लो एक कहानी गुनते हैं, काल, देश, देशांतर, समय, पात्र, सबकी पहचान कहानी के अंत में करेंगे, आपकी सूझबूझ के अनुसार। तीन बच्चे हैं, गोल-मटोल, प्यारे-प्यारे, तीनों ही अपनी-अपनी मां के बेहद दुलारे। एक के घर गुरबत का माहौल है और दूसरे खाते-पीते जमीदार घर से बावस्ता हैं, वहीं तीसरे का सामान्य कई भाई-बहनों का बड़ा सा परिवार है। ज़िंदगी अलबत्ता बिना भेदभाव अबाध रूप से चलती है सबके घर। वक्त के, सबको समान चौबीस घंटे ही प्रदत्त, लेकिन कहीं तो मिनट, घंटे, दिन काटना बेहद ही दूभर है, तो कहीं दिन कब चढ़ा, कब उतरा पता ही नहीं चलता। शुक्र बस इतना भर कि जिंदगी में से सबका एक ही दिन कटता है रोज।
चलो कहानी में रवानी के लिए पात्रों के नाम रख लेते हैं, एक का ‘क’, दूसरे का ‘स’ और तीसरे का ‘भ’। तीनों अब चौथी कक्षा में पहुंच गए हैं। बेहद गरीबी के रहते भी ‘क’ बहुत बड़े-बड़े सपने देखने का आदी है। मां से अक्सर कहता है, देखना तुझे एक दिन हवाई जहाज की सैर करवाऊंगा, दूसरे देश घुमाऊंगा। मां, उसकी बेपरवाह फैलती आंखों को देखकर डर सी जाती है। ना बेटा, मुझे नहीं घूमना, अल्लाह दो वक्त की रोटी इज्जत से दे दे, बहुत है। तूने आज की नमाज की या नहीं, बेटा शुक्राना किया कर, इस रूखी-सूखी के लिए भी।
‘स’ की बहनें उसके सारे नखरें उठाती हैं, तीन बहनों में सबसे छोटा है, पर उन पर खूब रौब झाड़ता है, बात-बात पर बात न करने की धमकी भी देता है। मां का बस चले तो उसे स्कूल भी ना जाने दे, जरा आंखों से दूर होने पर बेचैन हो जाती है। ‘भ’ की बात निराली है, बड़ा ही जिद्दी है, अपनी धुन का पक्का, जो ठान लिया, सो कर दिया। पढऩे का शौकीन, बचपन से ही अपनी अलग पहचान बनाना चाहता है। जमीदार से बेहतर कुछ और करना है उसे। मां जब ठोढ़ी से पकड़ कर उसके बाल संवारती है, बड़ी कोशिश करती है उसकी आंखों को पढऩे की, पर वो पलक झपका कर, बंद कर देता, बड़ी-बड़ी आंखें।
वक्त का पहिया घूमता रहता है, सबके लिए समान, तीनों ही की उम्र जवानी की पहली सीढ़ी छू रही है। मस्से भीगने लगी हैं, उंगलियां छू-छू कर मूंछों के बालों के होने एहसास को महसूस करना चाहती हैं। बस उम्र के इसी पड़ाव पर सबको एक-एक आदमी मिलता है। ‘क’ ने एक दिन अब्बा से ईद के दिन नए कपड़े मांगे, अब्बू ने गरीबी और लाचारी के चलते मना कर दिया। दोबारा मांगने पर, बुरी तरह गुस्से से लताड़ दिया। तभी कहीं उन्हीं दिनों में मिला था वो आदमी। ‘क’ बड़ा ही प्रभावित हुआ शख्सियत से, वो उसकी बातों में खो सा जाता है, एक-एक लफ्ज सच, एक-एक लाइन में जिंदगी की असीम संभावनाएं। अब तक का जीवन साला गाली सी लगता है। जो ये कह रहा है सब सच है क्या। सब सच होगा क्या। सब सच हो गया तो, बस मां को हवा में उड़ाने का सपना भी सच। गुरबत से आजादी, मुक्ति।
‘स’ को जो मिला उसने उसे आम सा सपना दिखाया। थोड़ी सी कुछ ज्यादा कमाई का सपना, सरहद के आर-पार आने-जाने का काम है। वो घर पर कुछ ठीक नहीं बताता, कुछ लोग कहते हैं खुफिया नौकरी पा गया है। एक अलग तरह की आजादी यहां भी है। ‘भ’ को किसी ने दिखाया, सच्ची आजादी का सपना, जिंदगी को देश के नाम लिखने का सपना, समर्पण का, शहादत का सपना। जिंदगी के सफर में तीनों निकले अपनी-अपनी राह। ‘क’ के हाथों में मौत का हथियार, पर दिमाग में जेहाद।
‘स’ के बारे में कहा जाता है कि नौकरी के चलते उसका वास्ता भी गोलियों से पड़ता रहता है। ‘भ’ के हाथ में बम है, है तो ये भी मौत का हथियार। पर आजादी का ये परवाना कहता है कि इससे सिर्फ कान खोलना चाहता है बहरी सरकार के। धाय, धाय, बम, भड़ाक, खून, लाशें, कपड़ों के चिथड़े, दौड़ती-भागती सरकारें, एम्बुलेंस, बस, सक्वाड.....
