नए साल की एक नई सुहानी सुबह। नया कलरव, नया कलेवर। नए संकल्प, नए संयम, नए नियम। बस कुछ पुराना है तो वह हैं हम। न सिर्फ पुराने, बल्कि एक साल और पुराने हो चले हैं।
फिर भी, इस पुरातन से ही, नए का स्वागत तो करना ही होगा।
पिछले कुछ साल से मेरे साथ तो ये दिक्कत हो चली है, जाने उम्रदराज़ी है या सभ्य शब्दों में कहा जाए मेच्योरिटी या कि अक्ल दाढ़ों से अक्ल रिस-रिसकर बाहर आ रही है। मैं कुछ चुप हो चली हूं। कुछ ‘समझदार’ सी। कम बोलना भाने लगा है। सुनने की इच्छा ज्यादा होती है, पर अच्छा सुनने की। लोगों को इतना बोलते और व्यर्थ बोलते देखकर कोफ्त होने लगी है। बनावटी बातें, शहद लिपटे व्यंग्य-बाण, बेकार के तर्क और सबसे बढ़कर औपचारिकता निभाने की रस्मी बातें। हैलो...हां जी, नया साल मुबारक हो...हां जी...आपको भी। बात तो इतनी सी है, फिर उसके बाद! और...बस...।
समझते सब हैं कि इसके बाद की जितनी बाते हैं, उन्हें आप ऊपर लिखी किसी कैटेगिरी में डाल सकते हैं। सब महज औपचारिकता है, आपके आपसी संबंधों की व्याख्या मात्र। दिल किसी का नहीं करता, पर चूंकि मोबाइल के दूसरी तरफ जो कान है, उससे आपका लेना-देना ज़रूर है, वो भले ही कोई व्यावसायिक है, आपका सहकर्मी है, आपका बॉस है या आपका रिश्तेदार। सो आपको ओके कहने तक का सफर तो तय करना ही होगा।
कुछ यही बात गिफ्ट और अन्य भेंटों की भी है। दिल करे या न करे। मुझे आपसी भेंट (मेल-मिलाप) और देने वाली भेंट में भी सामंजस्य लगता है। वही दिल करे न करे, लेन-देन करना पड़ता है।
कल ही कोई बोल रहा था कि ‘मैन इज़ ए एनिमल’। बस सोसायटी में रहने की वजह से ‘सोशल’ हो गया है। और वो सब नहीं कर पा रहा जो वो एनिमल रहते कर सकता था। और इसी वजह से परेशान सा है।
देखने, सुनने, बोलने के निमित बनाई गई इंद्रियों में क्रमश: चश्मा, हेडफोन और मोबाइल फोन लगे हैं। हाथों में स्टेयरिंग है, पैरों में रेस है। सोचने के लिए कंप्यूटर है, सो दिल और दिमाग खाली-खाली से हैं। ऐसे में जीना क्या है और ज़िंदगी कहां है ये एक शोध का विषय है।
कहीं, कोई कुल पल ठहरे तो, रुककर सुने तो। पर उसके लिए तो पैर को ब्रेक पर लाना होगा, हाथ को न्यूटरल पर, कान से हेडफोन हटाने पड़ेंगे, मोबाइल को म्यूट करना पड़ेगा और शरीर नामक इस मशीन को फैक्टरी के डिफाल्ट मोड पर लाना होगा। काम थोड़ा पेचीदा ज़रूर है, पर सुकूनभरा भी है।
नए साल के लिए कुछ नया नहीं सोचा है। बस जो है, जैसा है, चलता रहे तो बेहतर। बस ज़िंदगी से दरकार है बहती रहना, यूं ही अविरल। सब चीज़ों, सब कामों से पेशतर बस ज़िंदगी की दस्तक ज़रूरी है। हर साल, साल दर साल मेरे घर आना...आना ज़िंदगी।
डॉ. पूनम परिणिता
फिर भी, इस पुरातन से ही, नए का स्वागत तो करना ही होगा।
पिछले कुछ साल से मेरे साथ तो ये दिक्कत हो चली है, जाने उम्रदराज़ी है या सभ्य शब्दों में कहा जाए मेच्योरिटी या कि अक्ल दाढ़ों से अक्ल रिस-रिसकर बाहर आ रही है। मैं कुछ चुप हो चली हूं। कुछ ‘समझदार’ सी। कम बोलना भाने लगा है। सुनने की इच्छा ज्यादा होती है, पर अच्छा सुनने की। लोगों को इतना बोलते और व्यर्थ बोलते देखकर कोफ्त होने लगी है। बनावटी बातें, शहद लिपटे व्यंग्य-बाण, बेकार के तर्क और सबसे बढ़कर औपचारिकता निभाने की रस्मी बातें। हैलो...हां जी, नया साल मुबारक हो...हां जी...आपको भी। बात तो इतनी सी है, फिर उसके बाद! और...बस...।
समझते सब हैं कि इसके बाद की जितनी बाते हैं, उन्हें आप ऊपर लिखी किसी कैटेगिरी में डाल सकते हैं। सब महज औपचारिकता है, आपके आपसी संबंधों की व्याख्या मात्र। दिल किसी का नहीं करता, पर चूंकि मोबाइल के दूसरी तरफ जो कान है, उससे आपका लेना-देना ज़रूर है, वो भले ही कोई व्यावसायिक है, आपका सहकर्मी है, आपका बॉस है या आपका रिश्तेदार। सो आपको ओके कहने तक का सफर तो तय करना ही होगा।
कुछ यही बात गिफ्ट और अन्य भेंटों की भी है। दिल करे या न करे। मुझे आपसी भेंट (मेल-मिलाप) और देने वाली भेंट में भी सामंजस्य लगता है। वही दिल करे न करे, लेन-देन करना पड़ता है।
कल ही कोई बोल रहा था कि ‘मैन इज़ ए एनिमल’। बस सोसायटी में रहने की वजह से ‘सोशल’ हो गया है। और वो सब नहीं कर पा रहा जो वो एनिमल रहते कर सकता था। और इसी वजह से परेशान सा है।
देखने, सुनने, बोलने के निमित बनाई गई इंद्रियों में क्रमश: चश्मा, हेडफोन और मोबाइल फोन लगे हैं। हाथों में स्टेयरिंग है, पैरों में रेस है। सोचने के लिए कंप्यूटर है, सो दिल और दिमाग खाली-खाली से हैं। ऐसे में जीना क्या है और ज़िंदगी कहां है ये एक शोध का विषय है।
कहीं, कोई कुल पल ठहरे तो, रुककर सुने तो। पर उसके लिए तो पैर को ब्रेक पर लाना होगा, हाथ को न्यूटरल पर, कान से हेडफोन हटाने पड़ेंगे, मोबाइल को म्यूट करना पड़ेगा और शरीर नामक इस मशीन को फैक्टरी के डिफाल्ट मोड पर लाना होगा। काम थोड़ा पेचीदा ज़रूर है, पर सुकूनभरा भी है।
नए साल के लिए कुछ नया नहीं सोचा है। बस जो है, जैसा है, चलता रहे तो बेहतर। बस ज़िंदगी से दरकार है बहती रहना, यूं ही अविरल। सब चीज़ों, सब कामों से पेशतर बस ज़िंदगी की दस्तक ज़रूरी है। हर साल, साल दर साल मेरे घर आना...आना ज़िंदगी।
डॉ. पूनम परिणिता