तू कहे तो ‘मैं’ बता दूं...

कहीं पढ़ा था कि निर्णय लेने की क्षमता महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती है। भई, ये सच भी है और रोज़ का अनुभव भी, बल्कि हमारी ये क्षमता कठिन निर्णयों के मामलों में और भी बढ़ जाती है। याद कीजिए, एक छोटा सा निर्णय लेना था, लोकपाल बनेगा या नहीं बनेगा। फैसला करने में कितने महीने लगा दिए। और वो तो तब, जबकि जवाब हां या ना में चाहिए था। और यहां लाखों महिलाएं एक ही सवाल से दिन में तीन बार, रोज़ाना जूझती हैं कि आज सब्जी में क्या बनेगा? और हर बार एक नए जवाब के साथ कुछ नया पेश करती हैं।
कहना बड़ा आसान है, धत गोभी ही होगा। पर वो साल में 1095 बार इस सवाल का जवाब तलाशती हैं। पढ़कर मुस्कुरा देना सहज है। ज़रा दिल पर हाथ रखकर पूछिए कि कौन कितनी बार मदद करता है, इन अबलाओं की।
बच्चों से पूछो तो नूडल्स, पास्ता, मैकरानी सौ चीज़ें गिना देंगे, पर एक सब्जी का नाम नहीं बताएंगे। पति को फोन करो...देख लो...बना लो...जो दिल करे। बस यही पूछने के लिए फोन किया था? कहीं दोबारा पूछ लो तो कहेंगे, सुबह नाश्ते में क्या था? ये एक और वार घायल दिल पर। कितने दिनों बाद, कितनी मेहनत से, कितने दिल से स्टफड बैंगन बनाकर खिलाए थे, नाश्ते में। अभी दो घंटे भी नहीं हुए हैं कि बोल रहे हैं कि नाश्ते में क्या था।
बड़ी हिम्मत करके तीसरी बार भी पूछ लिया तो वो रामबाण जवाब मिलेगा...अच्छा मैं करता हूं, दो मिनट बाद। बस इसके बाद तो आप भी जानते हैं और मैं भी। ये निर्णय लेने में सहायक कोई नहीं होता, उल्टा घर में कुक है या बाई है तो वो पूछ-पूछकर परेशान कर देते हैं-हां जी, क्या बनाना है? अगर कोई अल्लाह का बंदा है तो वो सब्जी वाला भईया, जो ये कह कर कि मैडम सीज़न की नई सब्जी लाया हूं, बड़ी राहत देता है।
बस यूं ही तेज़ धारदार निर्णय लेते हुए भी हमारी क्षमता निखरती जाती है। एक और बेहद ही पेचीदा निर्णय रोज़ लेना पड़ता है और ये तो पहले वाले सवाल से भी कहीं अधिक काबिलियत को परखता है। और वो है कि क्या पहनुं...कोई अच्छी ड्रेस है ही नहीं। तो क्या हुआ, जो घर में मौजूद छह अल्मारियों में से चार में आपके ही कपड़े सुशोभित हैं, क्या हुआ जो आपकी रोज़मर्रा की, पार्टी की, ऑफिस की ड्रेस करीने से लगी दिख रही है।
पर प्रश्न तो अपनी जगह खड़ा है कि क्या पहनुं, मेरे पास तो कुछ है ही नहीं। ओह, फिर मदद नो कोई नहीं है। बच्चे से पूछो, बोलेगो वो ऑरेंज वाली पहन लो। पूछो कौन सी? ऑरेंज साड़ी नहीं...जींस और फिर कंप्यूटर गेम्स पर नज़रें गड़ा देगा। मैं जानती हूं कि मेरे पास ऑरेंज जींस नहीं है, पर सोच तो सकती हूं एक नई ले लूं। पीच वाले टॉप के साथ अच्छी लगेगी शायद, लेकिन प्रश्न अभी तक निर्णय के इंतज़ार में है। पति से पूछो...वही जाना-पहचाना, राजा-महाराजाओं का जवाब...कुछ भी पहन लो, हर ड्रेस में अच्छी लगती हो।
आपसी संबंधों की सेहत के लिए बहुत अच्छा है, पर महिलाओं को चिढ़ है इस टालु जवाब से। यूं ही नहीं लिया जाता निर्णय इस टेढ़े सवाल का, बंद कमरे में शीशे के सामने कितनी ही ड्रेसेस लगा-लगाकर देखनी पड़ती हैं। कौन सी, कब, कहां, कितनी बार पहले पहनी जा चुकी है। सारा हिसाब लगाकर, बहुत सोच समझकर ही आखिरी निर्णय लेना होता है। और भी ·ई निर्णाय· सवाल होते हैं। मसलन, बची हुई सब्जी बाई को कब देनी है, बच्चों के छोटे हुए कपड़े कहां, किसको देने हैं। कौन की सेल कब खत्म होनी है। बस यूं ही रोका इतने बड़े-बड़े निर्णयों से गुज़रते देश, दुनिया के बारे में निर्णय लेना चुटकियों का काम लगता है।
तभी तो जो निर्णय मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते हुए भी नहीं ले पाते, हम ले लेती हैं मिनटों में। यूं ही नहीं विराजमान हैं हम, पेप्सीको, आईसीआईसीआई बैंक के सीईओ की कुर्सी पर। कुछ तो बात है हममें, हमारे निर्णयों में।
-डॉ. पूनम परिणिता