सांस सांस रुकती जिंदगियां। वक्त भी एक सांस रुका था, पर फिर चल दिया। और अब है, धुआं, गुबार, बेतहाशा दर्द, रिसते घाव, मरहम पट्टियां, पुलिस, तफतीशें, कोर्ट-कचहरी, जज, अपीलें, तारीखें, फैसला। और फैसला है फांसी। क, स, भ सजा-ए-मौत...फांसी। यकायक मेरा मन अपनी कहानी के पात्रों से मिलना चाहता है। मैंने आवाज दी उन्हें उनके नाम से, पर एक बड़ा मंच सा उभर रहा है आंखों के सामने और धीरे-धीरे उतरता एक बड़ा सा काल परदा। मेरे किरदार कहीं नहीं हैं। अब तीन परछाइयां हिल रही हैं। मैं चाहती हूं तीनों को अलग-अलग कर दूं, उनके नाम, देश, देशान्तर, काल, समय यहां तक कि उन पर लगे आरोपों के हिसाब से, पर वो फिर हिल-हिल कर एक-दूसरे में समाती जाती हैं। मेरी मुश्किलें बढ़ाती जाती हैं। पीछे कुछ शोर सुन रहा है। कुछ लोग जोरों से बड़बड़ा रहे हैं शहादत, शहीद, आतंकवादी, चौराहे पर फांसी, स्मारक बनाओ, लाश दो। सब गडमगढ है, जैसे ये भारी शब्द मेरे किरदारों को खींच रहे हैं। पर कौन कह रहा है, किसके बारे में कह रहा, जरा भी साफ नहीं है कुछ भी साबित नहीं है। तीन अक्स और उभर रहे हैं। ये तीनों औरते हैं जिनमें से दो तो मां हैं और एक शायद बहन है। माएं जानती हैं कि बेटे को फांसी हो चुकी है, बेसाख्ता दर्द को जज्ब किए हुए है। दोनों बेटों ने अंतिम इच्छा में मां के लिए ही कुछ पैगाम दिया था। तीसरी बहन है, अपने फांसीयाफ्ता भाई के लिए दुआ कर रही है।
तीनों औरतों की परछाइयां मेरे किरदारों में अपनों को ढूंढ रही हैं। पर पीछे बढ़ता सरकारों का, देशों का, लोगों का शोर, फिर परदे को हिला कर एक-दूसरे से बदल देता है।
जिंदगी अपनी जंग हार चुकी है। हार हर हाल जिंदगी की हुई है। तब भी जब बम फटे, तब भी जब फांसी हुई।
हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू सरकारें कभी एकमत ना हो गई। शहीद कौन, आतंकी कौन। हारा कौन, जीता कौन।
-पूनम परिणिता
चलो कहानी में रवानी के लिए पात्रों के नाम रख लेते हैं, एक का ‘क’, दूसरे का ‘स’ और तीसरे का ‘भ’। तीनों अब चौथी कक्षा में पहुंच गए हैं। बेहद गरीबी के रहते भी ‘क’ बहुत बड़े-बड़े सपने देखने का आदी है। मां से अक्सर कहता है, देखना तुझे एक दिन हवाई जहाज की सैर करवाऊंगा, दूसरे देश घुमाऊंगा। मां, उसकी बेपरवाह फैलती आंखों को देखकर डर सी जाती है। ना बेटा, मुझे नहीं घूमना, अल्लाह दो वक्त की रोटी इज्जत से दे दे, बहुत है। तूने आज की नमाज की या नहीं, बेटा शुक्राना किया कर, इस रूखी-सूखी के लिए भी।
‘स’ की बहनें उसके सारे नखरें उठाती हैं, तीन बहनों में सबसे छोटा है, पर उन पर खूब रौब झाड़ता है, बात-बात पर बात न करने की धमकी भी देता है। मां का बस चले तो उसे स्कूल भी ना जाने दे, जरा आंखों से दूर होने पर बेचैन हो जाती है। ‘भ’ की बात निराली है, बड़ा ही जिद्दी है, अपनी धुन का पक्का, जो ठान लिया, सो कर दिया। पढऩे का शौकीन, बचपन से ही अपनी अलग पहचान बनाना चाहता है। जमीदार से बेहतर कुछ और करना है उसे। मां जब ठोढ़ी से पकड़ कर उसके बाल संवारती है, बड़ी कोशिश करती है उसकी आंखों को पढऩे की, पर वो पलक झपका कर, बंद कर देता, बड़ी-बड़ी आंखें।
