोखी सुविधाएं उपलब्ध करवा रहे हैं तो अपने थोड़े से दंभ के आवरण के नीचे, कहीं अपनी छोटी सी शिकायत भरी अर्जी भी दर्ज कराते हैं कि भई देखो, इसे कहते हैं बच्चे पालना। हम तो बस पाल दिए यूं ही आप लोगों ने, बल्कि पल गए यूं ही। ये सब बस अंजाने में हो जाता है। जान-बूझकर तो हम बड़े ही सभ्य और आदर्श व्यक्ति होते हैं। जीवन का अस्सी प्रतिशत हिस्सा हम सपने देखते गुजारते हैं, वो अलग बात है कि इसमें से आधे सपने हम सोते हुए देखते हैं और बाकी के आधे जागते, खुली आंखों से। बस यूं ही स्कूल के प्रांगण से गुजरते जब स्कूल के हैड ब्वॉय, स्पोट् र्स कैप्टन, प्रीफेक्ट या किसी भी हाउस हेड को देखते हैं। फिर से ढूंढते हैं उसमें अपने बच्चे का चेहरा। हम उसे एक ही समय में हर जगह देखना चाहते हैं। हर उपलब्धि का बैज उसके सीने पर लगा हो, भले ही उसका सीना अभी इस लायक ही ना हुआ हो कि इतने सारे बैज इकट्ठे लगाए जा सके।
चलिए अब थोड़े शांत हो जाइए। कार्यक्रम शुरू होने वाला है। ये वक्त बड़े स्कूल के बड़े ऑडिटोरियम को देख कर अभिभूत होने का है, वो तमाम पिक्चर्स याद करने का, जिसमें हीरो बचपन में स्टेज पर गाना गा रहा है और भारी भीड़ तालियां बजा रही है। अगर फिल्में ना होती तो हमारे सपने इतने रंगीन कभी ना होते। कार्यक्रम की शुरुआत स्वागत गीत से है, सब बच्चे आ चुके हैं स्टेज पर। तभी पीछे से सुना, वो दाएं से पांचवें नंबर वाली मेरी बिटिया है, वो जिसने बाल खुले छोड़े हैं, जबकि जिसे बताया गया, उसका इंटरेस्ट सिर्फ इस गीत के बाद होने वाले नाटक में है जिसमें उसका बेटा एक्ट करने वाला है। तभी मेरे साथ बैठी एक छोटी बच्ची हाथ हिलाकर चिल्लाने लगी नॉय भईया, भई....ई....या....। भइया अलबत्ता समझदार निकला, स्टेज से मुस्कुरा भर दिया।
फिर तो दो तीन आवाज़ें और शुरू हो गई। शैरी दीदी, बंटी भैया, पर जल्द ही सारी आवाजें स्वागत गीत में खो गईं। स्वागत गीत के शब्द सुनते ही मैंने भी जल्दी ही बता दिया, हम भी गाते थे स्कूल में ये ही वाला। और तो और साथ गाने भी लगी और प्रमाण देने के लिए आगे के बोल पहले ही बता दिए। ये सब अनजाने ही हो गया। एक कोहनी लगते ही मैं वापिस अपनी सभ्य अवस्था में आ गई। सभ्य मोड, मोबाइल के साइलेंट मोड जैसा ही होता है। जिसमें समझ में सब आता है, पर मूक रहना मशीनी मजबूरी होती है। इसके बाद वो नाटक शुरू हो गया, इंग्लिश में था। अगर पहले से उसका हिंदी अनुवाद ना सुना हो या आपका बच्चा उसमें एक्ट ना कर रहा हो, तो वो समझ में आना मुश्किल है। बस सब दम साधे अपने बच्चे के आने का इंतजार करते हैं और उसका पार्ट खत्म होते ही नाटक के खत्म होने का इंतजार करते हैं। स्कूली कार्यक्रमों का समापन हमेशा राष्ट्रीय गान से होता है जिसे गाना मुझे बहुत पसंद है। पिछले दिनों हमारे राष्ट्रगान को दुनिया का बेहतरीन राष्ट्रगान चुना गया है। यूं ही जलेबी बाई के इस दौर में कुछ तो है जो खालिस है।
-डॉ. पूनम परिणिता