जो भी हो तुम खुदा की कसम....

अखबार में पढ़कर पता चला कि आज रूप चौदस है, सौंदर्य का पर्व। वरना तो इतना ही जानते थे इस दिन के बारे में कि छोटी दिवाली होती है पर सौंदर्य यानि क्या, परिभाषा क्या है, मापदंड क्या है, आदर्श कौन है और कब तक है। कैसे मोहित होते हैं हम पूर्णिमा के चमकते पूर्ण चांद पर, कुछ देर तक तो उस पर न्यौछावर रहते हैं, फिर अनायास ही नजरें उसके दूसरे पहलू पर पड़ती हैं, तो कभी गड्ढे दिखने लगते हैं, कभी दाग, तो कभी चरखा काटती बुढिय़ा। बस, फिर ये ही नजरें ढूंढने लगती हैं कोई और सौंदर्य, कहीं और पूर्णता।
कभी-कभी यूं ही कहीं, राह चलते, दिख जाता है कोई हसीन चेहरा, कहीं चाल में नजाकत, किसी अंदाज में नफासत और कभी पहरन में अदावत। दिल को भला तो लगता है, नजरें तो ठहरती हैं पर फितरत फिर कुछ तलाशने लगती है, कुछ और बेहतर। व्यक्तिगत तौर पर मुझे डायना बहुत सुंदर लगती थी, पर उस सौंदर्य का हश्र बड़ा भयानक रहा। जब उसके रूप पर कायल प्रिंस चाल्र्स ने उसे छोड़कर किसी और की सुंदरता को उससे बेहतर माना। उस वक्त उसकी मनोदशा क्या रही होगी। उस नाज की, उस मान की, उस गर्व की दशा क्या हुई होगी।
मुझे तब भी समझ नहीं आया था कि आखिर सुंदरता है क्या। लाखों-करोड़ों लोग नजर भर देखने को तरसते रहे और जिसे मन चाहे वो नजर फेर ले। फिर क्या कहता होगा आइना, लिपस्टिक भरते हुए होंठ क्या कुछ बुदबुदाते होंगे। कुछ ऐसा ही सौंदर्य, हेमा मालिनी, करिश्मा, श्रीदेवी और अब करीना का है। और कुछ वैसा ही हश्र भी। इन सब रूप सुंदरियों का रूप वहां टूट कर बरसा जहां पहले ही बारिश हो चुकी थी। सारी बात शायद मन को समझने और समझाने की है। सौंदर्य की ऐसी शृंखला में अचंभित करने वाला एक नाम और भी है ‘प्रियंका गांधी’। यहां भी शायद दिल का मामला भारी पड़ गया। कभी मुझे लगता है कि जैसे कहा जाता है ना कि प्यार अंधा होता है, यूं ही सौंदर्य के कानों में कुछ गड़बड़ होती है, जब तक उसके कान में ना सुन ले ‘तुम बेहद खूबसूरत हो’ तब तक ही कान ठीक काम करते हैं उसके बाद कुछ भी सुनना बंद कर देते हैं।
चलिये थोड़े आम सौंदर्य की बात करते हैं, हमारे-आपके सौंदर्य की, बस इतनी सी प्रॉब्लम है, आइना तो कहता है कि अच्छी लग रही हो, पर वो बोल नहीं सकता। और जो बोल सकते हैं उनकी आंखों के सामने अखबार, टीवी, कंप्यूटर, लैपटॉप या कानों में मोबाइल लगे रहते हैं। उनकी बस नजरों से समझना पड़ता है कि शायद ठी· ही लग रहे हैं। हालांकि किस्सा यहां कभी खत्म नहीं होता, क्योंकि हमारे पास प्रश्न और भी होते हैं, जैसे ये कलर सूट कर रहा है, शब्द बेशक फिर नहीं बोलें पर, गर्दन ने हिलकर कह दिया है, हां। फिर एक और प्रश्न है, मोटी तो नहीं लग रही, इस बार हाथ के इशारे ने दो बार हिलकर नहीं बता दिया है। बस आखिरी बात ‘ये सैंडिल ठीक लग रहे हैं’ ऊपर से चला सौंदर्य क्विज पैरों तक आ पहुंचा है। पर वो तो पहले प्रश्न को ही आखिरी पड़ाव बनाकर चलते हैं।
ज्यादातर कविता, गीत, संगीत, फिल्मी गाने अति सौंदर्य पर गढ़े गए हैं। इन सबमें औसत सुंदरता वाली कुछ लाइनें भी हैं, जिनसे आम सौंदर्य का भी जीवनयापन होता है। इन्हीं में से एक है चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था, हां तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था, बड़ी राहत वाला गाना है। ऐसी ही एक बीच की लाइन है, ना कोई किया श्रृंगार फिर भी कितनी सुंदर हो। और अंत में ‘जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो।’

-पूनम परिणिता