वक्त का पहिया घूमता रहता है, सबके लिए समान, तीनों ही की उम्र जवानी की पहली सीढ़ी छू रही है। मस्से भीगने लगी हैं, उंगलियां छू-छू कर मूंछों के बालों के होने एहसास को महसूस करना चाहती हैं। बस उम्र के इसी पड़ाव पर सबको एक-एक आदमी मिलता है। ‘क’ ने एक दिन अब्बा से ईद के दिन नए कपड़े मांगे, अब्बू ने गरीबी और लाचारी के चलते मना कर दिया। दोबारा मांगने पर, बुरी तरह गुस्से से लताड़ दिया। तभी कहीं उन्हीं दिनों में मिला था वो आदमी। ‘क’ बड़ा ही प्रभावित हुआ शख्सियत से, वो उसकी बातों में खो सा जाता है, एक-एक लफ्ज सच, एक-एक लाइन में जिंदगी की असीम संभावनाएं। अब तक का जीवन साला गाली सी लगता है। जो ये कह रहा है सब सच है क्या। सब सच होगा क्या। सब सच हो गया तो, बस मां को हवा में उड़ाने का सपना भी सच। गुरबत से आजादी, मुक्ति।
‘स’ को जो मिला उसने उसे आम सा सपना दिखाया। थोड़ी सी कुछ ज्यादा कमाई का सपना, सरहद के आर-पार आने-जाने का काम है। वो घर पर कुछ ठीक नहीं बताता, कुछ लोग कहते हैं खुफिया नौकरी पा गया है। एक अलग तरह की आजादी यहां भी है। ‘भ’ को किसी ने दिखाया, सच्ची आजादी का सपना, जिंदगी को देश के नाम लिखने का सपना, समर्पण का, शहादत का सपना। जिंदगी के सफर में तीनों निकले अपनी-अपनी राह। ‘क’ के हाथों में मौत का हथियार, पर दिमाग में जेहाद।
‘स’ के बारे में कहा जाता है कि नौकरी के चलते उसका वास्ता भी गोलियों से पड़ता रहता है। ‘भ’ के हाथ में बम है, है तो ये भी मौत का हथियार। पर आजादी का ये परवाना कहता है कि इससे सिर्फ कान खोलना चाहता है बहरी सरकार के। धाय, धाय, बम, भड़ाक, खून, लाशें, कपड़ों के चिथड़े, दौड़ती-भागती सरकारें, एम्बुलेंस, बस, सक्वाड.....
सांस सांस रुकती जिंदगियां। वक्त भी एक सांस रुका था, पर फिर चल दिया। और अब है, धुआं, गुबार, बेतहाशा दर्द, रिसते घाव, मरहम पट्टियां, पुलिस, तफतीशें, कोर्ट-कचहरी, जज, अपीलें, तारीखें, फैसला। और फैसला है फांसी। क, स, भ सजा-ए-मौत...फांसी। यकायक मेरा मन अपनी कहानी के पात्रों से मिलना चाहता है। मैंने आवाज दी उन्हें उनके नाम से, पर एक बड़ा मंच सा उभर रहा है आंखों के सामने और धीरे-धीरे उतरता एक बड़ा सा काल परदा। मेरे किरदार कहीं नहीं हैं। अब तीन परछाइयां हिल रही हैं। मैं चाहती हूं तीनों को अलग-अलग कर दूं, उनके नाम, देश, देशान्तर, काल, समय यहां तक कि उन पर लगे आरोपों के हिसाब से, पर वो फिर हिल-हिल कर एक-दूसरे में समाती जाती हैं। मेरी मुश्किलें बढ़ाती जाती हैं। पीछे कुछ शोर सुन रहा है। कुछ लोग जोरों से बड़बड़ा रहे हैं शहादत, शहीद, आतंकवादी, चौराहे पर फांसी, स्मारक बनाओ, लाश दो। सब गडमगढ है, जैसे ये भारी शब्द मेरे किरदारों को खींच रहे हैं। पर कौन कह रहा है, किसके बारे में कह रहा, जरा भी साफ नहीं है कुछ भी साबित नहीं है। तीन अक्स और उभर रहे हैं। ये तीनों औरते हैं जिनमें से दो तो मां हैं और एक शायद बहन है। माएं जानती हैं कि बेटे को फांसी हो चुकी है, बेसाख्ता दर्द को जज्ब किए हुए है। दोनों बेटों ने अंतिम इच्छा में मां के लिए ही कुछ पैगाम दिया था। तीसरी बहन है, अपने फांसीयाफ्ता भाई के लिए दुआ कर रही है।
तीनों औरतों की परछाइयां मेरे किरदारों में अपनों को ढूंढ रही हैं। पर पीछे बढ़ता सरकारों का, देशों का, लोगों का शोर, फिर परदे को हिला कर एक-दूसरे से बदल देता है।
जिंदगी अपनी जंग हार चुकी है। हार हर हाल जिंदगी की हुई है। तब भी जब बम फटे, तब भी जब फांसी हुई।
हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू सरकारें कभी एकमत ना हो गई। शहीद कौन, आतंकी कौन। हारा कौन, जीता कौन।
-पूनम परिणिता